अपनी बात कहने के लिए अत्यधिक विवेक का प्रयोग करें जज—राष्ट्रपति जी.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

राष्ट्रपति राम नाथ कोविन्द ने शनिवार को कहा कि जजों का यह दायित्व है कि वे अदालत कक्षों में अपनी बात कहने में अत्यधिक विवेक का प्रयोग करें। सुप्रीम कोर्ट द्वारा संविधान दिवस कार्यक्रम के दो दिवसीय समापन समारोह को संबोधित करते हुए कोविन्द ने कहा कि भारतीय परंपरा में, जजों की कल्पना स्थितप्रज्ञ (स्थिर ज्ञान का व्यक्ति) के समान शुद्ध और तटस्थ आदर्श के रूप में की जाती है। इस अवसर पर कानून मंत्री किरण रिजिजू और देश के चीफ जस्टिस एनवी रमना भी उपस्थित रहे।

राष्ट्रपति ने कहा कि हमारे पास ऐसे जजों की विरासत का एक समृद्ध इतिहास है, जो दूरदर्शिता से पूर्ण और निंदा से परे आचरण के लिए जाने जाते हैं। वे आने वाली पीढ़ियों के लिए विशिष्ट पहचान बन गए।

राष्ट्रपति ने कहा कि यह उल्लेख करने में खुशी हो रही है कि भारतीय न्यायपालिका इन उच्चतम मानकों का पालन कर रही है। इसमें कोई संदेह नहीं कि आपने अपने लिए एक उच्च स्तर निर्धारित किया है। इसलिए, जजों का भी यह दायित्व है कि वे अदालत कक्षों में अपने बयानों में अत्यधिक विवेक का प्रयोग करें। अविवेकी टिप्पणी, भले ही अच्छे इरादे से की गई हो, न्यायपालिका के महत्व को कम करने वाली संदिग्ध व्याख्याओं को जगह देती है।

राष्ट्रपति ने अपने तर्क के समर्थन में डेनिस बनाम अमेरिका मामले में अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट के जज फ्रैंकफर्टर को उद्धृत किया, जिन्होंने कहा था कि अदालतें प्रतिनिधि निकाय नहीं हैं और ये लोकतांत्रिक समाज का अच्छा प्रतिबिंब बनने के लिए डिजाइन नहीं की गई हैं। कोविन्द ने कहा कि अदालतों का आवश्यक गुण स्वतंत्रता पर आधारित तटस्थता है। इतिहास सिखाता है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता तब खतरे में पड़ जाती है जब अदालतें भावना संबंधी जुनून में उलझ जाती हैं, और प्रतिस्पर्धी राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक दबाव के बीच चयन करने में प्राथमिक जिम्मेदारी लेना शुरू कर देती हैं।

कानून के प्रभाव का आकलन नहीं करती विधायिका : जस्टिस रमना

इस मौके पर चीफ जस्टिस एनवी रमना ने कहा कि विधायिका, कानूनों के प्रभाव का आकलन या अध्ययन नहीं करती जिसके कारण कभी-कभी ‘बड़े मुद्दे’ खड़े जाते हैं और परिणामस्वरूप न्यायपालिका पर मामलों का अधिक बोझ पड़ता है।

चीफ जस्टिस ने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि विशेष बुनियादी ढांचे के निर्माण के बिना मौजूदा अदालतों को वाणिज्यिक अदालतों के रूप में पेश करने से लंबित मामलों पर कोई असर नहीं पड़ेगा। जस्टिस रमना ने कहा कि हमें याद रखना चाहिए कि जो भी आलोचना हो या हमारे सामने बाधा आए, न्याय प्रदान करने का हमारा मिशन नहीं रुक सकता। हमें न्यायपालिका को मजबूत करने और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए अपने कर्तव्य का पालन करना होगा।

उन्होंने कहा कि न्यायपालिका में मामलों के लंबित होने का मुद्दा बहुआयामी प्रकृति का है। उम्मीद है कि सरकार इस दो दिवसीय कार्यक्रम के दौरान प्राप्त सुझावों पर विचार करेगी तथा मौजूदा मुद्दों का समाधान करेगी।

उन्होंने केंद्रीय कानून मंत्री की घोषणा की सराहना की कि सरकार ने न्यायिक बुनियादी ढांचे के विकास के लिए 9,000 करोड़ रुपये का आवंटन किया है।

चीफ जस्टिस ने कहा कि देश में कई लोग ऐसा मानते हैं कि अदालतें कानून बनाती हैं और एक और गलतफहमी है कि बरी किए जाने और स्थगन के लिए अदालतें जिम्मेदार हैं। हकीकत यह है कि सरकारी वकील, अधिवक्ता और पक्षकारों, सभी को न्यायिक प्रक्रिया में सहयोग करना होता है।

ऐसी स्थिति नहीं हो सकती जब कानून लागू करना कठिन हो : रिजिजू

वहीं केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू ने कहा कि कोई भी ऐसी स्थिति में नहीं हो सकता जिसके लिए विधायिका द्वारा पारित कानूनों और न्यायपालिका द्वारा दिए गए फैसलों को लागू करना मुश्किल हो।

कार्यक्रम के समापन सत्र को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि कभी-कभी, अपने अधिकारों की तलाश में, लोग दूसरों के अधिकारों के साथ-साथ अपने कर्तव्यों के बारे में भूल जाते हैं।

मंत्री ने कहा कि मौलिक अधिकारों और मौलिक कर्तव्यों के बीच संतुलन खोजने की जरूरत है। संसद और राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयक और सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले देश के कानून हैं। ऐसी नौबत हम कैसे देख सकते हैं कि सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट, विधानसभा या संसद कानून परित कर दे, फिर भी लागू करने में मुसीबत होती है, तो हम सब को सोचना होगा। उन्होंने कहा कि विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका, समाज के सभी वगरें को सोचना होगा कि देश संविधान के अनुसार चलता है।

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