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भारत की खाद्य प्रणाली के समक्ष विद्यमान चुनौतियां एवं अवसर क्या है?

भारत की खाद्य प्रणाली के समक्ष विद्यमान चुनौतियां एवं अवसर क्या है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

16 अक्तूबर को विश्व खाद्य दिवस’ मनाया गया, लेकिन हम खाद्य को एक प्रणाली या तंत्र के रूप में कम ही देखते हैं। खाद्य प्रणाली की चुनौतियों को भारत से बेहतर कोई देश नहीं समझ सकता, जिसे दुनिया की सबसे बड़ी आबादी का पेट भरना पड़ता है। जबकि खाद्य प्रणाली का प्राथमिक लक्ष्य सभी के लिये पोषण सुरक्षा (nutrition security) सुनिश्चित करना है, इसे सतत या संवहनीय रूप से तभी प्राप्त किया जा सकता है जब खाद्य उत्पादक ऐसे उपयुक्त आर्थिक प्रतिलाभ प्राप्त करें जो समय के साथ प्रत्यास्थी (resilient) सिद्ध हो।

यह प्रत्यास्थता हमारे प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र की प्रत्यास्थता से जटिल रूप से जुड़ी हुई है क्योंकि कृषि के लिये सबसे बड़े आदान या इनपुट—जैसे मृदा, जल एवं जलवायु दशाएँ, प्राकृतिक संसाधन ही हैं। आजीविका और पर्यावरण सुरक्षा के साथ पोषण सुरक्षा के इस अंतर्संबंध को महत्त्व देना हमारी खाद्य प्रणाली को वास्तव में संवहनीय बनाने के लिये आवश्यक है।

पोषण सुरक्षा का क्या महत्त्व है?

  • स्वास्थ्य और पोषण: पोषण सुरक्षा कुपोषण और इससे जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं—जैसे स्टंटिंग, संज्ञानात्मक अपंगता एवं रोग संवेदनशीलता को रोककर व्यक्तियों के स्वास्थ्य एवं सेहत में सुधार करती है।
    • 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों में लगभग 45% मौतें कुपोषण से संबद्ध होती हैं।
  • आर्थिक स्थिरता: पोषण सुरक्षा व्यक्तियों और राष्ट्रों को अधिक उत्पादक बनने, आय उत्पन्न करने और व्यापार में भाग लेने में सक्षम बनाकर उनकी आर्थिक स्थिरता की वृद्धि करती है।
    • विश्व बैंक के एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि उत्पादकता की हानि और मानव पूंजी के संदर्भ में कुपोषण की वैश्विक लागत प्रति वर्ष 3.5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर थी।
  • सार्वजनिक स्वास्थ्य और स्वास्थ्य देखभाल लागत में कमी: पोषण संबंधी सुरक्षा मधुमेह और हृदय रोग जैसी आहार-संबंधी बीमारियों को रोककर स्वास्थ्य देखभाल लागत को कम कर सकती है। इससे फिर स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों पर बोझ कम होता है।
    • कुल स्वास्थ्य व्यय (Total Health Expenditure- THE) में जेबी खर्च (Out-of-Pocket Expenditure- OOPE) की हिस्सेदारी लगभग 47% है।
