आज तक रहस्य है शास्त्री जी की मृत्यु.
लाल बहादुर शास्त्री पुण्यतिथि
‘द ताशकंद फाइल्स’ से सामने आए तथ्य.
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
भारत के दूसरे प्रधानमंत्री स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री की 11 जनवरी को पुण्यतिथि है। ‘जय जवान जय किसान’ का नारा देने वाले लाल बहादुर शास्त्री ने अपना सरनेम श्रीवास्तव इसलिए हटा दिया था, क्योंकि वह जातिवाद के विरोधी थे। देशहित उनके लिए सर्वोपरि था।
उन्हें नमन के साथ उनके आदर्र्शों का अनुसरण आवश्यक है। 10 जनवरी, 1966 को ताशकंद में भारत पाकिस्तान के बीच शांति समझौता हुआ था। उसके 12 घंटे के अंदर ही शास्त्री जी की मृत्यु हो गई थी। उनकी मृत्यु हार्ट अटैक से हुई थी या उन्हें जहर दिया गया था? आखिर क्यों उनका पोस्टमार्टम नहीं किया गया? निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री ने वर्ष 2019 में रिलीज अपनी फिल्म ‘द ताशकंद फाइल्स’ में इन सवालों को उठाया था।
लाल बहादुर शास्त्री जी की मौत को लेकर करीब 50 साल से सवाल उठ रहे थे, लेकिन किसी ने इस पर काम नहीं किया था। मैंने इस पर थोड़ी मेहनत और रिसर्च की। फिल्म बनाने का यह आइडिया करीब सात साल पहले मुझे दो अक्टूबर को ही आया। मेरे बेटे को यह पता था कि दो अक्टूबर को महात्मा गांधी की जयंती है, लेकिन उसे यह नहीं पता था कि लाल बहादुर शास्त्री की भी जयंती होती है। वहां से लगा कि नई पीढ़ी के लिए उनके बारे में जानना बहुत जरूरी है। फिर हमने उन पर रिसर्च शुरू की। उस दौरान समझ आया कि कई बार विधिवत तरीके से सत्य को छिपाया जाता है।
इसलिए मैंने कहा कि लोकतांत्रिक देश में सबसे जरूरी बात है राइट टू ट्रुथ यानी सच जानने का अधिकार सबसे पहले है। यही अधिकार सरकार हमें देती नहीं है। उसी थीम पर इस फिल्म का निर्माण हुआ। फिल्म की शुरुआत का सीन रूस की खुफिया एजेंसी केजीबी से होता है। दरअसल जब शीत युद्ध जारी था, उस वक्त भारत में केजीबी का प्रभाव था।
इंदिरा गांधी की सरकार में कम्युनिस्ट लोगों का हस्तक्षेप था। केजीबी के एजेंट प्रभावी थे। उनकी बात प्रस्तुत करने के लिए पत्रकारों, नेताओं और प्रोफेसर्स को पैसे भी मिलते थे। इन सबका विवरण द मिट्रोखिन आकाईव किताब में है। मुझे लगा कि शास्त्री जी की मृत्यु केजीबी और शीत युद्ध से संबंधित है, इसलिए वहां से इस सीन की शुरुआत की। बाद में समझ आया कि यह अच्छा आइडिया था।
फिल्म में कमेटी अहम थी। यह कमेटी बनाने की भी वजह थी, क्योंकि मैं दर्शाना चाहता था कि जो काम भारत की सरकारें नहीं कर पाईं, अगर उसे किया जाता तो उसका नतीजा कैसे निकलता। उसमें क्या बहस होती? क्या-क्या तर्क सामने आते जोकि कभी हुआ नहीं, इसलिए मैंने उसमें नौ कलाकारों को लेकर एक कमेटी का निर्माण किया था, जिसमें भिन्न-भिन्न क्षेत्र के लोग थे।
बाकी हर पहलू में देखें तो अपनी तरह की यूनीक फिल्म है। जब यह फिल्म बनाई तो सब कह रहे थे कि यह फिल्म कौन देखेगा, इसमें कुछ स्क्रीन प्ले नहीं है। सिर्फ डायलाग ही डायलाग हैं, कलाकार बोलते रहते हैं।
