भाषा के सवाल पर संविधान सभा में क्या व क्यों हुआ था?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
हिंदी देश की राजभाषा है यानी सरकारी कामकाज में उपयोग की जाने वाली भाषा। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने को लेकर संविधान सभा में लंबी बहस चली थी।
14-15 अगस्त की दरमियानी रात को जब आधी दुनिया सो रही थी तो हिन्दुस्तान अपनी नियती से मिलन कर रहा था। स्याह शब्द को चीर कर एक सूरज रौशन हुआ और उसी रौशनी में हिन्दुस्तान को अपना भविष्य गढ़ना था। लेकिन भविष्य की भाषा क्या होगी? कोस कोस पर बदले पानी चार कोष पर वाणी। भारत की यही विविधता आज समस्त संसार के लिए आकर्षण का केंद्र बिन्दु बनी हुई है।
ऐसे में आखिर दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी को भाषा की किस डोर में बांधी जाए। वो डोर कौन सी हो हिंदी, हिन्दुस्तानी, अंग्रेजी या फिर कोई और भारतीय जुबान। लेकिन 1947 में भारत के बंटवारे के बाद तस्वीर बदलने लगी। आजादी से पहले तक जो लोग हिन्दुस्तानी को मादर-ए-वतन की जुबान बनाना चाहते थे। वो हिंदी की कसमें खाने लगे। जो हिंदी में हिंद की बुलंदी देखते थे उन्हें उर्दू से ज्यादा ही इश्क होने लगा। ऐसे में संविधान बनाते समय सबसे विवादास्पद मुद्दा भाषा का था। यक्ष प्रश्न ये था कि भारत की राष्ट्रभाषा क्या होगी? संविधान सभा में जिस विषय पर सबसे ज्यादा विवाद, बवाल और तनाव का माहौल बना वो राष्ट्रभाषा का सवाल था।
भाषा के सवाल पर संविधान सभा में क्या हुआ था
12 सितंबर 1949 को संविधान सभा की बहस अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद की निगरानी में शुरू हुई। बहस की शुरुआत सबसे पहले महान स्वतंत्रता सेनानी रघुनाथ विनायक धुलेकर ने की। उन्होंने कहा कि अगर हिंदी को देश की राजभाषा बनाया जाता है तो मुझसे ज्यादा कोई खुश नहीं होगा। उन्होंने कहा कि देववागिरी लिपि में हिंदी देश की आधिकारिक भाषा बन गई है। इस पर कुछ सदस्यों ने कहा – अभी नहीं। धुलेकर ने कहा कि तुलसीदास ने हिंदी में लिखा और इसके बाद संत स्वामी दयानंद गुजराती थे फिर भी उन्होंने भी हिंदी में लिखा।
हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जब कांग्रेस में आए थे तो अंग्रेजी की जगह हिंदी में बात रखी। हिंदी सार्वभौमिक भाषा बन गई है और ये हमारी राष्ट्रीय भाषा की ताकत है। धुलेकर के बयान के बाद बंगाल के जनरल पंडित लक्ष्मीकांत ने अपनी बात रखनी शुरू की। उन्होंने संस्कृत का जिक्र करते हुए कहा कि ये ही ऐसी भाषा है जो आधिकारिक भाषा भी होनी चाहिए और राष्ट्रीय भाषा भी। हालांकि इसके साथ ही लक्ष्मीकांत ने कहा कि मुझे उनसे कोई झगड़ा नहीं करना है जो हिंदी को राजभाषा के रूप में मान्यता दिलाना चाहते हैं। मेरा प्रस्ताव ये है कि सभी जगहों से हिंदी को आधिकारिक भाषा की जगह संस्कृत को इसका दर्जा दिया जाए।
हिंदी के पक्ष और विपक्ष में तर्क
संविधान सभा की बहस में शामिल एसवी कृष्णमूर्ति राव के अंग्रेजी भाषा की वकालत की और इसके पीछे ये दलील दिया कि दक्षिण की कई भाषाओं के मुकाबले हिंदी बहुत नई है। जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी का कहना था भारत में केवल एक भाषा होगी ऐसा सोचने वालों से वो इत्तेफाक नहीं रखते। उनका कहना था कि भारत की पहचान विविधिता में एकता से है और ज्यादातर लोग हिंदी को इसलिए स्वीकार कर रहे हैं क्योंकि लोगों की एक बहुत बड़ी संख्या इसे समझती है।