  • निर्धनता उन्मूलन: यह सुनिश्चित करना कि लोगों को पौष्टिक भोजन मिले, निर्धनता उन्मूलन का एक साधन है। पोषण संबंधी सुरक्षा का अभाव निर्धनता चक्र (cycle of poverty) को बनाये रख सकता है, क्योंकि कुपोषण शैक्षिक प्राप्ति में बाधा उत्पन्न कर सकता है और आय-अर्जन क्षमता को कम कर सकता है।
  • सतत कृषि और पर्यावरण संरक्षण: पोषण सुरक्षा को बढ़ावा देने में प्रायः सतत कृषि अभ्यास भी शामिल होते हैं, जो पर्यावरण को संरक्षित करने और यह सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक हैं कि आने वाली पीढ़ियाँ भी अपनी पोषण संबंधी आवश्यकताओं को पूरा कर सकें।
  • जनसांख्यिकीय लाभांश को साकार करना: पोषण सुरक्षा जनसांख्यिकीय लाभांश (Demographic Dividend) को साकार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है; यह परिदृश्य  तब उत्पन्न होता है जब किसी देश की आबादी का एक बड़ा भाग कार्यशील आयु वर्ग में होता है। सुपोषित व्यक्तियों के उत्पादक होने और आर्थिक विकास में योगदान करने की अधिक संभावना होती है, इसलिये जनसांख्यिकीय लाभ का पूर्ण दोहन किया जाना चाहिये।
  • झटकों के प्रति प्रत्यास्थता: पोषण संबंधी सुरक्षा समुदायों और व्यक्तियों को आर्थिक, पर्यावरणीय एवं स्वास्थ्य संबंधी झटकों के प्रति अधिक प्रत्यास्थी बनने में मदद करती है। विविध और पौष्टिक आहार ग्रहण करने वाले लोगों को प्राकृतिक आपदाओं या स्वास्थ्य आपात स्थितियों जैसे विभिन्न संकटों का सामना करने और उनसे उबरने में मदद मिल सकती है।
    •  कोविड-19  महामारी ने खाद्य प्रणालियों की भंगुरता/संवेदनशीलता और कुपोषण एवं भुखमरी के प्रति वृहत आबादी की भेद्यता को उजागर कर दिया है। इसलिये, स्वस्थ भोजन तक पहुँच सुनिश्चित करना और आहार विविधता को बढ़ावा देना ऐसी महामारियों एवं इनके प्रभावों के विरुद्ध प्रत्यास्थता के निर्माण के लिये आवश्यक है।
  • मानव गरिमा और समता: पोषण सुरक्षा खाद्य को एक बुनियादी मानव अधिकार के रूप में चिह्नित कर मानवीय गरिमा और समता का सम्मान करती है जो सभी लोगों के लिये उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति या भौगोलिक स्थिति पर विचार किये बिना सुलभ होना चाहिये।
    • खाद्य या भोजन का अधिकार (right to food) एक कानूनी अधिकार है जिसे मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा (Universal Declaration on Human Rights) और आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा (International Covenant on Economic, Social and Cultural Rights- ICESCR) में भी मान्यता प्राप्त है।

