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भारतीय जड़ों से जुडऩे की चाहत, नाजी और साम्यवादी शासनों में इन्हें मिली थी भयंकर प्रताड़ना. - श्रीनारद मीडिया

भारतीय जड़ों से जुडऩे की चाहत, नाजी और साम्यवादी शासनों में इन्हें मिली थी भयंकर प्रताड़ना.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

  • अंतरराष्ट्रीय रोमानी दिवस या अंतरराष्ट्रीय रोमा दिवस 8 अप्रैल को मनाया जाता है।
  • इससे रोमा लोगों के सामने आने वाले मुद्दों के बारे में जागरूकता बढ़ाई जा सके।
  • रोमा यूरोप का सबसे वंचित समूह है जिसके मौलिक अधिकारों का नियमित रूप से उल्लंघन किया जा रहा है।
  • रोमा जातीय समूह को यूरोप में रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य देख-भाल एवं सामाजिक सुविधाओं में भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
  • अंतरराष्ट्रीय रोमानी दिवस की स्थापना 1990 में आयोजित अंतरराष्ट्रीय रोमानी संघ के चौथे विश्व रोमानी कांग्रेस के दौरान की गई थी।
  • 4 विश्व रोमा कांग्रेस में 1990 में अंतर्राष्ट्रीय रोमा संघ द्वारा अप्रैल 8  को अंतर्राष्ट्रीय रोमा डे घोषित किया गया.
  • 8 अप्रैल 1971 को लंदन में आयोजित रोमा कांग्रेस में रोमा के प्रतिनिधियों की प्रथम बैठक के महत्व के द्रष्टिगत इस दिन को चुना गया.
  • 1992 में अंतर्राष्ट्रीय रोमा संघ, संयुक्त राष्ट्र और यूरोपीय संघ के प्रस्ताव पर 8 अप्रैल अंतर्राष्ट्रीय रोमा दिवस के रूप में घोषित कर दिया गया.

उत्पीडऩ और निर्वासन से दुनिया का कोई कोना अछूता नहीं है। पृथक जातीय पहचान, रंग और धार्मिक मान्यताओं में अंतर के नाते दुनिया भर में अनेक प्रकार की त्रासदियां होती रही हैं। परंतु एक विशेष समुदाय है जिसने इस लिहाज से सर्वाधिक पीड़ा सही है। यह समूज भले ही बिखरा है, मगर सबसे बड़ा समूह है जिनकी पहचान से जुड़े इतिहास पर अब भी काम बाकी है। वहीं इनके साथ भेदभाव अब तक जारी है। यह समुदाय स्वभाव से मस्त और कला शिल्प मर्मज्ञ है। इन घुमंतुओं के कई नाम हैं जिनमें अपमानजनक ‘जिप्सी’ भी है, जिसका अभिप्राय संदेहास्पद आवारा समूह है। किंतु इन्हें पसंद ‘रामा नो छावा’ है। रोमानी भाषा में इसका अर्थ है- राम के बच्चे।

यह नाम निरंतर इन्हें गर्व और अतीत के पहचान से जोड़े रखता है। इसी नाम की महिमा है कि दुनिया भर में बिखरे ये लोग प्रतिवर्ष आज के दिन यानी आठ अप्रैल को एकत्रित होते हैं। दुनिया भर में इन्हें अब रोमा समुदाय के नाम से जाना जाता है। रोमा आयोजनों में ये अपने रचनात्मक कलात्मक अभिव्यक्ति का प्रदर्शन करते हैं। वहीं बदलते समय के साथ अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाने बढ़ाने की भी बात होती है। ऐसे हर आयोजन में सर्वाधिक चर्चा अतीत के पलायन निर्वासन की होती है। आखिर एक समुदाय के तौर पर इनके अस्तित्व में आने का कारण भी तो यही है। ये हर गम भूल सकते हैं, किंतु भारत से अपने बिछोह को नहीं। प्रथम वैश्विक रोमा सम्मेलन से यह मुद्दा चला आ रहा है।

यह सम्मेलन वर्ष 1971 में लंदन में आयोजित हुआ था। तब से रोमाओं के भारत से जुडऩे और आने का सिलसिला जारी है। वहीं समय के साथ भूले बिसरे इस समुदाय की पहचान पर शोध संकलन भी हो रहे हैं। बात इनके आबादी और बसावट की करें तो ये यूरेशियाई मुल्कों से लेकर दक्षिण अमेरिका तक करीब 30 देशों में बसे हैं। किंतु इनकी सर्वाधिक प्रभावी संख्या रोमानिया, बुल्गारिया, स्लोवाकिया, हंगरी, सर्बिया जैसे पूर्वी यूरोपियन देशों में है। इन्हें अपने अलग रंग रूप और सामुदायिक पहचान के नाते अक्सर तकलीफें झेलनी पड़ी हैं।

