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पर्यावरण के दुश्मनों से लड़ने के लिए हमें अभी और बहुगुणा चाहिए.

पर्यावरण के दुश्मनों से लड़ने के लिए हमें अभी और बहुगुणा चाहिए.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

जिस तरह अंग्रेजों से आजादी दिलाने में महात्मा गांधी की भूमिका महत्वपूर्ण रही है, उसी तरह पर्यावरण के दुश्मनों के खिलाफ जन आंदोलनों का बुनियादी ढांचा खड़ा करने में सुंदरलाल बहुगुणा का योगदान असाधारण है। 70 से 80 के दशकों में बहुगुणा ही अकेले ऐसे योद्धा थे जिन्होंने हमारे शहरों की हवा से लेकर जहरीले होते जंगलों के दर्द को आवाज दी। वे उस निर्मम व्यवस्था के सामने खड़े हो गए जो मानती थी कि हवा, पानी, जमीन, जंगल, पहाड़ सब उसके बंधक हैं।

बहुगुणा कहते थे- ऐसे दुष्टों के खिलाफ युद्ध लड़ना ही नहीं, जीतना भी है। पर्यावरण के दुश्मन कुल्हाड़ी लेकर पहाड़ों की तरफ आ रहे हैं, इसलिए क्रोध का नगाड़ा बजाइए। पहाड़ों के साथ पीढ़ियां भी बचाइए। यही उनके पूरे जीवन का लक्ष्य और संदेश रहा।

बहुगुणा के आजादी से पहले के आंदोलन, टिहरी रियासत का तख्तापलट, पर्यावरण मित्र और पद्मविभूषण होने की यात्रा सबको पता है। मैं यहां उनकी सोच और पर्यावरण के प्रति दूरदृष्टि की बात करूंगा। जो दुर्भाग्यवश किसी सरकार या प्रशासन के एजेंडे में कभी नहीं रही। जैसे दिल्ली में टिहरी बांध के खिलाफ 84 दिन का उनका ऐतिहासिक अनशन सिर्फ व्यवस्था को डराने का आंदोलन नहीं था। इसने पहली बार पर्यावरण के पक्ष में युद्ध का डंका बजाया और धरती, जंगल, पहाड़ की बात संसद तक आई।

दुनिया ने पहली बार देखा- एक दुबला पतला पहाड़ी, निहत्थे व्यवस्था से टकराकर प्रतिकार का प्रतीक बन गया। गांधी जी के बाद पहली बार इतना लंबा अनशन करने वाले बहुगुणा पर्यावरण के गांधी बन गए। गांधी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ थे तो बहुगुणा पर्यावरण विरोधियों के खिलाफ। इसी अनशन ने दुनिया काे संदेश दिया कि हिमालय का विकास कैसे होगा यह सरकारें नहीं हमारे पहाड़, नदियां खुद तय करेंगी।

हिमालय सुंदर लाल बहुगुणा की कर्मभूमि रही। वे चिपको आंदोलन के नायक तो थे ही, हिमालय में बड़े बांधों पर उनका विरोध सिर्फ दस्तावेजी सबूतों पर आधारित नहीं था। कम लोग जानते हैं कि हिमालय के प्रति उनकी देवतुल्य आस्था थी। बड़े बांधों को वे हिमालय पर हमला मानते थे। बिजली बनाने पहाड़ों पर दौड़ते बुलडोजरों के खिलाफ उनकी लड़ाई दिनदहाड़े हिमालय को लूटने के खिलाफ थी।

पहाड़ों को लेकर बहुगुणा ने बहुत-सी भविष्यवाणियां कीं। मैं भी इनमें से कई का साक्षी रहा। एक पत्रकार के रूप में जब भी मैं उनसे मिलता, उनका सीधा संदेश होता- प्रकृति को अपनी लय से बहने दीजिए, सुरंगों में मत डालिए। प्रकृति ने करवट ली तो आप कहीं के नहीं रहेंगे। आज हर साल होने वाले हादसे प्रकृति की वही प्रतिक्रियाएं हैं जिनका हवाला बहुगुणा ने वर्षों पहले दे दिया था।

पर्यावरण का चिंतन क्यों जरूरी है यह सवाल नया नहीं है। पुराने-नए पर्यावरणविदों की इस मुद्दे पर दार्शनिक सोच और दृष्टिकोण राजनीतिक खांचे पर टिका है। लेकिन बहुगुणा ने पर्यावरण को दृष्टिभ्रम से बाहर निकाला। वे कहते थे- पर्यावरण में पक्षपात की गुंजाइश नहीं है। राजनीतिक और सामाजिक समानता ही इसे बचाएगी।

विषैली हवा के खिलाफ बदलाव की लड़ाई तभी जीतेंगे जब समाज का समर्थन मिले, सरकारों का व्यवहार पर्यावरण के प्रति विनम्र हो। बहुगुणा की नजर में पर्यावरण राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा है। पेड़ हमारी पूंजी हैं और तरक्की के नाम इनकी लूटपाट करने वालों के खिलाफ हर देशभक्त को खड़ा होना चाहिए।

पर्यावरण संरक्षण सिर्फ एक भावनात्मक बेचैनी नहीं है। पर्यावरण जीवन का समाज शास्त्र है। इस मुद्दे पर चुप्पी अस्वीकार्य है। असभ्य, डरपोक व निर्मम तंत्र पर्यावरण को नहीं बचा सकता। जन आंदोलनों के प्रतिनिधि जीते-मरते मौसमों की पीड़ा समझते हैं। जैसे भूख और भ्रष्टाचार हमें चैन से सोने नहीं देते वैसे ही पेड़, पहाड़, नदी-तालाबों की मौत पर भी कुछ बूंदें आंखों से निकलनी ही चाहिए।

सुंदरलाल बहुगुणा होने के मायने भी यही हैं। उनकी मौत सिर्फ एक कालखंड का गुजरना नहीं है। पर्यावरण के दुश्मनों से लड़ने के लिए हमें अभी और ‘बहुगुणा’ चाहिए हैं।

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