लाउडस्पीकर का प्रयोग धार्मिक रीति-रिवाज़ों का अभिन्न अंग नहीं है-हाई कोर्ट

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

बॉम्बे और इलाहाबाद हाई कोर्ट से दो आदेशों ने धार्मिक स्थलों पर लाउडस्पीकर के उपयोग को लेकर बहस को फिर से तूल दे दिया है. दोनों निर्णयों में यह पुष्टि की गई है कि लाउडस्पीकर का उपयोग धार्मिक आस्थाओं का अभिन्न हिस्सा नहीं है, और इसे ध्वनि प्रदूषण नियमों का पालन करना आवश्यक है.

23 जनवरी को, बॉम्बे हाई कोर्ट ने धार्मिक संस्थानों के खिलाफ सख्त कार्रवाई का आदेश दिया, जो ध्वनि प्रदूषण के नियमों का उल्लंघन करते हुए लाउडस्पीकर का उपयोग करते हैं. कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि लाउडस्पीकर किसी भी धर्म के लिए आवश्यक नहीं हैं और महाराष्ट्र सरकार से धार्मिक स्थलों पर ध्वनि स्तरों को स्वचालित रूप से नियंत्रित करने के लिए प्रणालियां लागू करने का निर्देश दिया.

यह आदेश मुंबई के नेहरू नगर और चुनाभट्टी के निवासियों की शिकायतों के बाद आया, जिन्होंने लाउडस्पीकर से अत्यधिक शोर की शिकायत की थी, जो दिन में 55 डेसिबल और रात में 45 डेसिबल के कानूनी सीमा को पार कर रहे थे.

बॉम्बे हाई कोर्ट ने लाउडस्पीकर के धार्मिक गतिविधियों के अभिन्न हिस्से के रूप में उपयोग की आवश्यकता को नकारते हुए ध्वनि प्रदूषण नियमों के कड़े पालन का निर्देश दिया. अदालत ने शोर प्रदूषण को स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा खतरा बताया और यह स्पष्ट किया कि लाउडस्पीकर के उपयोग पर पाबंदी लगाना धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं है.

इसी तरह, इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 22 जनवरी को एक आदेश में कहा कि धार्मिक स्थल मुख्य रूप से प्रार्थना करने के लिए होते हैं, और लाउडस्पीकर का उपयोग किसी अधिकार के रूप में नहीं किया जा सकता, खासकर जब इसका उपयोग आसपास के निवासियों के लिए परेशानी का कारण बनता है. यह आदेश मुख़्तियार अहमद द्वारा दाखिल याचिका के खारिज होने के दौरान आया, जिसमें उन्होंने राज्य प्राधिकरण से मस्जिद में लाउडस्पीकर लगाने की अनुमति मांगी थी.

न्यायमूर्ति अश्विनी कुमार मिश्रा और डोनाडी रमेश की खंडपीठ ने याचिका की वैधता पर राज्य के विरोध को सही ठहराया, यह कहते हुए कि याचिकाकर्ता न तो मस्जिद के मुतवल्ली थे और न ही उनके पास कोई मालिकाना हक था. कोर्ट ने यह फैसला सुनाया कि याचिकाकर्ता का कोई वैध अधिकार नहीं था. इसने यह भी दोहराया कि लाउडस्पीकर धार्मिक प्रथाओं का आवश्यक हिस्सा नहीं हैं, और उनका उपयोग मौलिक अधिकार के तहत संरक्षित नहीं है.

धार्मिक स्थलों पर लाउडस्पीकर के उपयोग पर पहले भी न्यायालयों में बहस हो चुकी है. बॉम्बे और इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इस मुद्दे पर पहले भी विचार किया है.अगस्त 2016 में, बॉम्बे हाई कोर्ट ने यह निर्णय लिया था कि कोई भी धर्म या संप्रदाय यह दावा नहीं कर सकता कि लाउडस्पीकर या पब्लिक एड्रेस सिस्टम का उपयोग भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 (आध्यात्मिक स्वतंत्रता और धर्म का पालन, प्रचार और प्रचार का अधिकार) द्वारा दिया गया मौलिक अधिकार है.

26 जून 2018 को, उत्तराखंड हाई कोर्ट ने लाउडस्पीकर्स के लिए पांच डेसिबल की सीमा निर्धारित की, राज्य सरकार से कहा कि लाउडस्पीकर का उपयोग, यहां तक कि दिन के समय भी, तब तक नहीं किया जाएगा जब तक उपयोगकर्ता यह शपथपत्र न भरें कि ध्वनि स्तर पांच डेसिबल से अधिक नहीं होगा.एक अन्य मामले में, नवंबर 2021 में कर्नाटक हाई कोर्ट ने राज्य सरकार से यह स्पष्ट करने को कहा था कि कौन से कानून के तहत मस्जिदों में लाउडस्पीकर और पब्लिक एड्रेस सिस्टम की अनुमति दी गई थी और उनके उपयोग को नियंत्रित करने के लिए क्या कदम उठाए जा रहे थे.