भारत में पोषण सुरक्षा की स्थिति 

  • पोषण के मोर्चे पर भारत कुपोषण के दोहरे बोझ (double burden of malnutrition) का सामना कर रहा है।
    • एक ओर, पिछले कुछ वर्षों में व्यापक प्रगति के बावजूद भारतीय आबादी के एक बड़े भाग में पोषक तत्वों की कमी प्रदर्शित होती है।
    • राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2019-21 के अनुसार 35% बच्चे स्टंटिंग के शिकार हैं, जबकि 57% महिलाएँ और 25% पुरुष एनीमिया से पीड़ित हैं।
      • दूसरी ओर, असंतुलित आहार और गतिहीन जीवन शैली के कारण 24% वयस्क महिलाएँ और 23% वयस्क पुरुष मोटापे से ग्रस्त हैं।

पोषण सुरक्षा के समक्ष विद्यमान प्रमुख चुनौतियाँ 

  • कृषि की निम्न उत्पादकता:
    • उत्पादन के मामले में, सीमांत और छोटे किसानों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये कृषि आय अपर्याप्त है।
      • ‘ट्रांसफॉर्मिंग रूरल इंडिया फाउंडेशन’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, 68% से अधिक सीमांत किसान अपनी आय को गैर-कृषि गतिविधियों से पूरकता प्रदान करते हैं।
    • महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा/ MGNREGA) के तहत प्रदत्त श्रम और अन्य प्रकार के अस्थायी श्रम में कमी आ रही है जो आय विविधीकरण के लिये कौशल या अवसरों की कमी का संकेत देता है।
  • घटते प्राकृतिक संसाधन:
    • घटते प्राकृतिक संसाधन और बदलती जलवायु भारत के खाद्य उत्पादन को अत्यधिक असुरक्षित बना रही है।
    • वर्ष 2023 के मृदा स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, भारत में कृषियोग्य भूमि के लगभग आधे भाग में जैविक कार्बन—जो मृदा स्वास्थ्य का एक आवश्यक संकेतक होता है, की कमी हो गई है।
    • भूजल—जो सिंचाई का सबसे बड़ा स्रोत है, तेज़ी से घटता जा रहा है।
      • पंजाब जैसे राज्यों में 75% से अधिक भूजल आकलन स्थानों (groundwater assessment locations) का अत्यधिक दोहन किया गया है, जिससे कृषि आय की प्रत्यास्थता को खतरा पहुँच रहा है।
  • दोषपूर्ण खाद्य वितरण प्रणाली:
    • सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के माध्यम से अपर्याप्त खाद्य वितरण बढ़ती खाद्य असुरक्षा में योगदान देता है। लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (Targeted PDS- TPDS) दोषपूर्ण मानदंडों के कारण पात्र उम्मीदवारों को अपवर्जित कर देता है, जिससे APL या BPL के रूप में दोषपूर्ण वर्गीकरण की स्थिति बनती है। इसके परिणामस्वरूप खाद्यान्न उठाव में कमी आती है और निम्न गुणवत्तायुक्त अनाज एवं PDS दुकान की बदहाल सेवा के कारण स्थिति बदतर बन जाती है।
  • पोषण कार्यक्रमों की निगरानी का अभाव :
    • देश में कई योजनाएँ लाई गई हैं जो पोषण में सुधार लाने का लक्ष्य रखती हैं, लेकिन इन्हें ठीक से क्रियान्वित नहीं किया गया है।
    • उदाहरण के लिये, कई राज्य मध्याह्न भोजन योजना (MDMS) को प्रभावी ढंग से लागू करने में विफल रहे हैं।
  • अंतर-क्षेत्रीय समन्वय का अभाव :
    • सुसंगत खाद्य एवं पोषण नीतियों की कमी के साथ-साथ सरकार के विभिन्न मंत्रालयों—जैसे महिला एवं बाल स्वास्थ्य मंत्रालय, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, कृषि मंत्रालय, वित्त मंत्रालय आदि के बीच अंतर-क्षेत्रीय समन्वय की कमी ने समस्या को बढ़ा दिया है।
  • उपभोक्ता संलग्नता और मांग में बदलाव:
    • उपभोक्ता मांग को स्वस्थ एवं सतत आहार की ओर स्थानांतरित करने की आवश्यकता है। हमें ऐसे खाद्य विकल्पों को अपनाने की ज़रूरत है जो लोगों के लिये और हमारे ग्रह के लिये स्वास्थ्यवर्द्धक हो।
    • हम निगमों द्वारा उपयोग किये जा रहे दृष्टिकोण का पालन करते हुए आयातित की जाती जई/ओट्स या क्विनोआ की तरह ही भारत में स्थानीय रूप से उगाए जाने वाले मोटे अनाजों (millets) को लोकप्रिय बना सकते हैं।
