भारत में जातिगत आंदोलन और उसके क्या प्रभाव है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

कई राजनीतिक दलों ने आरक्षित जातियों के भीतर उप-वर्गीकरण पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद एक नई भारतीय जाति जनगणना की मांग की।

  • दक्षिण एशियाई समाज में जाति को प्रायः केंद्रीय तत्त्व माना जाता है, ठीक उसी प्रकार जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका में नस्ल, ब्रिटेन में वर्ग और इटली में गुटबाज़ी को केंद्रीय तत्त्व माना जाता है।
  • भारत में राष्ट्रीय स्तर पर अंतिम जाति जनगणना ब्रिटिश शासन के दौरान वर्ष 1931 में हुई थी।

भारत में जातिगत आंदोलनों का इतिहास क्या है?

  • ऐतिहासिक संदर्भ: 19वीं सदी के अंत तक जाति भारतीयों के दैनिक जीवन का केंद्रीय हिस्सा बन गयी थी।
    • जाति की परिभाषा प्रायः शुद्धता एवं अपवित्रता की ब्राह्मणवादी धारणाओं के इर्द-गिर्द घूमती रही है और प्रायः निम्न जातियों द्वारा ऐसी धारणाओं का आक्रामक विरोध किया गया है।
    • जातियाँ ‘सामाजिक सीमाओं में बँधी रहीं’ तथा उनके बीच अंतर्जातीय विवाहों के कारण ‘सामाजिक गतिशीलता’ निषिद्ध रही।
  • औपनिवेशिक कानून: औपनिवेशिक प्रशासन ने उत्तर भारत में आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871 जैसे कानून लाए और बाद में पूर्व में बंगाल (1876) तथा दक्षिण में मद्रास (1911) प्रेसिडेंसियों तक इसका विस्तार किया।
    • इसने औपनिवेशिक राज्य को संपूर्ण समुदाय को अपराधी घोषित करने का अधिकार दिया।
    • यह पदनाम प्रायः कुछ जाति या जनजातीय समूहों के विषय में पहले से विद्यमान पूर्वाग्रहों पर आधारित होता था, जो नकारात्मक रूढ़ियों को मज़बूत करता था तथा कानून के माध्यम से उन्हें संस्थागत बनाता था।
    • उन्हें जाति और वर्ण के आधार पर इतना हीन माना जाता था कि उन्हें औपनिवेशिक सेना तथा राज्य तंत्र में नियुक्त नहीं किया जा सकता था।
    • यह अधिनियम वर्ष 1949 तक जारी रहा और इसके स्थान पर आभ्यासिक अपराधी अधिनियम, 1952 (Habitual Offenders Act, 1952) लागू हुआ।
  • फूट डालो और राज करो की नीति: स्पष्ट रूप से उच्च वर्ग के हिंदू तथा मुस्लिम अभिजात वर्ग के नेतृत्व में हुए सन् 1857 के विद्रोह ने ब्रिटिश अधिकारियों को भारतीय सेना में विविधता एवं औपनिवेशिक कार्यालयों की अधिक विस्तृत व्यवस्था पर ज़ोर देने के लिये विवश किया। परिणामस्वरुप इन भूमिकाओं में एक ही समुदाय के प्रभुत्व की उपस्थिति को कम करने में मदद मिली।
    • इस प्रकार जाति प्रांतीय शिक्षा और सरकारी सेवा में उम्मीदवारों की रोज़गार पात्रता में एक महत्त्वपूर्ण मानदंड के रूप में उभरी।
    • जाति को राष्ट्रवादी भावनाओं के उद्भव में एक संभावित अवरोध के रूप में पहचाना गया और इसने उपमहाद्वीप में ब्रिटिश शासन को कायम रखने में मदद की।

जातिगत आंदोलनों में प्रमुख व्यक्ति कौन थे?

