अच्छी जॉब कर रहे थे, कैसे बदली प्रशांत किशोर की जिंदगी.
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
02 मई को प्रशांत किशोर ने सुबह 09.00 बजे दो लाइन के ट्वीट में जन-सुराज नाम से नई पार्टी बनाने की घोषणा क्या की, वो ट्रेंड होने लगे. अगले 05 घंटों में उनके इस ट्वीट को 19 हजार लाइक मिले तो 3000 से ज्यादा बार इसे रिट्वीट किया गया. कमेंट करने वालों की लाइन लग गई. उनके ट्विटर प्रोफाइल पर उन्होंने अपना परिचय गांधी का सिपाही, परंपरा विरोधी, समतावादी, मानवतावादी और जनता की आकांक्षाओं पर विश्वास करने वाले शख्स के तौर पर दिया है.
ट्विटर पर वो केवल 85 लोगों को फॉलो करते हैं, उसमें राष्ट्रीय स्तर का कोई नेता नहीं है. इसमें केवल तीन नाम हैं-स्तालिन, कैप्टेन अमरिंदर सिंह और असाउद्दीन ओवैसी. ओवैसी का नाम कुछ चकित भी करता है. जिन लोगों को वो फॉलो करते हैं, उसमें ज्यादातर पत्रकार और सियासी दलों के प्रवक्ता हैं.
कुछ दिनों पहले ही उन्होंने कांग्रेस के न्योते को ठुकराया और इसके चंद दिनों बाद जनसुराज के नाम से सियासी पार्टी बनाने का ऐलान कर दिया. हालांकि उनकी ये पार्टी पहला चुनाव बिहार में लड़ेगी. ऐसा लगता है कि नीतीश के हाथों 2019 में मिले उस दंश पर हिसाब बराबर करेंगे, जो जेडीयू ने उन्हें तब पार्टी से निकालकर दिया था. वैसे भी बिहार उनका अपना राज्य है. यहां की जमीन को वो ज्यादा अच्छी तरह जानते भी हैं और प्रयोग भी कर चुके हैं.
हालांकि बिहार बहुत मुश्किल राज्य भी है. जहां चुनावी सियासत जाति से लेकर जाति के निचले पायदान तक जाती है और कई खांचों पर बंटी हुई है. ये राज्य वाकई इतना आसान नहीं है. लेकिन पीके ने अपनी सियासी पारी को यहीं से बढ़ाने का फैसला किया है. वैसे बिहार ऐसा राज्य भी है, जहां आजादी के बाद 07 देशकों में कई पार्टियां बनीं और गायब हो गईं.
हैदराबाद उनके लिए खास क्यों रहा
पीके नाम से ज्यादा शोहरत हासिल करने वाले प्रशांत के आईपैक का हेडक्वार्टर हैदराबाद में है. इस शहर से उनके रिश्ते बहुत प्रगाढ़ हैं. हालांकि आईपैक में उनकी टीम में जो दिग्गज लोग हैं, वो उन्हें मिलते गए और जुड़ते गए.
कहा जाता है कि हैदराबाद उनकी कर्मस्थली है. यहां काम करते हुए उनकी उस महिला से मुलाकात हुई, जो डॉक्टर थीं और बाद में उनकी पत्नी बनीं. कहा ये भी जाता है कि हैदराबाद से उन्होंने इंजीनियरिंग की है, इसीलिए उनका इस शहर से इतना जुड़ाव है. वैसे हकीकत ये है कि उन्होंने इंजीनियरिंग तो कभी की ही नहीं लेकिन देश के आला आईआईटी, बिट्स पिलानी से लेकर दूसरे इंजीनियरिंग कालेजों के बैचलर उनके दीवाने हैं. उनके साथ काम करते हैं.
पीके की कंपनी देश के बड़े इंजीनियरिंग कालेजों में प्लेसमेंट कैंप भी लगाती है. उनकी कहानी और देश के दिग्गज चुनावी रणनीतिकार बनने की कहानी भी बहुत रोचक है. उनकी जन्मतिथि क्या है, ये कहीं पता नहीं चल पाता. बस ये मालूम है कि सासाराम के एक गांव के खाते-पीते ब्राह्णण परिवार में उनका 1976-77 में हुआ. पिता बिहार सरकार में डॉक्टर थे.