    • नागरिक समाज और स्वास्थ्य समुदाय सोशल मीडिया इन्फ्लूएंसर्स के साथ साझेदारी का निर्माण कर लाखों लोगों के लिये स्वस्थ एवं संवहनीय उपभोग को आकार दे सकते हैं।
    • सार्वजनिक क्षेत्र PDSमध्याह्न भोजन, रेलवे खानपान, अर्बन कैंटीन और सार्वजनिक एवं संस्थागत खरीद के माध्यम से कम से कम 70% भारतीयों के उपभोग को बेहतर बनाने में मदद कर सकता है।
    • धार्मिक संस्थाएँ भी खाद्य विकल्पों को प्रभावित करने के रूप में योगदान दे सकती हैं, जैसा कि तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम् द्वारा किया जा रहा है।
      • तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम्—जो प्रतिदिन लगभग 70,000 लोगों को सेवा प्रदान करता है, अब प्राकृतिक रूप से उगाये गए उत्पादों की खरीद कर रहा है।
  • कृषक और सतत कृषि का समर्थन:
    • हमें किसानों को लाभकारी एवं पुनर्योजी कृषि अभ्यासों की ओर आगे बढ़ने का समर्थन करना चाहिये ताकि उनके लिये प्रत्यास्थी आय सुनिश्चित हो सके।
      • प्राकृतिक खेती पर राष्ट्रीय मिशन (National Mission on Natural Farming) इस दिशा में एक सकारात्मक कदम है, लेकिन सतत कृषि के लिये कुल वित्तपोषण कृषि बजट के 1% से भी कम है।
      • हमें विभिन्न कृषि-पारिस्थितिकी अभ्यासों—जैसे कि कृषि वानिकी, संरक्षण कृषि, परिशुद्ध खेती आदि के लिये ऐसी पहलों को व्यापक और विस्तारित करने की आवश्यकता है।
    • कृषि सहायता को इनपुट सब्सिडी से आगे बढ़ते हुए प्रति हेक्टेयर खेती के लिये किसानों को प्रत्यक्ष नकद सहायता देने की ओर केंद्रित होना चाहिये।
      • यह इनपुट के कुशल उपयोग को बढ़ावा देगा, साथ ही कृषि-पारिस्थितिकी अभ्यासों के फलने-फूलने के लिये समान अवसर प्रदान करेगा।
    • कृषि अनुसंधान और विस्तार सेवाओं को अपने बजट का एक हिस्सा सतत कृषि अभ्यासों पर ध्यान केंद्रित करने के लिये आवंटित करना चाहिये, जो किसानों को सतत कृषि के लिये आवश्यक ज्ञान एवं उपकरण प्रदान कर सकता है।
  • संवहनीय ‘फार्म-टू-फोर्क’ मूल्य शृंखला का निर्माण करना:
    • ग्रामीण आय बढ़ाने और यह सुनिश्चित करने के लिये कि किसानों को सृजित मूल्य का उचित हिस्सा प्राप्त हो, अधिक संवहनीय एवं समावेशी मूल्य शृंखला का निर्माण करना महत्त्वपूर्ण है।
    • मध्यस्थों और निगमों को किसानों से प्रत्यक्ष खरीद के लिये प्रोत्साहित करना—विशेष रूप से उन किसानों से जो संवहनीय एवं नैतिक अभ्यासों का पालन करते हैं, महत्त्वपूर्ण है।
      • ‘रेस्पोंसिबल सोर्सिंग’ (responsible sourcing) को बढ़ावा देने के लिये निष्पक्ष व्यापार सिद्धांतों जैसे प्रोत्साहनों को लागू किया जा सकता है।
      • ‘DeHaat’ और ‘Ninjacart’ जैसे विभिन्न नए एग्री-टेक उद्यम ऐसे ‘फार्म-टू-बायर लिंकेज’ को सक्षम कर रहे हैं।
    • किसान उत्पादक संगठनों (FPOs) को अन्य FPOs के साथ अपनी उपज का व्यापार करने की अनुमति देने से किसानों को अधिक मूल्य प्राप्त करने में मदद मिल सकती है, क्योंकि FPOs में शामिल किसान परिवार भी कृषि उत्पाद की खरीद करते हैं।
      • ओडिशा में कुछ FPOs पहले ही इस दृष्टिकोण से कार्य कर रहे हैं।
        • ओडिशा ऑर्गेनिक फार्मर्स एसोसिएशन (OOFA) जैविक उत्पादों के उत्पादन से संलग्न FPOs का एक संघ है। OOFA ओडिशा में अन्य FPOs के साथ-साथ भारत के अन्य राज्यों के FPOs के साथ जैविक उत्पादों का व्यापार करता है। इससे OOFA को अपने सदस्यों के उत्पादों के लिये बेहतर मूल्य पाने और व्यापक ग्राहक आधार तक पहुँचने में मदद मिली है।

निष्कर्ष

संपूर्ण खाद्य प्रणाली को स्थानांतरित करना कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। लेकिन चुनौती के पैमाने से हमारी महत्त्वाकांक्षाओं पर असर नहीं पड़ना चाहिये। यदि हम तेज़ी से कार्य करें तो भारत के पास शेष विश्व को यह दिखाने का एक अनूठा अवसर मौजूद है कि अपनी खाद्य प्रणाली को कैसे दुरुस्त किया जाए।

 

 

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