  • ज्योतिबा फुले: वे 19वीं सदी के मराठी कार्यकर्त्ता और सत्यशोधक समाज के संस्थापक थे तथा आधुनिक भारत के पहले जाति-विरोधी विचारकों में से एक थे।
    • उन्होंने गुलामगिरी पुस्तक (वर्ष 1873) लिखी, जिसमें उन्होंने भारत में अछूतों’ की दुर्दशा का विस्तार से वर्णन किया और भारतीय समाज में समानता की भावना लाने के लिये ईसाई मिशनरियों, मुस्लिम राजाओं एवं ब्रिटिश सरकार की प्रशंसा की।
    • उन्होंने जाति-विरोधी आंदोलनों के शब्दकोश में दलित’ (‘अस्पृश्य या अछूत’ या टूटे हुए लोग) शब्द भी शामिल किया।
    • उन्होंने आर्यन आक्रमण सिद्धांत के अपने संस्करण को प्रचारित किया और मनुस्मृति जैसे ग्रंथों को देश के मूल निवासियों एवं जनजातियों के प्रति शोषक व दमनकारी ग्रंथ बताया।
    • फुले द्वारा जाति-विरोधी विचारों को संगठित करने से बाद में बी.आर. अंबेडकर को प्रेरणा मिली।
  • बी.आर. अंबेडकर: उन्होंने ‘हमें एक शासक समुदाय बनना चाहिये’ के नारे के साथ दलितों और शोषित वर्गों के सदस्यों को संगठित किया।
    • वर्ष 1927 में उन्होंने महाराष्ट्र के महाड़ में एक सार्वजनिक तालाब से जल भरने के ‘अछूतों’ के अधिकार, जिसे विशेषाधिकार प्राप्त जातियों के नेताओं द्वारा अस्वीकार कर दिया गया था, के लिये आंदोलन किया और महाड़ सत्याग्रह का नेतृत्व किया।
    • दिसंबर 1927 में अंबेडकर ने सार्वजनिक रूप से मनुस्मृति को आग लगा दी, जिसे जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता की प्रथा को बनाए रखने के स्रोत के रूप में देखा गया था।
    • वर्ष 1930 में उन्होंने अखिल भारतीय दलित वर्ग संघ की स्थापना की।
    • औपनिवेशिक प्रशासन से पहले अंबेडकर और अंबेडकरवादियों ने दलितों एवं वंचित वर्गों के लिये पृथक निर्वाचन क्षेत्र हेतु आंदोलन किया। बी.आर. अंबेडकर की अन्य पहलों में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (1936)अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ (1942) आदि शामिल थे।
  • एम.सी. राजा: 20वीं सदी में समग्र भारत में दलित आंदोलनों का पहला महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम वर्ष 1926 में नागपुर में आयोजित अखिल भारतीय दलित वर्ग नेताओं का सम्मेलन था।
    • इसके परिणामस्वरूप अखिल भारतीय दलित वर्ग एसोसिएशन का गठन हुआ, जिसके अध्यक्ष राव बहादुर एम.सी. राजा और उपाध्यक्ष अंबेडकर थे।
  • पेरियार: मद्रास प्रेसीडेंसी में इरोड वेंकटप्पा रामासामी (अथवा पेरियार) ने ब्राह्मणवाद विरोधी आत्म-सम्मान आंदोलन की स्थापना की।
    • इस आंदोलन ने वर्ष 1939 में पेरियार का जस्टिस पार्टी का नेता बनने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • महात्मा गांधी: दलित वर्गों के लिये पृथक निर्वाचन क्षेत्रों (सांप्रदायिक परिनिर्णय के तहत) की घोषणा के बाद गांधीजी ने हिंदू समुदाय के अंतर्गत कथित ‘विभाजन’ के विरोध में आमरण अनशन करने का निर्णय लिया।
    • गांधी और अंबेडकर ने पूना पैक्ट 1932 पर हस्ताक्षर किये, जिसके तहत हिंदु धर्म के सभी व्यक्तियों के लिये संयुक्त निर्वाचक मंडल का प्रावधान किया गया तथा दलित वर्ग के व्यक्तियों को सांप्रदायिक परिनिर्णय में प्राप्त सीटों की लगभग दोगुनी संख्या में आरक्षण प्रदान किया।
    • वर्ष 1932 में गांधी ने अस्पृश्यता के उन्मूलन और जाति उत्थान के लिये हरिजन सेवक संघ की स्थापना की, किंतु गांधी के वर्णाश्रम मत पर अंबेडकर असहमत थे।
  • ब्रिटिश नीति में परिवर्तन: उपमहाद्वीप के विभाजन के आसन्न कारकों को देखते हुए अंबेडकरवादी आंदोलन धीरे-धीरे भारत में संवैधानिक ढाँचे के निर्माण की आवश्यकता से प्रभावित हुआ।
    • 1945 तक, जब एकीकृत भारत को सत्ता का हस्तांतरण होना था, औपनिवेशिक सरकार ने जाति को अराजनीतिक बनाने का निर्णय लिया।

गांधी और अंबेडकर की विचारधाराओं में क्या अंतर है?

पहलू महात्मा गांधीबी.आर. अंबेडकर 
स्वतंत्रता पर विचारव्यक्तियों को स्वतंत्रता सत्ता से छीन कर प्राप्त होगी।शासकों द्वारा स्वतंत्रता प्रदान किये जाने की अपेक्षा।
लोकतंत्रव्यापक लोकतंत्र पर संशयपूर्ण मत; सरकार की सीमित शक्ति और स्थानीय स्वशासन को प्राथमिकता।दमितों पर होने वाले अत्याचारों के निवारण और उनकी उन्नति के साधन के रूप में संसदीय लोकतंत्र का समर्थन।
राजनीतिक विचारधाराअहिंसा और विचारधाराओं के व्यावहारिक विकल्पों में विश्वास।संस्थागत ढाँचे पर ज़ोर देने के साथ उदार विचारधारा की ओर झुकाव।
ग्राम व्यवस्था पर विचारसच्ची स्वतंत्रता के रूप में ‘ग्रामराज’ (ग्राम स्वशासन) का समर्थन किया।जाति और सामाजिक असमानताओं को बनाए रखने के लिये ‘ग्रामराज’ की आलोचना की।
सामाजिक सुधार के प्रति दृष्टिकोणपरिवर्तन के लिये नैतिक अनुनय और अहिंसक तरीकों का इस्तेमाल किया गया।कानूनी और संवैधानिक सुधारों पर ज़ोर दिया तथा बल प्रयोग का विरोध किया।
अस्पृश्यता पर विचारअस्पृश्यता को एक नैतिक मुद्दे के रूप में संबोधित किया, तथा ‘हरिजन’ शब्द को बढ़ावा दिया।गांधीजी के दृष्टिकोण की आलोचना की, अस्पृश्यता को एक प्रमुख मुद्दा माना, जिसे कानूनी तरीकों से हल किया जाना चाहिये।
धर्म और जाति व्यवस्थाउनका मानना ​​था कि जाति व्यवस्था वर्ण व्यवस्था का पतन है, न कि धार्मिक आज्ञापन का।जाति प्रथा और अस्पृश्यता को बनाए रखने के लिये हिंदू धर्मग्रंथों की निंदा की।
कानूनी बनाम नैतिक दृष्टिकोणमुद्दों को सुलझाने के लिये आचारिक और नैतिक दृष्टिकोण पर ज़ोर दिया गया।सुधार के लिये कानूनी और संवैधानिक तरीकों को प्राथमिकता दी गयी।

 

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