वोट झूठ नहीं बोलते, जो कांग्रेस को चुनावों से पता चल जाएगा,कैसे?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
भारतीय राजनीति में यात्राओं का बड़ा महत्व रहा है। लेकिन इसका एक दु:खद पहलू यह है कि अधिकतर चर्चित यात्राओं ने कुछ खास अर्जित नहीं किया है। 2022 में भी कुछ ऐसा ही होता नजर आ रहा है, जब राहुल गांधी को केंद्र में रखकर बनाया गया पर्सनैलिटी कल्ट उनकी पार्टी के एजेंडे को ही पृष्ठभूमि में धकेल दे रहा है।
राहुल अपनी भारत जोड़ो यात्रा गांधीवादी शैली में अंतरात्मा की आवाज पर निकाल रहे हैं। 1998 से 2004 तक सोनिया गांधी ने चुपचाप और लगन से काम करते हुए पार्टी की जमीन को मजबूत किया था और रचनात्मक विपक्ष की भूमिका निभाई थी। फलस्वरूप 2004 और 2009 के आम चुनावों में कांग्रेस को केंद्र की सत्ता मिली। लेकिन अब उनकी मेहनत पर पानी फेरा जा रहा है।
एक भारत यात्रा पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने भी 1983 में निकाली थी। राहुल गांधी की यात्रा की तरह उसकी शुरुआत भी कन्याकुमारी से हुई थी। उसे थोड़ा-बहुत कवरेज भी मिला, लेकिन किसी को ठीक-ठीक नहीं पता था वह यात्रा किस बारे में थी। 1984 के चुनाव में चंद्रशेखर की पार्टी का सफाया हो गया, जिसका मुख्य कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या से कांग्रेस के प्रति उपजी सहानुभूति की लहर थी।
1990-1991 में लालकृष्ण आडवाणी द्वारा राम मंदिर आंदोलन के तहत रथयात्रा और मुरली मनोहर जोशी द्वारा अलगाववाद के विरोध में एकता यात्रा निकाली गई थी। अनेक विश्लेषकों का मत है कि इन यात्राओं ने भाजपा को मजबूती दी, जबकि सच यह है कि 1989 से 1992 तक भारतीय राजनीति में अनेक घटनाएं हुई थीं, जिनका महत्व इन यात्राओं से अधिक था।
इनमें प्रमुख थीं, कश्मीरी पंडितों का जनसंहार, मंडल कमीशन के बाद कांग्रेस का घटता जनाधार और जनता दल का बिखराव, जिससे कांग्रेस की प्रमुख प्रतिद्वंद्वी पार्टी का खिताब भाजपा की झोली में आ गया। राजनीतिक हिंदुत्व के उदय, कांग्रेस के जातिगत समीकरणों को क्षति और जनता दल के पतन के बाद उभरे शून्य के चलते ही भाजपा को सफलता मिली थी।
इसके बावजूद यूपी में कल्याण सिंह के बाद भाजपा को फिर से सत्ता में आने में 5 साल लग गए थे। एक यात्रा जरूर ऐसी है, जिसे सफल कहा जा सकता है। यह 2003 में वाई.एस. राजेशखर रेड्डी ने ग्रामीण आंध्र प्रदेश में निकाली थी। इसका ज्यादा प्रचार नहीं हुआ। लेकिन इसी के चलते रेड्डी आमजन तक पहुंचे और उनकी समस्याओं को सुना।
वास्तव में भारत की राजनीतिक यात्राओं के साथ यही विरोधाभास है। या तो आप वाईएसआर की तरह चुपचाप यात्रा निकाल सकते हैं और पार्टी की जमीन मजबूत कर सकते हैं या आप बहुत शोर-शराबे के साथ हाई-प्रोफाइल यात्राएं निकाल सकते हैं, जो अपने लक्ष्यों को अर्जित करने में विफल रहें। भारत जोड़ो यात्रा के साथ राहुल गांधी इस दूसरे वाले मॉडल को अपनाते मालूम होते हैं।
एक ऐसा पब्लिसिटी मॉडल, जिससे बहुत ज्यादा रिटर्न नहीं हासिल होता हो। अव्वल तो यात्रा में राहुल ने जिन सेलेब्रिटीज को अपने साथ चलाया है, उनका जनता से जीवंत सम्पर्क नहीं है। दूसरे, वे निरंतर कहते रहे कि मीडिया उनकी यात्रा काे दिखा नहीं रहा है, इसका यह मतलब निकला कि यह महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दे पर आंदोलन के बजाय प्रचार के लिए निकाली जा रही यात्रा थी?
तीसरे, खुद कांग्रेस प्रवक्ताओं का ध्यान यात्रा के मुद्दों के बजाय यात्रा पर अधिक था। कुछ ने यात्रा में उमड़ने वाली भीड़ पर फोकस किया। कुछ ने राहुल की दौड़ने की क्षमता और सर्दियों में टी-शर्ट पहनने की चर्चा की, मानो यह उनके फिटनेस के स्तर को प्रदर्शित करने के लिए निकाली जा रही यात्रा हो? चौथे, यात्रा में उमड़ी भीड़ के चलते राहुल सुरक्षा कारणों से आमजन से वास्तविक सम्पर्क से वंचित हो गए।
सच्चा जनसम्पर्क तब होता है, जब कैमरे बंद हो जाते हैं और अधिक सुरक्षा व्यवस्था नहीं रहती। लेकिन वोट झूठ नहीं बोलते हैं, जो कि हमें 2023 और 2024 के चुनावों से पता चल जाएगा। कांग्रेस उम्मीद करेगी कि यह यात्रा वाईएसआर की यात्रा जैसी सफल रहे, लेकिन यह भी हो सकता है कि यह अतीत की राजनीतिक यात्राओं की तरह अपने लक्ष्य को पाने में नाकाम ही साबित हो।
वोट झूठ नहीं बोलते, जो कि चुनावों से पता चल जाएगा। कांग्रेस उम्मीद करेगी कि यह यात्रा सफल हो, लेकिन यह भी हो सकता है कि यह अतीत की राजनीतिक यात्राओं की तरह लक्ष्य को पाने में नाकाम रहे।