सेठ गोविंद दास ने मुखरता से राष्ट्रभाषा के तौर पर हिंदी का समर्थन किया। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र तभी चल सकता है जब बहुसंख्यक लोगों के मत का सम्मान किया जाए। मौलाना अबुल कलाम आजाद ने कहा कि वो इस बात से बहुत दुखी हैं कि हिन्दुस्तानी का समर्थन केवल इसलिए नहीं किया जा रहा क्योंकि इसमें उर्दू के शब्द शामिल हैं। उन्होंने उर्दू को देश की भाषा भी बताया।
मुंशी-आयंगर कमिटी
इस बहस के दौरान जो सबसे अजीब बात लगी कि सभी वक्ता चाहे वो हिंदी के पक्ष में बोलने वाले हो या विरोध में सभी अंग्रेजी में ही बोल रहे थे। खुद संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ प्रसाद भी अंग्रेजी में ही दिशा निर्देश दे रहे थे। 14 सितंबर 1949 को समाप्त हुई संविधान सभा की बहस में कोई नतीजा नहीं निकला। सर्व सहमति से एक कमेटी बनाने का निर्णय लिया गया जो मुंशी-आयंगर कमिटी कहलायी। मुंशी-आयंगर कमिटी ने संपूर्ण अध्ययन कर संविधान सभा के सामने अपनी रिपोर्ट पेश की। रिपोर्ट में कहा गया कि भारत देश में एक राष्ट्रभाषा अभी स्वीकार नही किया जा सकता है। मुंशी-आयंगर कमिटी एक राजभाषा का प्रस्ताव लेकर आई और कहा कि हम 15 वर्षो तक हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार कर ये प्रयोग करेगे की हिंदी का विस्तार दक्षिण के राज्यो में भी हो। हिंदी के साथ अंग्रेज़ी को भी देश की दूसरी राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया। इसके बाद अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद ने अपना भाषण अंग्रेजी में दिया।
“मैं हिंदी का या किसी अन्य भाषा का विद्वान होने का दावा नहीं करता । मेरा यह दावा नहीं है कि किसी भाषा में मेरा कुछ अंशदान है। किंतु सामान्य व्यक्ति के समान मैं कह सकता हूं कि आज यह कहना संभव नहीं है कि भविष्य में हमारी उस भाषा का क्या रूप होगा जिसे आज हमने संघ के प्रशासन की भाषा स्वीकार किया है। हिंदी में विगत में कई-कई बार परिवर्तन हुए हैं और आज उसकी कई शैलियां हैं। पहले हमारा बहुत सा साहित्य ब्रज भाषा में लिखा गया था अब हिंदी में खड़ी बोली का प्रचलन है। मेरे विचार में देश की अन्य भाषाओं के संपर्क से उसका और भी विकास होगा। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि हिंदी देश की अन्य भाषाओं से अच्छी-अच्छी बातें ग्रहण करेगी तो उससे उन्नति होगी।“
15 साल के बाद क्या हुआ
1963 के आते-आते सरकारी कामकाज के लिए अंग्रेजी के प्रयोग का समय पूरा हो गया। ऐसे में अंग्रेजी को हटाने की मांग दोबारा जोर पकड़ने लगी। दक्षिणी राज्यों में इसके खिलाफ हिंसक प्रदर्शन हुए। फिर सरकार ने 1963 में ऑफिशियल लैंग्वेज एक्ट बनाया। जिसके तहत हिंदी के साथ अंग्रेजी को राजकीय भाषा के रूप में बरकरार रखने का प्रावधान किया गया। हालांकि, हिंदी को बढ़ावा देने पर जोर दिया गया, लेकिन कोर्ट, विधायी दस्तावेजों और राज्य-केंद्र के बीच संचार की भाषा अनिवार्य रूप से अंग्रेज़ी ही बनी रही। अभी तक ये सिलसिला बरकरार है।
बहरहाल, हिंदी भारत में करोड़ों लोगों की मातृभाषा है। हम लोगों के लिए तो रोजगार की भी भाषा है। हम हिंदी में सोचते भी हैं, हिंदी में बात करते हैं, काम करते हैं और प्रेम भी हिंदी में ही करते हैं क्योंकि हमारा मन हमसे हिंदी में ही बात करता है। लेकिन कटु सत्य ये है कि ऐसे बहुत से दरवाजे हैं दुनिया में जो सिर्फ ‘May I come in’ नहीं कह पाने की वजह से नहीं खुल पाते हैं।
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