स्वविवेक से समीक्षा एवं संवेदना की ओर……
आलेख– पुष्पेंद्र पाठक
श्रीनारद मीडिया :
समीक्षा एवं विश्लेषण क्षमता का विकास शिक्षा का एक अहम पहलू है। हमारे छात्र-छात्राओं को देश, काल, परिस्थिति की वास्तविक समझ होनी हीं चाहिए जिससे उन्हें जीवन में समस्या बोध हो सके …..और साथ में उन समस्याओं की तह का पता लग सके।
विविधता भारतीय सभ्यता की खूबसूरती है।
इसी विविधता का सहारा लेकर कुछ अराष्ट्रीय, अभारतीय विचार, दर्शन भारत के शांत, शीतल सरोवर में गंदे नाले बनकर प्रवेश कर गए। ….भारत ने बौध, जैन, सिक्ख जैसे विभिन्न मतों की तरह हीं समझा उन्हें ।
…..लेकिन वे ….शांत सरोवर में घुल मिल कर रचने, बसने नहीं आए थे…..उनका बस एक हीं दर्शन था- सबको अपनी तरह बनाना- छल, कपट, लालच ,जोर-जबरदस्ती से और अगर न बना सके तो ………..मार देना।
….और मारना भी ऐसे ……..इतनी बेरहमी एवं क्रूरता से……..कि एक की मौत सुनकर हीं एक हजार लोग मर जाएं- सदमें से।
हत्या का यह मनोविज्ञान भारत जैसे शास्त्रार्थ वाले देश के लिए बिल्कुल हीं अजीब एवं भायावह था।
…..यहां तो जिस बुद्ध ने सनातन धर्म पर सबसे ज़्यादा वैचारिक हमले किए …..उनको …..विष्णु का पद दिया गया। पूजा मंत्रों में बुद्ध चरितानाम् कह कर देव स्वरूप बनाया।
….लेकिन 712 में भारत के सिंध के रास्ते आयी भारतीय बहुलता को बर्बर हत्या, नरसंहार एवं बलात्कार से पूरी तरह बदलने वाली अराष्ट्रीय संस्कृति भारतीय चिंतन परम्परा, लोकतंत्र एवं सेक्यूलर सोच के लिए आज भी अभिशाप है।
…..वैसे,
समस्या समाधान की पहली सीढ़ी है ……समस्या-बोध। ….फिर इस समाधान की राह में बाधक बने तत्व……यानि …..
…….शत्रु-बोध।
1986 तक कश्मीरियों को पता हीं नहीं चला कि उनके पड़ोसी, उनके सहकर्मी, उनके घर काम करने वाले कितने खौफ़नाक ….विचार लेकर उनके साथ बड़े ‘सद्भाव’ से रह रहे हैं।
जो कश्मीर सनातन धर्म, दर्शन, योग, आयुर्वेद का केन्द्र था..भारतीय विचार की विमर्ष-भूमि थी..वहाँ भारत के विभाजन के बाद 1954 में क्या हुआ या 370,35A का क्या मतलब है,……पर कोई चर्चा क्यों नहीं हुई? छात्रों को आसन्न खतरों से आगाह क्यों नहीं कराया गया?
अपने आस पास तैर रहे अराष्ट्रीय विचारों का संगठित सामना क्यों नहीं किया गया?
इसी शत्रु बोध एवं समस्या बोध की कमी के कारण किसी कश्मीरी को कील ठोक कर मारा गया तो किसी महिला का सामूहिक बलात्कार कर आरी से दो टुकड़ों में कर दिया गया। किसी को चावल के ड्रम में छिपे होने पर गोलियों से भून कर उसके खून से सने चावल को उसकी पत्नी को खिलाया गया।
ऐसी विभत्स घटनाओं की एक लम्बी श्रृंखला है जिसे एक झटके में नहीं ….काफी सोच-विचार कर अंजाम दिया गया …..और वो भी बड़े हीं आत्मविश्वास एवं मनोयोग से- ……जैसे मानव सभ्यता के विकास के लिए कोई बड़े धैर्य के साथ कोई बहुत बड़े प्रोजेक्ट पर काम कर रहा हो।
यह उनके लिए विकास हीं था।
…….बर्बर तरीके से हत्या करके ……पुरानी सभ्यता को नष्ट कर उस पर अपनी सभ्यता की नींव डालने की यह प्रक्रिया वामपंथी मीडिया का सांस्कृतिक शह पाकर लगभग अजेय हो गई।
सरकार तो 1954 से हीं उसी बर्बर सभ्यता के साथ खड़ी थी।
1989-90 में शेष भारत अपनी जातीय पहचान को उजागर करते हुए ….बाबा साहब के संविधान के तहत अपनी-अपनी जातीय हिस्सेदारी के लिए आपस में लड़ रहा था।
लेकिन …..उधर कश्मीरियों का नरसंहार चल रहा था – क्रूरता के नए-नए अविष्कार के साथ क्योंकि हत्या करने वालों को कश्मीर चाहिए था – मूल कश्मीरियों के बिना ….लेकिन उनकी महिलाओं के साथ।
भारतीय विद्वानों को भगवतगीता के भाष्य से पहले उन पुस्तकों को, उन पाठ्यक्रमों को पढ़ना ज़रूरी है जहाँ ऐसी क्रूरता सिखाई जाती है।
शायद तभी साहित्य मैं…..समाज में संवेदना का विकास हो सके।
#KashmirFiles एक छोटा लेकिन काफी स्तुत्य प्रयास है।
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