मेडिकल शिक्षा में आत्मनिर्भरता हेतु आज यह एक अवसर भी है और चुनौती भी.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

पिछले दिनों जब यूक्रेन में फंसे भारतीयों का मामला सामने आया, तो एक बात, जिसकी जानकारी सरकार और कुछ अन्य लोगों को थी, लेकिन आम समाज इससे अनभिज्ञ था कि यूक्रेन में 20 हजार भारतीय विद्यार्थी रह रहे थे. यूक्रेन अकेला देश नहीं है, जहां भारतीय विद्यार्थी मेडिकल शिक्षा के लिए जाते रहे हैं.

इसके अलावा चीन, रूस, किर्गीस्तान, फिलीपींस और कजाखिस्तान में भी बड़ी संख्या में विद्यार्थी जाते हैं. गौरतलब है कि वहां से एमबीबीएस डिग्री हासिल करने के बाद विद्यार्थियों को भारत में एक परीक्षा देनी होती है.

विडंबना यह है कि इसमें उतीर्ण होनेवालों का प्रतिशत अभी तक 10.4 प्रतिशत से 18.9 प्रतिशत तक ही रहा है. पिछले पांच वर्षों की बात करें, तो यह औसतन 15.82 प्रतिशत रहा, जबकि इस अवधि में इस परीक्षा में भाग लेनेवालों की संख्या में तिगुनी वृद्धि हुई है.

वर्ष 2021 में आयोजित नीट परीक्षा में 16 लाख विद्यार्थी शामिल हुए, जबकि देश में कुल एमबीबीएस सीटों की संख्या मात्र 83 हजार थी. इसमें कोई संदेह नहीं कि देश में डॉक्टरों की बड़ी जरूरत है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मापदंडों को देखें, तो हर 1000 व्यक्ति के पीछे एक डॉक्टर होना चाहिए. इस हिसाब से हमें कुल 13,08,000 डॉक्टरों की जरूरत है, जबकि देश में अभी सिर्फ 12 लाख पंजीकृत चिकित्साकर्मी हैं.

ऐसा नहीं कि देश में मेडिकल सीटों में वृद्धि नहीं हुई है. वर्ष 2014 में जहां मात्र 54358 सीटें थीं, अब यह संख्या 88120 तक पहुंच गयी है. इनमें से लगभग आधी सीटें सरकारी कॉलेजों में हैं और शेष निजी कॉलेजों में. निजी कॉलेजों में एमबीबीएस शिक्षा हेतु हालांकि 50 लाख से डेढ़ करोड़ रुपये तक की फीस वसूली जाती है, पर उनमें भी प्रवेश के लिए विद्यार्थियों को अत्यंत कठिन परीक्षा से गुजरना पड़ता है.

हाल तक अधिकतर प्राइवेट कॉलेजों में प्रवेश की प्रक्रिया अत्यंत अपारदर्शी और भ्रष्टाचार युक्त थी. माना जाता है कि नीट परीक्षा होने के बाद मेडिकल प्रवेश में भ्रष्टाचार कम हुआ है. इसके बावजूद सच यह है कि जितने विद्यार्थी मेडिकल शिक्षा प्राप्त करना चाहते हैं, उनमें से पांच प्रतिशत को ही प्रवेश मिल पाता है.

निजी कॉलेजों में पढ़ाई अत्यंत खर्चीली है, पर सरकारी संस्थाओं में यह खर्च 20 हजार से 7.5 लाख रुपये है. सीटों की कमी और निजी क्षेत्र में महंगी पढ़ाई के चलते बहुत बड़ी संख्या में विद्यार्थी विदेश चले जाते हैं.

यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद वहां रह रहे भारतीय विद्यार्थियों के बारे में देश का ध्यान आकर्षित हुआ. कुल भारतीय एमबीबीएस विद्यार्थियों की दृष्टि से यूक्रेन का स्थान दूसरा है. सबसे अधिक मेडिकल विद्यार्थी चीन (23 हजार) में हैं. इनकी संख्या रूस में 16.5 हजार, फिलीपिंस में 15 हजार, किर्गीस्तान में 10 दस हजार, जाॅर्जिया में 7.5 हजार, कजाखिस्तान और पौलेंड में क्रमशः 5.2 हजार और चार हजार है.