इंटर के बाद पढ़ाई में ब्रेक के झटके क्यों लगे
शुरुआती पढाई बक्सर में हुई. इंटर तक वो बहुत तेज पढाकू बच्चों में थे. मैथ में बहुत शार्प. चाहते तो निश्चित तौर पर आईआईटी में सेलेक्ट हो सकते थे. पिता चाहते भी थे कि वो या तो डॉक्टर बनें या फिर इंजीनियर. लेकिन वो दोनों नहीं बनना चाहते थे. वो क्या बनना चाहते थे शायद उन दिनों उन्हें खुद बहुत साफ नहीं था.
पहले वो दिल्ली के हिंदू कॉलेज में पढ़ने गए. फिर वापस घर लौट आए. दो साल पूरा ब्रेक लिया. किसी ने जब उनसे पिछले दिनों इंटरव्यू में पूछा कि वो ब्रेक में क्या करते थे. जवाब आया, वही जो उस उम्र में युवा नहीं करते. हालांकि ये वो दिन थे जब पिता उनसे खिन्न रहे होंगे. उन्हें लगा होगा कि ये लड़का अपना करियर बर्बाद करने पर लगा है. ग्रेजुएट होने के बाद उन्होंने पब्लिक हेल्थ में पढा़ई की. इसमें भी बीच में एक साल का ब्रेक लिया. यानि इंटर के बाद पीजी के बीच तीन साल का ब्रेक.
यूनाइटेड नेशंस में अच्छी जॉब कर रहे थे
05 फुट 09 इंच के पीके स्मार्ट थे. उन दिनों जींस, टीशर्ट में होते थे. जहां होते थे, वहां अलग तो नजर आते थे. पढ़कर कर निकलते ही उन्हें यूनाइटेड नेशंस में पब्लिक हेल्थ में ही अच्छी जॉब मिल गई. पहली पोस्टिंग हैदराबाद में हुई. जहां उन्होंने जमकर काम किया. ऐसा काम किया कि यूनाइटेड नेशंस में उनकी गिनती काबिल लोगों में होने लगे. इसी दौरान उन्होंने इस शहर में काफी संपर्क बनाए. काम करते हुए ही उनकी मुलाकात डॉक्टर जान्हवी से हुई, जिससे फिर उनकी शादी हुई. जान्हवी इन दिनों असम के गुवाहाटी में डॉक्टर हैं. दोनों से एक बेटा है दैबिक.
वो सर्वे जिसने उन्हें मोदी से मिलाया और जिंदगी बदल गई
इसके बाद यूनाइटेड नेशंस के हेल्थ से जुड़े विभाग में उनके सितारे चढ़ने लगे. वो जिनेवा में गए. जिंदगी अच्छी चल रही थी. सेलरी अच्छी थी. फ्यूचर ब्राइट. इस काम के दौरान ही उन्होंने एक सर्वे किया. जो 04 राज्यों में कुपोषण से संबंधित था. इसमें गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे राज्य शामिल थे. सर्वे के बाद उन्होंने रिपोर्ट बनाई- मालन्यूट्रिशियन इन हाई्ग्रोथ स्टेट्स इन इंडिया. रिपोर्ट में गुजरात को सबसे नीचे रखा गया था.
एक दिन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के आफिस से सीधे उनके पास फोन आया. पूछा गया-आपने गुजरात को क्यों सबसे नीचे रखा है. उन्होंने मुख्यमंत्री से मिलने गांधीनगर बुलाया गया. इस मुलाकात ने ही उनकी जिंदगी को केवल बदला ही नहीं बल्कि एक नए ट्रैक पर डाल दिया.
