पानी के लिए लड़ रहे दो राज्य,140 सालों में भी खत्म नहीं हुआ मामला.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

कावेरी भारत की एक नदी है, जिसे दक्षिण भारत की गंगा भी कहा जाता है। ये कर्नाटक के कोडागू जिले से निकलती है और तमिलनाडु से होती हुई बंगाल की खाड़ी में गिरती है। कावेरी घाटी में एक हिस्सा केरल का भी है और समंदर में मिलने से पहले ये नदी पॉन्डिचेरी के कराइकाल से होकर गुज़रती है। कावेरी नदी लगभग 800 किमी लंबी है, जो कुशालनगर, मैसूर, श्रीरंगापटना, त्रिरुचिरापल्ली, तंजावुर और मइलादुथुरई जैसे शहरों से गुज़रती हुई तमिलनाडु से बंगाल की खाड़ी में गिरती है।

कावेरी विवाद की जड़ 19वीं शताब्दी तक जाती है लेकिन इस मुद्दे का हल आज तक नहीं निकला है। ये विवाद वैसे तो चार राज्यों के बीच का है लेकिन नदी जल बंटवारे पर सबसे ज्यादा  दो राज्यों में विवाद है। कर्नाटक और तमिलनाडु में इस नदी के जल पर निर्भर लाखों परिवारों के लिए काफी भावनात्मक मसला है। ऐसे में आइए कावेरी नदी के इतिहास, इससे जुड़े विवाद का इतिहास और कानूनी लड़ाई से जुड़े पहलुओं का विश्लेषण करते हैं।

क्या है नदी का इतिहास

कावेरी एक अंतरराज्यीय नदी बेसिन है। इसकी शुरुआत कर्नाटक से होती है और ये नदी बंगाल की खाड़ी में जाकर खत्म हो जाती है। इस दौरान ये तमिलनाडु और पुदुचेरी से होकर गुजरती है। कावेरी बेसिन का जल संभ्रण इलाका कुल 81, 155 वर्ग किलोमीटर है। इसमें से 34, 273 वर्ग किलोमीटर कर्नाटक में है। 2, 866 वर्ग किलोमीटर केरल में और बाकी 44, 016 वर्ग किलोमीटर तमिलनाडु और पुदुचेरी में है।

लेकिन पानी को लेकर मुख्य विवाद तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच है। दोनों ही राज्य सिंचाई के पानी की ज़रूरत की वजह से कावेरी के मुद्दे पर दशकों से लड़ रहे हैं। दोनों ही राज्य अपने किसानों की बदहाली का हवाला देते हैं। ये विवाद भी आज का नहीं है और न ही इसे हल करने की कोशिशे नई हैं।

विवाद का इतिहास 

कावेरी पर पहला कानूनी विवाद 19वीं शताब्दी के दौरान सामने आया। जब भारत में रियासतें थीं और अंग्रेजों का राज था। एक तरफ मैसूर राजघराना था और दूसरी तरफ मद्रास प्रेसिडेंसी थी। 1881 में जब तत्कालीन मैसूर राज्य ने कावेरी पर एक बांध बनाने का निर्णय लिया तो तत्कालीन मद्रास राज्य ने इस पर आपत्ति की। ब्रिटिश शासन काल में पहली बार 1892 में मद्रास प्रेसिडेंसी और मैसूर रियायत के बीच समझौता हुआ।

1924 में एक बार फिर कावेरी जल को लेकर विवाद हो गया और मामला कोर्ट में गया। लेकिन इस बार इसके जल के दावेदारों में दो नाम और जुड़ चुके थे- केरल और पुदुचेरी। उस वक्त सभी पक्षों के बीच समझौता कराया गया और ये 50 सालों के लिए था। लेकिन 1947 में भारत आजाद हो गया और सभी रियासतें अब भारतीय गणराज्य का हिस्सा हो गई। मैसूर और मद्रास प्रेसिडेंसी बन गई कर्नाटक और तमिलनाडु राज्य।

