सिलीगुड़ी गलियारे के महत्व के बारे में समझिए!
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
चीन की एक खायिसत है कि वो अपने इलाकों को और ज्यादा संगठित करने के लिए यानी कि अपने मिलिट्री इन्स्ट्रॉलेशन को और ज्यादा मजबूत करने के लिए हर कीमत अदा करने को तैयार रहता है। ऐसे में वहां की सरकार ये जानती है कि उन्हें युद्ध गति से पूरे इलाके में सड़क भी बनानी है, गांव भी बसाने हैं और अपने मिलिट्री को ऐसे फॉर्मेशन में रखना है जिससे कभी भी भारत पर दवाब बनाया जा सके। भारत भी इसे बखूबी जानता है। पिछले कुछ दशकों में चीन ने महाशक्ति बनने के लिए एशिया में पैर फैलाने शुरू किए थे। ‘String of Pearls’ यानी भारत के पड़ोसी देशों में अपनी रणनीतिक मौजूदगी बढ़ाकर घेरेबंदी की कोशिशे शुरू की।
बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका और पाकिस्तान में चीन ने बंदरगाह, सड़क और रेलमार्ग बनाने शुरू किए। जिसका सीधा सा मतलब एशिया में अपनी पकड़ मजबूत करके भारत पर चौतरफा दवाब बनाना था। चीन अपनी विस्तारवादी नीति के तहत हमेशा अफने पड़ोसी देशों की भूमि पर अवैध कब्जे की फिराक में रहता है। चीन ताइवान पर जबरन कब्जे की फिराक में रहता है, नेपाल से दोस्ती की आड़ में उसके एक इलाके पर जमाया कब्जा।
हांगकांग की आजादी का अतिक्रमण, दक्षिण चीन सागर में वियतनाम, ब्रुनेई, फिलीपींस, मलेशिया से टकराव। सेनकाकू द्वीप को लेकर जापान से लड़ रहा। मंगोलिया में कोयला भंडार पर चीन की नजर। ये सबूत है कि चीन कितना शातिर पड़ोसी और धोखेबाज देश है। भारत के एक खास इलाके पर भी चीन अपनी नजरें गड़ाए बैठा रहता है। ऐसे में आज के विश्लेषण में जानते हैं कि आखिर क्या है चिकेन नेक और सिलीगुड़ी कॉरिडोर क्यों रणनीतिक रूप से इतना महत्वपूर्ण माना जाता है।
सुरक्षा के लिहाज से कॉरिडोर का रोल अहम
क्या है कालादान प्रोजक्ट
भारत ने 90 के दशक में लुक ईस्ट पॉलिसी अपनाई। यानी पूर्वी एशिया के देशों के साथ संबंध मजबूत बनाने शुरू किए। जिसे 2014 में मोदी सरकार ने एक्ट ईस्ट पॉलिसी का नाम दिया और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के साथ संबंधों पर ज्यादा जोड़ देना शुरू किया। दक्षिण पूर्व एशिया के देशों तक पहुंच बनाने के लिए और इंफ्रांस्ट्रक्चर तैयार करने के लिए 208 में कालादान मल्टी मॉडल ट्रांजिट ट्रांसपोर्ट प्रोजेक्ट की रूप रेखा तैयार की गई। इसके तहत भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों के साथ-साथ दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों तक पहुंचने के लिए सबसे छोटा रास्ता बनाना था। इस प्रोजक्ट के चार चरण थे।
पहला- इसमें कोलकाता को 539 किलोमीटर दूर म्यांमार के सेटवे बंदरगाह को समुद्र के रास्ते जोड़ा जाना था।
दूसरा- सेटवे बंदरगाह से कालादान नदी के रास्ते 158 किलोमीटर दूर म्यांमार के पलेटवा तक पहुंचना था।
तीसरा- पलेटवा से 109 किलोमीटर दूर सड़क के रास्ते भारत के मिजोरम के जोरिनपुई तक पहुंचना था।
चौथा- जोरिनपुई से ये सड़क 100 किलोमीटर दूर मिजोरम के लांगचलाई तक पहुंचेगी। जहां से आईजोल होते हुए असम चली जाएगी।
चिकेन नेक का विकल्प कालादान प्रोजेक्ट
जब डोकालाम का विवाद चल रहा था तब इसी चुंबी वैली से चीन के हमले का खतरा बढ़ रहा था। इस बात का डर था कि चीन कहीं चुंबी वैली से हमला करके चिकेन नेक का रास्ता न काट दे। लेकिन अब पूर्वोत्तर तक पहुंचने का दूसरा रास्ता भारत द्वारा तैयार किया जा रहा है। भारत को इस प्रोजेक्ट के दो फायदे हैं-
1.) चीन की चुनौती का सामना करना
2.) अपने व्यापार को साउथ ईस्ट एशिया तक फैलाना
2021 के आखिर तक पूरा करने की डेडलाइन
प्रोजेक्ट में लगातार देरी भी हो रही है। इसकी डेडलाइन कई बार बढ़ी। फिर 2021 के आखिर तक पूरा करने की डेडलाइन तय की गई लेकिन अभी काफी काम बाकी है और अब माना जा रहा है कि यह 2031 तक पूरा हो पाएगा। यह भारत को साउथ ईस्ट एशिया से जोड़ने का छोटा रास्ता तो होगा ही जिससे व्यापार के नए मौके मिलेंगे इसके अलावा यह सामरिक रूप से भी काफी अहम है। इस पूरे प्रोजेक्ट में कुल 33 पुल हैं जिनमें 8 भारत में बन रहे हैं। सभी पुल इस तरह बन रहे हैं जिसमें सेना के टैंक, बख्तरबंद गाड़ियां जैसे भारी सैन्य साजो सामान भी आसानी से पहुंचाए जा सकते हैं।
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