नाजी, साम्राज्यवादी और साम्यवादी शासनों मे इन्हें भयंकर प्रताडऩा मिली। इनकी एक बड़ी आबादी विश्व युद्धों की भेंट भी चढ़ी। किंतु इन्होंने प्रताडऩा और पृथक पहचान के नाते कभी कोई मांग नहीं रखी। इसके बावजूद यूरोप में इन्हें संदेह की नजरों से देखा जाता रहा है। प्रसिद्ध गायक एल्विन प्रेस्ले भी एक रोमा थे, वहीं अभिनय जगत के कई प्रसिद्ध नाम रोमा समुदाय से हैं। हालीवुड की चर्चित मूवी टेन कमांडमेट्स के खलनायक यूएल ब्रायनर तो रोमा संघ के अध्यक्ष भी थे। इन सबके बावजूद रोमा समुदाय उत्पीडऩ को सहने और भटकने के लिए अभिशप्त है।

बात रोमा आबादी की हो तो इसे ठीक प्रकार गिना नहीं गया है। केवल पूर्वी यूरोप में ही इनकी पांच करोड़ आबादी बताई जा रही है। बात इतिहास के हवाले से करें तो रोमा की शुरुआत भारत से है। यहां हिंदुकुश से लेकर सिंधु तक आने वाले आक्रमण गंगा यमुना के मैदानों तक आए। ऐसे में उत्तर और पश्चिमोत्तर भारत से एक बड़े वर्ग को उजडऩे के लिए मजबूर किया गया। हजारों कारीगरों, महिलाओं और बच्चों को बलात ले जाया गया था।

सिकंदर द्वारा 20 हजार भारतीय ले जाए गए थे। वहीं फिरदौस के ‘शाहनामा’ के अनुसार ईरानी सुल्तान बैरम गुल के लिए 20 हजार कला संगीत मर्मज्ञ भेजे गए थे। जबकि गजनवी के वर्ष 1018 के कन्नौज मथुरा आक्रमण के बाद तो दासों की दुकान ही सज गई। इसी दौर में करीब तीन सदियों तक पलायनों का भुक्तभोगी ये भारतीय जन समुदाय है। उन दिनों गजनी और बगदाद के बाजारों में भारतीय दो दीनारों मे बिकते थे। किंतु इन शोषित मगर ज्ञानी गुणी लोगों ने अपनी यात्रा बनाए रखी। ये कला शिल्प संगीत के साथ ही धातुकर्म अभियंत्रण और चिकित्सा में भी प्रवीण थे।

फलत: इनके लिए सर्वत्र अवसर था। इन्होंने अपनी यात्रा स्टील रूट से बनाये रखी, जो सिल्क मार्ग के समान ही एक अंतर्देशिक सड़क मार्ग था। ये रोमा लोग बाल्कन प्रायद्वीप होकर यूरोप पहुंचे। फिर समय की यात्रा में साम्राज्यवादी यूरोपीय देशों द्वारा दक्षिणी अमेरिकी महाद्वीप तक ले जाए गए।

इनके वेशाभूषण और परंपराओं पर आज भी किंचित भारतीय प्रभाव है। आज समय की यात्रा ने इनसे इनका धर्म जरूर छीन लिया है। कहीं ये मुस्लिम और कहीं ईसाई हंै। इसके बावजूद इनकी सर्वाधिक निष्ठा देवी काली सारा में है जो देवी काली का रोमा नाम है। इनके उत्सव उपासना में भारतीय प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। यही सब कारण रहा कि रोमा समाज की नई पीढ़ी अपने पूर्वजों के देश से जुडऩे को तत्पर दिखती है।

इस दिशा में तथ्यों से अवगत होने के बावजूद प्रयास कुछ विलंब से शुरू हुए, जिसकी शुरुआत इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते हुई थी। वहीं अब यह मोदी शासन के दौरान नई ऊंचाइयों को छू रहा है। बदली भारतीय नीति के दौर में प्रवासी भारतीय सम्मिट संग ‘इंडो रोमा सम्मेलन’ जैसे आयोजन हो रहे हैं। इस वर्ष ऐसा एक आयोजन विदेश मंत्रालय द्वारा क्रोएशिया की राजधानी जाग्रेब मे हो रहा है।

यह भारत सरकार द्वारा देश के बाहर किया जा रहा प्रथम इंडो रोमा सम्मेलन है। वहीं सामाजिक प्रयास भी रंग लाने लगे है। संघ परिवार द्वारा आयोजित पुरातन धर्म सम्मेलनों में भी रोमा प्रतिनिधियों का आना हो रहा है। अब राम के बच्चे अर्थात रामा नो छावा राम के देश आ रहे है। आवश्यकता संबंधों की प्रगाढ़ता बढ़ाने और रोमा हितों को लिए आवाज देने की है।

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