तब मुश्किल ये थी कि नौकरी छोडे़ं या नहीं छोडे़ं
मोदी से उनकी मुलाकात हुई. मोदी को इस नौजवान में खास बात नजर आई. इस मुलाकात के दौरान ही उन्होंने प्रशांत किशोर को उनके आफिस से जुड़कर काम करने का न्योता दिया. ये अगर लुभावना ऑफर था तो एक मध्यमवर्गीय परिवार के युवक के लिए मुश्किल भी. रिस्क भी था. फिर नेताओं के साथ काम करना किसी बड़े जोखिम से कम नहीं होता. रोज नए तरह का संघर्ष. उनका दिल रोज ही जीतना. ये काफी मुश्किल तो था.
फिर टीम मोदी के विश्वसनीय होते गए
लेकिन परिवार की इच्छा के खिलाफ प्रशांत किशोर गुजरात सीएम के आफिस से जुड़े. उनके लिए काम करने लगे. फिर वो व्यक्तिगत तौर पर मोदी से जुड़े. उन्होंने गुजरात में चुनाव के लिए वर्ष 2011 में काम करना शुरू किया. भाषण लिखना, डाटा एनालिटिक्स, रणनीतिक एप्रोच और नए आइडियाज को हकीकत में बदलना. इन सभी में उन्हें महारथ हासिल थी, जो उन्होंने साबित कर दिया. जैसे जैसे उन्होंने अपने कामों को हकीकत में बदला, वो टीम मोदी के विश्वसनीय होते चले गए.
वर्ष 2012 के गुजरात विधानसभा चुनावों ने पहचान दी
वर्ष 2012 में जब गुजरात विधानसभा चुनावों के परिणाम आए तो इस जीत की पृष्ठभूमि में प्रशांत किशोर का नाम भी चर्चाओं में आने लगा. हालांकि देश के लोग तब चुनाव की तकदीर बदलने वाले नए टूल्स और नई तकनीक को हवा में उड़ा रहे थे. किसी को विश्वास नहीं था कि ये सब चुनाव में काम करेगा. लेकिन वर्ष 2014 में जब लोकसभा चुनाव हुए तो प्रशांत किशोर ने साफ तौर पर दिखा दिया कि कम्युनिकेशन और सोशल मीडिया के नए टूल्स कितने ताकतवर हैं. इसने तब ये जाहिर किया कि देश में परंपरागत तरीके से चुनाव लड़ने का तरीका बदल गया है. अब ये बात लोग मानते ही नहीं हैं बल्कि ये सच्चाई बन चुकी है.
फिर सफलता का ग्राफ ऊपर चढ़ने लगा
वर्ष 2014 में अगर बीजेपी और नरेंद्र मोदी का सितारा ऊपर चढ़ा तो प्रशांत किशोर का भी. देश में नए दौर की चुनावी रणनीति में वह बड़ा नाम बन गए. वर्ष 2015 में उन्होंने चुनावी स्ट्रैटजी, मार्केटिंग और प्रोमोशन के लिए नई कंपनी खड़ी की आई-पैक. टीम मोदी से अलग होकर वह अपने लिए काम कर रहे थे. उनकी चुनौतियों की लिस्ट और सफलताओं की लिस्ट अब शुरू होने वाली थी. हालांकि इस लिस्ट एक बड़ी नाकामी भी है.
जेडीयू को चुनाव लड़ने से लेकर ममता दीदी के साथ तक
वर्ष 2015 में उन्होंने जेडीयू को सेवाएं दीं और ये पार्टी बिहार में जीतकर सरकार बना सकी. नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने. पीके उनके ज्यादा करीब आ गए. इसके बाद वर्ष 2017 में अमरिंदर सिंह के साथ पंजाब चुनावों में उन्होंं कांग्रेस को जीत के रथ पर सवार कराने में रोल निभाया. 2019 में आंध्र प्रदेश में जगन रेड्डी को अभूतपूर्व जीत दिलाने में उनकी खूब वाहवाही हुई. वो एक बडे़ चुनाव स्ट्रैटजिस्ट के बड़े ब्रांड में बदल चुके थे.
