आज विश्व गौरैया दिवस है, बचपन की कौन सी यादें जुड़ीं हैं इस नन्ही चिडिय़ा के बारे में, बताएं
श्रीनारद मीडिया, सेंट्रल डेस्क :
ओ री चिरैया नन्ही सी चिडिय़ा अंगना में फिर आजा रे…अंधियारा है घना और लहू से सना किरणों के तिनके अम्बर से चुन्न के अंगना में फिर आजा रे। हमने तुझपे हज़ारों सितम हैं किये हमने तुझपे जहां भर के ज़ुल्म किये, हमने सोचा नहीं तू जो उड़ जायेगी ये ज़मीन तेरे बिन सूनी रह जायेगी। किसके दम पे सजेगा अंगना मेरा ओ री चिरैया, मेरी चिरैया अंगना में फिर आजा रे। स्वानंद किरकिरे का लिखा यह गीत गौरैया दिवस पर सबसे ज्यादा याद आता है। आप भी याद कीजिए, अंतिम बार आपने गौरैया को कब देखा था। कहां देखा था। वो गौरैया जिसके बिना हमारे बचपन की यादें अधूरी हैं, आज कहीं खो गईं हैं।
एक समय था जब हम अपने घर-आंगन में गौरैया को फूदकते देखते और उसकी चहचहाहट सुनकर प्रफुल्लित हो जाते थे। वो झूंड में घर के आंगन में आकर दाना चूंगती। पर अब न ऐसे मकान रह गए न फूंस और खपड़ों के मकान। पक्षी विज्ञानी डा सत्यपक्राश बताते हैं कि सिटीजन स्पैरो के द्वारा वर्ष 2012 में पूरे देश में गौरैया के संरक्षण के लिए सर्वे रिसर्च किए गए। इस वर्ष तक झारखंड में पूरे देश के मुकाबले सबसे ज्यादा गौरैया की संख्या शहरी और ग्रामीण इलाकों में थी। मगर वर्ष 2020 आते-आते असामान्य रूप से झारखंड के शहरी इलाकों में इनकी संख्या में कमी आयी। वर्ष 2022 में पहले के शोध के दस वर्ष बाद फिर से सर्वे और शोध होना संभावित है। हालांकि हम गौरैया की संख्या घटने के साथ उसकी सहेली मैना और कौआ की संख्या को भी कम होते देख सकते हैं।
फसलों पर भी पड़ा असर : गौरैया फूड चेन की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। हाल के दिनों में इसके गायब होने से फसलों के उत्पादन पर भी असर पड़ा है। डा सत्यप्रकाश बताते हैं कि इस ङ्क्षचताजनक स्थिति को देखते हुए साल 2010 में 20 मार्च को पहली बार गौरैया दिवस मनाया गया।
क्यों कम हो रही है गौरैया
पहला कारण तो शहरीकरण, रेडिएशन है ही
डा सत्यप्रकाश बताते हैं कि पूरे झारखंड में किए अपने रिसर्च सर्वे में उन्होंने पाया कि गौरैया एकदम से गायब नहीं हो रही। बल्कि कुछ-कुछ स्थानों को छोड़कर दूसरे स्थानों पर बस रही हंै। इसका सबसे बड़ा कारण शहरीकरण है। हालांकि शहरों में रेडिएशन का गौरैया पर प्रभाव के बारे में कोई पुख्ता रिपोर्ट नहीं है इसलिए झारखंड के पक्षी वैज्ञानिक इसपर कुछ बोल नहीं रहे।
खेतों में कीटनाशक का हो रहा इस्तेमाल
एक और सर्वे में यह बात सामने आयी कि खेतों में केमिकल कीटनाशक का इस्तेमाल और रासायनिक खाद के अंधाधुंध इस्तेमाल से भी इनकी संख्या प्रभावित हुई है। गौरैया अपने बच्चों को कीड़े खिलाती है। मगर कीटनाशक के कारण या तो कीट मर जाते हैं या जहरीले कीट के खाने से गौरैया के बच्चे।
गौरैया का हो रहा शिकार
साथ ही बगेरी के शिकार के नाम पर भी गौरैया का बड़े स्तर पर शिकार किया गया है। इसका कारण दोनों के लगभग एक तरह का दिखना है।
जिम्मेदार हम हैैं इसका प्रमाण है…
लाकडाउन में गौरैया की हुई घर वापसी
पक्षी विज्ञानी डा सत्यप्रकाश बताते हैं कि कोरोना संक्रमण की रोकथाम के लिए लगाए गए लाकडाउन का पक्षियों पर बड़ा असर पड़ा। पर्यावरण साफ होने और प्रदूषण का स्तर कम होने से पूर्ण लाकडाउन के समय शहरी हिस्सों में अचानक से गौरैया की संख्या में 20 प्रतिशत तक की वृद्धि देखने को मिली। हालांकि अगस्त के बाद स्थिति पहले की तरह हो गई। इससे साफ पता चलता है कि प्रदूषण कम होगा, मानवीय गतिविधि कम होगी तो गौरैया फिर से हमारे आंगन में फूदकने लगेगी।
उम्मीदें अभी बाकी
गौरैया के संरक्षण के लिए किया जा रहा है काम
डा सत्यप्रकाश बताते हैं कि गौरैया के संरक्षण के लिए वो और उनकी टीम के सदस्य बड़े स्तर पर काम कर रहे हैं। इसमें पहले स्तर पर गौरैया के आवास का संरक्षण किया जा रहा है। वहीं दूसरे स्तर पर जिला प्रशासन की मदद से बगेरी के शिकार पर रोक की पहल की जा रही है। अगर बगेरी का शिकार रुकेगा तो गौरैया का अप्रत्यक्ष रूप से हो रहा शिकार भी रुकेगा। वहीं गांव में किसानों को रासायनिक कीटनाशक के स्थान पर जैविक कीटनाशक और वर्मी कंपोस्ट के इस्तेमाल के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। साथ ही, शहरों और गांवों में सम्मेलन और गोष्ठी करके लोगों को जागृत भी किया जा रहा है।
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