समिति का गठन, सभी पक्षों में समझौता 

इसके पानी के बंटवारे को लेकर चारों राज्यों में लंबे समय से विवाद चला आ रहा है। केंद्र सरकार ने 1972 में एक समिति गठित की। समिति की रिपोर्ट और विशेषज्ञों की सिफारिशों के बाद अगस्त 1976 में कावेरी जल विवाद से जुड़े सभी पक्षों के बीच एक समझौता हुआ।  इसकी घोषणा संसद में भी की गई,  लेकिन समझौते का पालन नहीं हो पाया और विवाद चलता रहा।

जुलाई 1986 में तमिलनाडु ने अंतरराज्य जल विवाद अधिनियम 1956 के तहत केंद्र सरकार से एक न्यायाधिकरण बनाने की अपील की। हालांकि केंद्र सरकार बातचीत के जरिए ही विवाद का हल निकालने के हक में रही। इस बीच तमिलनाडु के किसानों की याचिका पर सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को न्यायाधिकरण गठित करने का निर्देश दिया।

कर्नाटक सरकार कानूनी लड़ाई हार गई और फिर हिंसा में 18 लोगों की मौत

2 जून 1990 को कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण का गठन किया। 1991 में न्यायाधिकरण ने एक अंतरिम आदेश दिया। इसमें कर्नाटक से कावेरी के पानी का एक तय हिस्सा तमिलनाडु को देने को कहा गया। हर महीने कितना पानी छोड़ा जाएगा, ये भी तय हुआ, लेकिन कोई अंतिम फैसला नहीं हो सका। इसके अगले ही दिन कन्नड़ कट्टरपंथि‍यों ने बेंगलुरु में प्रदर्शन शुरू किया, जो बाद में हिंसक हो गया और फिर दंगे का रूप अख्ति‍यार कर लिया। बताया जाता है कि सड़क पर हर उस शख्स की पिटाई की गई जो कन्नड़ नहीं बोल पाता था।

न्यायाधिकरण ने जल के बंटवारे पर आदेश दिया

कोर्ट की दखल के बाद न्यायाधिकरण ने 2007 में कावेरी नदी जल के बंटवारे पर आदेश दिया। इसके आदेश को 2013 में सरकार ने अधिसूचित किया। इसमें कावेरी के 740 टीएमसी पानी में से तमिलनाडु को 419, कर्नाटक को 270, केरल को 30 और पुदुचेरी को 7 टीएमसी देने की बात कही गई। कावेरी प्रबंधन बोर्ड और कावेरी जल नियमन समिति बनाना भी इसमें शामिल था।

लेकिन दोनों राज्यों के अड़ियल रुख के चलते अब तक कावेरी जल समझौता लागू नहीं हो पाया है। साल 2012 में आखिरकार इस बार सुप्रीम कोर्ट को बीच में आना पड़ा। फिर कोर्ट की ओर से कर्नाटक को तमिलनाडु को और पानी देने के आदेश दिए गए। कर्नाटक सरकार ने माफी मांगी और पानी देने की पेशकश की, लेकिन इससे राज्य में हिंसा फैल गई।

कर्नाटक ने नहीं दिया पानी तो  तमिलनाडु ने लगा याचिका

साल 2016 में कर्नाटक विधानसभा ने सर्वसम्मति से संकल्प पारित कर तमिलनाडु को पानी देने से इनकार कर दिया। संकल्प के प्रस्ताव में कर्नाटक के लोगों की जरूरतों का हवाला दिया गया। प्रस्ताव में 2016-17 के दौरान पानी की भारी कमी और कावेरी के पानी का इस्तेमाल सिर्फ कावेरी बेसिन और बेंगलुरु के लोगों के पीने के लिए ही करने की बात कही गई। कर्नाटक विधान सभा ने माना कि कावेरी बेसिन के सभी चार जलाशयों का पानी सबसे निचले स्तर पर है और ये 27.6 टीएमसी तक गिर चुका है।

हालांकि तमिलनाडु ने कर्नाटक के इस कदम को सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करार दिया। 22 अगस्त 2016 को तमिलनाडु ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी। याचिका के जरिए कर्नाटक सरकार से तत्काल 25 टीएमसी पानी की मांग की गई। तमिलनाडु सरकार ने याचिका में कावेरी के बहाव क्षेत्र में सूखे और 15 लाख हेक्टेयर  सांबा की फसल बर्बाद होने की हवाला दिया। तमिलनाडु के मुतबिक पानी नहीं मिलने से खेती किसानी से जुड़े 40 लाख लोगों के रोजगार पर असर पड़ेगा।