अदालत ने ये निर्देश जागो नेहरू नगर रेजिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन और द शिवसृष्टि को-ऑप हाउसिंग सोसायटी एसोसिएशन लिमिटेड, उपनगरीय नेहरू नगर, कुर्ला (पूर्व) और चूनाभट्टी क्षेत्र के निवासियों की याचिका पर दिए. याचिका में क्षेत्र में मस्जिदों जैसे धार्मिक स्थलों पर निर्धारित घंटों और डेसिबल सीमा से परे लाउडस्पीकर और एम्प्लीफायर के उपयोग के खिलाफ पुलिस के कार्रवाई न करने का आरोप लगाया गया है.

मामले की सुनवाई में हाईकोर्ट ने 2016 के अपने उस फैसले का हवाला दिया, जिसमें ध्वनि प्रदूषण (विनियम और नियंत्रण) नियम, 2000 का सख्ती से पालन करने के लिए कई निर्देश जारी किए गए थे. हाईकोर्ट ने तब यह पाया था कि ‘लाउडस्पीकर का उपयोग किसी भी धर्म का अनिवार्य हिस्सा नहीं है, और इसलिए संविधान के अनुच्छेद 25 (धर्म की स्वतंत्रता) के अंतर्गत प्राप्त संरक्षण, उल्लंघन करने वाली संस्थाओं पर लागू नहीं होती.

जस्टिस अजय एस. गडकरी और जस्टिस श्याम सी. चांडक की पीठ ने फैसले में कहा, ‘मुंबई एक महानगर है, जाहिर तौर पर शहर के हर हिस्से में अलग-अलग धर्मों के लोग रहते हैं. शोर स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा खतरा है. कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि अगर उसे अनुमति नहीं दी गई तो उसके अधिकार किसी भी तरह से प्रभावित होंगे. सार्वजनिक हित को ध्यान में रखते हुए इसके उपयोग कि अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, लाउडस्पीकर का उपयोग किसी भी धर्म का अनिवार्य हिस्सा नहीं है.’

पीठ ने आगे कहा, ‘हमारे अनुसार, यह पुलिस अधिकारियों और सरकार का कर्तव्य है कि उन्हें कानून के प्रावधानों द्वारा निर्धारित सभी आवश्यक उपाय को अपनाकर कानून को लागू करना चाहिए. एक लोकतांत्रिक राज्य में ऐसी स्थिति नहीं हो सकती कि कोई व्यक्ति यह कह सके कि वह देश के कानून का पालन नहीं करेगा और कानून लागू करने वाले इसके प्रति  मूकदर्शक बने रहेंगे.’

याचिकाकर्ताओं ने दावा किया था कि उन्होंने नेहरू नगर (कुर्ला पूर्व) और चूनाभट्टी थानों में शिकायत की थी और मस्जिदों और मदरसों के पास सुबह 5 बजे काफी ध्वनि प्रदूषण होने की सूचना दी थी, और यह भी कहा था कि त्योहारों पर देर रात 1.30 बजे तक लाउडस्पीकर बजाया जाता है.

याचिका में ध्वनि प्रदूषण नियमों और पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करने वाले अपराधियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के लिए चूनाभट्टी और नेहरू नगर थानों को निर्देश देने की मांग की गई है और साथ ही मुंबई पुलिस आयुक्त (सीपी) को जोनल डिप्टी सीपी (जोन 6) और स्थानीय थाने के अधिकारियों के खिलाफ अपने कर्तव्यों के निर्वहन में विफलता के लिए कार्रवाई करने का निर्देश देने की मांग की गई थी.

मालूम हो कि ध्वनि प्रदूषण मानदंडों के अनुसार, आवासीय क्षेत्रों में दिन के समय में डेसिबल का स्तर अधिकतम 55 और रात के दौरान 45 डेसिबल होना चाहिए. हालांकि, पुलिस उपायुक्त (डीसीपी) के 2023 के हलफनामे के अनुसार, संबंधित दो मस्जिदों में डेसिबल का स्तर 80 डेसिबल से ऊपर था.

हाईकोर्ट ने इस मुद्दे पर न्यायिक संज्ञान लेते हुए कहा, ‘आम तौर पर लोग चीजों के बारे में तब तक शिकायत नहीं करते हैं जब तक कि यह असहनीय और उपद्रव न बन जाए.’पीठ ने मुंबई सीपी से कहा कि सभी पुलिस अधिकारियों को डेसिबल स्तर मापने वाले मोबाइल एप्लिकेशन का उपयोग करने और कानून का उल्लंघन कर ध्वनि प्रदूषण करने वाले लाउडस्पीकर या अन्य उपकरणों को जब्त करने का निर्देश दें.

कोर्ट ने यह भी कहा कि पुलिस अधिकारियों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि शिकायतकर्ताओं की पहचान अपराधियों के सामने उजागर न की जाए, ताकि उन्हें निशाना ना बनाया जाएं.

हाईकोर्ट ने कहा कि पहली बार में पुलिस कथित अपराधी को चेतावनी दे सकती है और बार-बार उल्लंघन करने पर महाराष्ट्र पुलिस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार संबंधित ट्रस्टों या संगठनों पर जुर्माना लगा सकती है. और आगे उल्लंघन के मामले में उन्हें सख्त कार्रवाई की चेतावनी दे सकती है.

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