ईश्वर की लीला है कि इसे डायलाग और स्क्रीन प्ले के लिए ही नेशनल अवार्ड मिला। बहरहाल फिल्म के लिए हमने करीब चार साल रिसर्च की। जब हमने रिसर्च करना शुरू किया तो बहुत सामग्री मौजूद नहीं थी। हमने सूचना के अधिकार के तहत 25 से ज्यादा आरटीआइ फाइल कीं। उनमें कुछ के जवाब आए, कुछ के नहीं। राष्ट्रीय अभिलेखागार में महीनों बैठे रहे।
मैंने लाल बहादुर शास्त्री से जुड़े लोगों से बात की। उनका वीडियो बनाया। उनके पूरे परिवार का इंटरव्यू किया। उनके दौर में काम करने वाले पत्रकारों से भी मिला। खास तौर पर कुलदीप नैयर साहब से। उनके लंबे इंटरव्यू किए। जहां से भी खबर मिली, उसकी पड़ताल की।
अंत में मैंने जनता से इंटरनेट मीडिया पर अपील की कि उनके पास जो भी सूचना है हमारे साथ साझा करें। उसके बाद लोगों के माध्यम से बहुत सारी किताबें, आइडियाज, कांटैक्ट्स मिले। ये प्रयास करते-करते हम ऐसी दिशा में पहुंचे जहां कई सारे सवालों के जवाब पड़े हुए थे। किसी ने उस दिशा में देखने की कोशिश नहीं की थी। किसी ने अच्छे तरीके से जांच नहीं की थी।
उसकी वजह से यह फिल्म अंतत: सफल हो पाई। इस फिल्म में हमने सभी तथ्यों को शामिल किया। एक तरह से देखा जाए तो हमारे पास शास्त्री जी का आशीर्वाद था कि हम जो चाहते थे हमने किया। जहां तक मिथुन दा (मिथुन चक्रवर्ती) को कास्ट करने की बात है तो हम सब जानते हैं कि वह कमाल के कलाकार हैं जो किसी भी प्रकार का रोल कर सकते हैं।
मुझे त्रिपाठी के रोल के लिए ऐसे कलाकार की जरूरत थी जो थोड़ा उम्रदराज हो। आखिर का सीन था जिसमें वह मुस्कराकर कहते हैं वेलकम टू पालिटिक्स। मिथुन दा की मुस्कान जहां मोहक है, वहीं उसमें एक शरारत भी है जो पूरी फिल्म को सार्थक करती है। मुझे लगा कि यह मुस्कान सिर्फ उनकी ही हो सकती है।
पल्लवी जोशी के किरदार को व्हीलचेयर पर रखने की भी खास वजह थी। उनका किरदार अपने ही पूर्वाग्रहों से घिरा हुआ था। वह लेफ्टिस्ट (वामपंथी) हैं। वह किस तरह अपनी ही सोच में सीमित होकर हैंडीकैप हो गई हैं। वह कुछ भी कर लें, अपनी व्हीलचेयर से बाहर नहीं निकल सकतीं। यह एक तरह से उनकी इंटेलेक्चुअल आइडियोलाजी कैद को दिखाने का तरीका था, इसलिए व्हीलचेयर पर उन्हें दिखाया। इस फिल्म की बहुत सी बातें जेहन में ताजा हैं।
जब हम ताशकंद में शूटिंग करने गए थे तो वहां पर उतरते ही पता नहीं कैसे स्थानीय लोगों और गाइड्स को पता चल गया था कि हम फिल्म की शूटिंग के लिए आए हैं। वो मुझसे छुप-छुपकर मिलते रहे। कभी होटल में तो कभी बाहर। वे बताते थे कि किस तरह से वहां पर शास्त्री जी की हत्या हुई थी। इस खबर को छिपाने की कोशिश की गई।
दूसरी चीज जो सबसे ज्यादा यादगार रही कि जब भी हम कहीं शूटिंग करते थे तो लोग हमें फ्री में खाना खिलाते थे, जैसे भारत में अलग-अलग जगहों पर मंडी लगती है वैसे ही वहां पर होलसेल का मार्केट है। वहां पर अखरोट, बादाम, काजू, किशमिश खूब मिलते हैं। हम वहां गए। वहां लोगों ने हमें फ्री में काजू, बादाम खिलाए। वहां के लोगों का स्नेह मैं कभी भूल नहीं सकता।
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