सितंबर 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक को आदेश दिया कि वह अगले 10 दिनों के लिए हर दिन तमिलनाडु को कावेरी नदी का 15,000 क्यूसेक पानी दे।सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद पूरे कर्नाटक में बड़े पैमाने पर हिंसक प्रदर्शन शुरू हो गए।बेंगलुरु की 20 बसों में आग लगा दी गई थी और पुलिस की फायरिंग में एक आदमी मार दिया गया था।

दोनों राज्यों के अपने-अपने तर्क

कावेरी जल को लेकर कर्नाटक ब्रिटिश राज की दुहाई देते हुए कहता है कि उस वक्त तमिलवाडु ब्रिटिश शासन के अधीन था। ऐसे में 1924 में हुए समझौते के वक्त उसके साथ न्याय नहीं हुआ था। कर्नाटक का कहना है कि 1956 में नए राज्य बनने के बाद पुराने समझौतों को रद्द माना जाना चाहिए। इसके साथ ही कर्नाटक की खेती के विकास तमिलनाडु की अपेक्षा देर से होने और नदी पहले उसके पास आने की दुहाई देते हुए कहता है कि सारे पानी पर उसका अधिकार है। वहीं इस विवाद को लेकर तमिलनाडु 1924 के समझौते को सही ठहराता है। उसका कहना है कि उस वक्त हुए समझौते के तहत तय पानी उन्हें मिलना चाहिए। तमिलनाडु का कहना है कि उसे हर बार पानी के लिए कोर्ट में गुहार लगानी पड़ती है।

सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु को मिलने वाला पानी घटाया

16 फरवरी 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि नदी के पानी पर किसी भी राज्य का मालिकाना हक नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कावेरी जल विवाद ट्राइब्यूनल (CWDT) के फैसले के मुताबिक तमिलनाडु को जो पानी मिलना था, उसमें कटौती की गई। सीजेआई दीपक मिश्रा की अगुआई वाली तीन जजों की बेंच ने अपने आदेश में कहा कि तमिलनाडु को 404.25 टीएमसी फीट पानी दिया जाए। CWDT ने तमिलनाडु को 419 टीएमसी फीट पानी देने का फैसला दिया था।

इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने कावेरी बेसिन के कुल 20 टीएमसी फीट ‘भूमिगत जल’ में से 10 टीएमसी फीट अतिरिक्त पानी निकालने की इजाजत दे दी। प्रीम कोर्ट ने कर्नाटक को 284.75, केरल को 30 और पुदुचेरी को 7 टीएमसी फीट पानी देने का आदेश दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कावेरी के पानी के मामले में उसका फैसला अगले 15 सालों के लिए लागू रहेगा।

आदेशों की लगातार अवहेलना

राज्य को पिछले दो दशकों में तीन वर्षों में 10टीएमसी फीट से नीचे प्राप्त हुआ। 2018 में सुप्रीम कोर्ट के संशोधित आदेश में 40.43टीएमसी फीट की आपूर्ति की आवश्यकता थी, लेकिन राज्य को 2019 में केवल 9.5 टीएमसी फीट और 2020 में 17.54 टीएमसी फीट ही मिला।

यानी तमिलनाडु को कावेरी से अपने हिस्से का पानी नहीं मिल रहा है। कर्नाटक लगातार निर्णय की अनदेखी कर रहा है। इससे तमिलनाडु अपने हक से वंचित रह रहा है। हालांकि पानी को लेकर केवल तमिलनाडु और कर्नाटर में ही विवाद नहीं है। बल्कि ऐसा ही विवाद उत्तर भारत में पंजाब और हरियाणा के बीच है। इस समस्या का कारण क्षेत्रीयतावाद है, जो कि क्षेत्र के नेताओं के हवा देने से सुलगता है और राजनीतिक दल इससे तात्कालिक लाभ उठाने के लिए तैयार रहते हैं। उनके लिए तो देशहित जैसी कोई भावना होती ही नहीं है।

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