बांग्लादेश में भी पांच हजार से अधिक भारतीय मेडिकल विद्यार्थी हैं. यूक्रेन में सबसे ज्यादा विदेशी विद्यार्थी भारत से ही हैं, जिनमें से लगभग 50 प्रतिशत मेडिकल या संबंधित शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं. एक लाख से भी ज्यादा भारतीय विद्यार्थी अलग-अलग मुल्कों में मेडिकल शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं़

ऐसे एक विद्यार्थी का एमबीबीएस कोर्स का कुल खर्च 25 से 30 लाख रुपये आता है. देखा जाए, तो एमबीबीएस डिग्री के लिए लगभग 25 हजार करोड़ खर्च हो रहे हैं. डाॅलर में यह राशि लगभग 3.5 अरब डाॅलर है.

यदि भारत से जानेवाले अन्य विद्यार्थियों को भी शामिल करें, तो विदेश में पढ़नेवालों की संख्या 11,33,749 हो जाती है. अलग-अलग शिक्षा पर अलग-अलग खर्च होता है, पर समझा जा सकता है कि यदि भारत से मेडिकल समेत अन्य विद्यार्थियों का पलायन कम किया जा सके, तो देश की बहुमूल्य विदेशी मुद्रा में खासी बचत हो सकती है.

विदेशों में मेडिकल शिक्षा का स्तर इसी से समझ में आ जाता है कि मात्र 16 प्रतिशत से भी कम विद्यार्थी देश में फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट एग्जाम में उत्तीर्ण हो पाते हैं. ऐसी डिग्री के लिए भी देश की 3.5 अरब डॉलर की बहुमूल्य विदेशी मुद्रा की बर्बादी भी चिंता बढ़ा रही है. यूक्रेन युद्ध से कहीं पहले पिछले वर्ष ही नेशनल मेडिकल कमीशन ने यह घोषणा की थी कि प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों की आधी सीटें विद्यार्थियों को सरकारी कॉलेजों की फीस पर उपलब्ध करायी जायेंगी.

इस बाबत प्रधानमंत्री मोदी का हालिया ट्वीट भी महत्वपूर्ण है, जिसमें उन्होंने दोहराया है कि निजी कॉलेजों की आधी सीटें सरकारी कॉलेजों की फीस पर ही उपलब्ध होंगी. सरकार के इस सराहनीय कदम से उन योग्य छात्रों को, जो धनाभाव के कारण एमबीबीएस की पढ़ाई नहीं कर पाते हैं, अवश्य राहत मिलेगी़, परंतु भारत से योग्य विद्यार्थियों के मेडिकल की शिक्षा के लिए हो रहे पलायन और विदेशी मुद्रा की भारी बर्बादी रोकने के लिए नये मेडिकल कॉलेज खोलना और वर्तमान कॉलेजों की सीटों में वृद्धि ही एकमात्र उपाय है.

नहीं भूलना चाहिए कि भारत से बड़ी संख्या में मेडिकल की पढ़ाई पूर्ण कर चिकित्सक अमेरिका, यूरोप और अन्य देशों में चले जाते हैं. इससे भी देश में डॉक्टरों की कमी बनी रहती है. भारत में आज भी 596 मेडिकल कॉलेज हैं, जहां एमबीबीएस की 88,120 सीटें हैं.

मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) के भंग होने के बाद गठित नेशनल मेडिकल कमीशन के तहत देश में अतिरिक्त मेडिकल सीटें उपलब्ध कराने की गति में पहले से ही खासी वृद्धि हुई है. पिछले सात वर्षों में मेडिकल सीटों में हर वर्ष आठ प्रतिशत से अधिक की दर से बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है. इस गति को और ज्यादा तेज करने की जरूरत है.

आने वाले समय में और अधिक मेडिकल कॉलेज खोलना कोई असंभव कार्य नहीं है. माना जाता है कि एक मेडिकल कॉलेज स्थापित करने में 250 से 500 करोड़ रुपये खर्च होते हैं. वर्ष 2014 के बाद देश में 209 नये मेडिकल कॉलेज खोले गये, जिनमें अधिकतर प्राइवेट कॉलेज थे.

यूक्रेन युद्ध के बाद इस समस्या को समझते हुए जाने-माने उद्योगपति आनंद महिंद्रा द्वारा एक मेडिकल कॉलेज खोलने की घोषणा से एक नयी तरह की शुरुआत हुई है. देश में ऐसे असंख्य उद्यमी हैं, जो मेडिकल कॉलेज खोलने में सक्षम हैं. नीति निर्माताओं में भी इस संबंध में सोच विकसित हो ही रही है. मेडिकल शिक्षा में आत्मनिर्भरता हेतु आज निजी और सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों, बिजनेस घरानों और अन्य उद्यमियों के लिए यह एक अवसर भी है और चुनौती भी.

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