2020 में आम आदमी पार्टी के साथ मिलकर ऐसी ही सफलता उन्होंने दिल्ली में हासिल की. अगले साल फिर उनकी सफलताओं की लिस्ट में तमिलनाडु का चुनाव शामिल हुई, स्तालिन ने उनकी सेवाएं ली थीं. उनकी पार्टी डीएमके सत्ता में आई और वह मुख्यमंत्री बने. जब सारे देश की निगाहें पश्चिम बंगाल के चुनावों पर लगी थीं और माना जा रहा था कि ममता दीदी के पैर बीजेपी की आक्रमक रणनीति से उखड़ जाएंगे, तब वो ममता दीदी को चुनाव लड़ा रहे थे. जब चुनाव परिणाम आए तो पता चला कि तृणमूल ने तो बंगाल में पिछली जीत का भी रिकॉर्ड तोड़ दिया है.
राजनीति के चाणक्य बन चुके हैं
कुल मिलाकर पीके देश की राजनीति में ऐसे चाणक्य जरूर बन गए हैं, जो अब अपनी एक हैसियत रखते हैं. जो कहते हैं उसको गंभीरता से सुना जाता है. हालांकि उनकी आलोचनाएं भी हुई हैं. अप्रैल में जब ऐसा लगने लगा था कि वो कांग्रेस से जुड़कर उसकी नैया पार लगा देंगे तो लोगों को गोवा विधानसभा चुनावों के दौरान उनके वो बयान भी याद आए, जब उन्होंने कांग्रेस को खत्म हो रही पार्टी बताया था.
सोनिया गांधी से उनकी लंबी बातचीत हुई लेकिन नतीजा ये निकला कि वो कांग्रेस में नहीं गए. कांग्रेस को ज्वाइन करने का प्रस्ताव उन्होंने ठुकरा दिया.तभी उन्होंने संकेत दिया था कि वो अब भारतीय राजनीति में कुछ नया करने वाले हैं.
खासियतें क्या हैं उनकी
प्रशांत किशोर की कुछ खासियतें तो हैं, उन्होंने भारतीय चुनावों को बदल दिया है. उनकी बातें हवा-हवाई नहीं होतीं बल्कि परफेक्ट डाटा एनालिसिस पर आधारित होती हैं, लिहाजा वो अक्सर सही साबित होती हैं. उन्हें अपनी काबिलियत पर पक्का भरोसा दिखता है और ये कांफिडेंस उन्होंने पिछले एक दशक में अपने काम और उपलब्धियों से ही हासिल किया है. लेकिन ये बात भी सही है कि अब तक वो अगर कोर्ट में गेंद खेल रहे थे बल्कि कहना चाहिए कि दूसरों को खिला रहे थे. अब खुद खेलना है. उन्होंने भारतीय चुनावों को भी बदला है. उसे कारपोरेट ढर्रे पर भी डाला है.
कुछ सवाल भी हैं
दूसरी बात जो कुछ सवाल भी खड़े करती है. अब अगर वो सियासी पार्टी बना रहे हैं तो उनकी कंपनी क्या अब भी सियासी पार्टियों से चुनाव लड़ाने और रणनीति बनाने के ठेके लेगी. अगर ऐसा हुआ तो हितों का बहुत टकराव होगा. वैसे प्रशांत पर हितों के टकराव के आरोप भी लगे हैं. वो एक साथ दो -तीन पार्टियों से बात ही नहीं करते बल्कि उनके लिए काम भी करते हैं.
आप सोच रहे होंगे कि उनकी लिस्ट की बड़ी नाकामी क्यों अब तक नहीं बताई है. वो बड़ी नाकामी वर्ष 2017 का विधानसभा चुनाव था. जबकि उन्होंने कांग्रेस को यहां पर चुनाव लड़ाया था और कांग्रेस को औंधे मुंह की खानी पड़ी थी. सारी की सारी रणनीति की धज्जियां बिखर गईं थीं. वैसे उस बात की चर्चा यहां करना उचित नहीं कि वो अब तक जिस पार्टी को चुनाव लड़ाते थे, उससे कितनी मोटी रकम लेते थे.
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