क्या देवी अहिल्याबाई एक कुशल राजनीतिज्ञ भी थी?

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अहिल्याबाई की 300वीं  जयन्ती पर शत-शत नमन!

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क


देवी अहिल्याबाई होल्कर का जन्म साधारण से किसान के घर में 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के अहमदनगर के छौंड़ी ग्राम में हुआ था। उनके पिता मन्कोजी राव शिंदे, अपने गाँव के पाटिल थे। उस समय महिलाएँ विद्यालय नहीं जाती थीं, लेकिन अहिल्याबाई के पिता ने उन्हें लिखने-पढ़ने लायक बनाया। मालवा के राजा मल्हार राव होल्कर एक बार छौड़ी में रुके हुए थे, वहाँ उन्होंने छोटी-सी अहिल्या को देखा तो उनकी बुद्धिमता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अहिल्या को अपनी पुत्रवधु बनाने का निश्चय कर लिया। 1733 में अहिल्याबाई होल्कर का विवाह खांडेराव होल्कर से हुआ।

जिसके बाद पुत्र मालेराव और पुत्री मुक्ताबाई का जन्म हुआ। अल्पायु में ही अहिल्याबाई के पति खांडेराव होल्कर का 1754 के कुम्भेर युद्ध में देहान्त हो गया और 12 साल बाद उनके श्वसुर मल्हार राव होल्कर की भी मृत्यु हो गयी। इसके एक साल बाद ही उन्हें मालवा साम्राज्य की महारानी का ताज पहनाया गया।

शिव के प्रति उनके समर्पण भाव का पता इस बात से चलता है कि अहिल्याबाई राजाज्ञा पर हस्ताक्षर करते समय अपना नाम नहीं लिखती थी, बल्कि पत्र के नीचे केवल श्रीशंकर लिख देती थी। उनके रुपयों पर शिवलिंग और बिल्व पत्र का चित्र और पैसों पर नंदी का चित्र अंकित है। ऐसा कहा जाता है कि तब से आजादी मिलने तक इंदौर के सिंहासन पर जितने भी नरेश बैठे, सबकी राजाज्ञा बिना श्रीशंकर का नाम अंकित किए जारी नहीं की गई। बिना श्रीशंकर वाली राजाज्ञा को कोई राजाज्ञा नहीं मानता था और उस पर अमल भी नहीं होता था।

देवी अहिल्याबाई एक कुशल राजनीतिज्ञ भी थी। एक बार मराठा पेशवाओं ने उनके शासन को कमजोर समझ कर कब्जा करने के लिए मालवा को घेर लिया। तब उन्होंने राजनीतिक कुशलता वाला एक पत्र मराठा पेशवाओं को भेजा जिसमें लिखा था- यदि वह स्त्री सेना से जीत हासिल भी कर लेंगे, तो उनकी कीर्ति और यश में कोई बढ़ोतरी नहीं होगी, दुनिया यही कहेगी कि स्त्रियों की सेना से ही तो जीते हैं और अगर आप स्त्रियों की सेना से हार गये, तो कितनी जग-हँसाई होगी आप इसका अंदाजा भी नहीं लगा सकते। अहिल्याबाई की यह बुद्धिमानी काम कर गई और पेशवा ने आक्रमण करने का विचार त्याग दिया।

आधुनिक भारत के गिने-चुने नेता हुए हैं जिन्होंने देवी अहिल्याबाई होल्कर के सनातन धर्म के सिद्धान्त और उनके दर्शन के साथ कदम मिलाकर चलने का प्रयास किया है। इतिहासकार जॉन केय ने जिस प्रकार अहिल्याबाई होल्कर को फिलॉसफर क्वीन कहा था, उसी प्रकार कई लोगों ने उनके शासन को प्रभावशाली, मजबूत व जनकल्याणकारी शासन के रूप में माना है।

देवी अहिल्याबाई ने अपने जीवनकाल में कई मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया, जो आक्रांताओं और अंग्रेजी शासकों के अत्याचारों के शिकार हुए थे। उन्होंने काशी विश्वनाथ मन्दिर का पुननिर्माण कराया। ध्वस्त हो चुके सोमनाथ मन्दिर के समीप दो मंजिला मन्दिर बनवाया। गया, पुष्कर, वृन्दावन, नाथद्वारा, हरिद्वार, बद्रीनाथ और केदारनाथ, अयोध्या, उज्जैन, नासिक आदि सैकड़ों मन्दिर अहिल्याबाई द्वारा जीर्णोद्धार कराने की सूची में हैं।

अहिल्याबाई के स्नेह की छाया मनुष्येतर प्राणियों पर भी थी। पशु-पक्षियों के खाने के लिए अन्न-भंडार खुले छोड़ दिए जाते थे एवं फसल को खेत में ही छोड़ दिए जाते थे, चीटियों के लिए वनक्षेत्र में आटा और मछलियों के लिए जलाशयों में आटे की गोलियाँ डाली जाती थी, गाय-बछड़ों के चरने के लिए घास के मैदान एवं पीने के लिए जलाशय की व्यवस्था की जाती थी।

अहिल्याबाई ने महेश्वर में स्थानीय हथकरघा उद्योग का विकास कर दुनिया को महेश्वर साड़ी की सौगात दी। अपने 30 वर्ष के शासनकाल के दौरान इन्दौर को समृद्ध और विकसित बनाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।

अहिल्याबाई ने अपने जीवनकाल में भीषण कठिनाइयों का सामना किया, परंतु समाज कार्य के लिए अपना जीवन खपा दिया। उनके बृहत् पुण्य कर्मों के कारण उन्हें ‘पुण्यश्लोक’ की उपाधि मिली। उनके जीवनादर्श से आने वाली पीढ़ियों को सदैव प्रेरणा मिलती रहेगी। उनकी जयन्ती की 300वें वर्ष में उनको शत-शत नमन!

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