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हिमालय क्षेत्र में शहरीकरण के कारण पारिस्थितिकी चुनौतियाँ क्या है? - श्रीनारद मीडिया

हिमालय क्षेत्र में शहरीकरण के कारण पारिस्थितिकी चुनौतियाँ क्या है?

हिमालय क्षेत्र में शहरीकरण के कारण पारिस्थितिकी चुनौतियाँ क्या है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

एशिया के मध्य में स्थित हिमालय पर्वत शृंखला, जिसे प्रायः ‘विश्व की छत’ (Roof of the World) भी कहा जाता है, सदियों से अपनी अद्भुत सुंदरता और आकर्षण से मानव कल्पना को लुभाती रही है।

हालाँकि, इसके शांत मुखौटे के पीछे बढ़ती पर्यावरणीय चुनौतियों की एक कहानी छिपी हुई है। हाल के समय में हिमालय ने अभूतपूर्व और चिंताजनक चुनौतियों की एक शृंखला का सामना किया है जो उसके अस्तित्व को खतरे में डालती हैं।

जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से हिमनदों के पिघलने एवं मौसम के पैटर्न में बदलाव आने से लेकर बड़े पैमाने पर शहरीकरण और अस्थिर विकास अभ्यासों तक, हिमालयी क्षेत्र को तबाही की एक लहर का सामना करना पड़ रहा है, जिस पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है।

हिमालय को संवहनीय बनाए रखने वाले नाजुक संतुलन को समझना न केवल इस क्षेत्र के लिये चिंता का विषय बनकर उभरा है, बल्कि एक वैश्विक अनिवार्यता भी बन गया है। हिमालय की दुर्दशा पर वैश्विक स्तर पर तत्काल ध्यान देने और सहयोगात्मक प्रयास करने की आवश्यकता है। 

हिमालय की महत्ता:

  • सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्त्व: हिंदू, बौद्ध और जैन धर्म सहित विभिन्न संस्कृतियों एवं धर्मों द्वारा हिमालय को एक पवित्र और आध्यात्मिक केंद्र माना जाता है।
    • हिमालयी क्षेत्र कई प्रतिष्ठित तीर्थ स्थलों, मठों और मंदिरों का घर है और प्रायः ध्यान, आत्मज्ञान, आत्म-खोज आदि से संबद्ध किया जाता है।
  • जैव विविधता हॉटस्पॉट: हिमालयी क्षेत्र को विश्व के जैव विविधता हॉटस्पॉट में से एक माना जाता है और यह वैश्विक पारिस्थितिक संतुलन में योगदान देता है।
    • हरे-भरे वनों से लेकर अल्पाइन घास के मैदानों तक, इसके विविध पारिस्थितिक तंत्र पादप एवं जंतु प्रजातियों की एक समृद्ध विविधता को आश्रय देते हैं, जिनमें से कुछ इस क्षेत्र के लिये विशिष्ट हैं।
  • जल स्रोत: हिमालय के हिमनद (glaciers) और हिमक्षेत्र (snowfields) गंगासिंधुब्रह्मपुत्र और यांग्त्ज़ी जैसी प्रमुख नदियों के लिये जल स्रोत के रूप में कार्य करते हैं। ये नदियाँ दक्षिण एशिया में लाखों लोगों के जीवन एवं आजीविका में योगदान करती हैं।
    • इन नदियों का जल कृषि, जलविद्युत उत्पादन और अनुप्रवाह क्षेत्र में स्थित शहरी केंद्रों को सहारा देता है।
  • जलवायु विनियमन: हिमालय आसपास के क्षेत्रों और उससे परे भी जलवायु को विनियमित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वे मानसून पैटर्न को प्रभावित करते हैं जो भारत, नेपाल और बांग्लादेश जैसे देशों में जीवनदायिनी वर्षा लाते हैं।
    • हिमालय के हिमनद वैश्विक जलवायु परिवर्तन के संवेदनशील संकेतक भी हैं।
  • भू-वैज्ञानिक महत्त्व: हिमालय की उत्पत्ति इंडियन प्लेट और यूरेशियन प्लेट के बीच जारी टकराव का परिणाम है। इस भूवैज्ञानिक प्रक्रिया ने भूदृश्य को आकार दिया है और इस क्षेत्र में भूकंपीय गतिविधि को प्रभावित करना जारी रखा है।
    • हिमालय का अध्ययन पृथ्वी की विवर्तनिक शक्तियों के बारे में अंतर्दृष्टि प्रदान करता है और पर्वत निर्माण की गतिशीलता को समझने में वैज्ञानिकों की मदद करता है।

अनियंत्रित शहरीकरण का हिमालय पर प्रभाव:

  • दोषपूर्ण विकास: चमोली में भूस्खलन के बाद अवरुद्ध सड़कें, उत्तराखंड में जोशीमठ का धँसना, हिमाचल के चंबा में सड़क का धँसना आदि हिमालयी क्षेत्र में संस्थागत दोषपूर्ण विकास प्रतिमान का प्रतीक हैं।
    • इसरो (ISRO) के राष्ट्रीय सुदूर संवेदन केंद्र (National Remote Sensing Center) के एक अध्ययन से पता चला है कि रुद्रप्रयाग और टिहरी ज़िले देश के सबसे अधिक भूस्खलन प्रभावित ज़िले हैं। 
    • एक विशाल अवसंरचना परियोजना ‘चारधाम महामार्ग विकास परियोजना’ लाखों वृक्षों की कटाई, वृहत वन भूमि के अधिग्रहण और संवेदनशील नाजुक हिमालयी क्षेत्र की उपजाऊ ऊपरी मृदा की क्षति का कारण बनी है।
  • अनियमित पर्यटन: पर्यटन आर्थिक लाभ उत्पन्न कर सकता है, लेकिन अनियंत्रित पर्यटन स्थानीय संसाधनों और पारिस्थितिकी तंत्र पर दबाव भी डाल सकता है। पर्वतीय क्षेत्रों पर पर्यटन और ग्रामीण से शहरी प्रवास (rural-to-urban migration) का बोझ उनकी वहनीय क्षमता से अधिक दबाव डाल रहा है। 
    • अकेले 2022 में ही तीर्थयात्रियों सहित 100 मिलियन पर्यटकों ने उत्तराखंड की यात्रा की। विशेषज्ञ चेतावनी देते रहे हैं कि क्षेत्र की वहन क्षमता से अधिक अनियमित पर्यटन विनाशकारी प्रभाव उत्पन्न कर सकता है।
  • बढ़ता तापमान: हिमालय अन्य पर्वतमालाओं की तुलना में अधिक तीव्र गति से गर्म हो रहा है। भवन निर्माण में प्रबलित कंक्रीट (reinforced concrete) का बढ़ता उपयोग, जो पारंपरिक लकड़ी और पत्थर के प्रयोग को प्रतिस्थापित कर रहा हैहीट-आइलैंड प्रभाव (heat-island effect) उत्पन्न कर सकता है जिससे क्षेत्रीय तापन/वार्मिंग में और वृद्धि होगी।
  • सांस्कृतिक क्षरण: पारंपरिक हिमालयी समुदायों की विशिष्ट सांस्कृतिक प्रथाएँ और जीवनशैली रही हैं जो उनके प्राकृतिक परिवेश से निकटता से संबद्ध हैं। असंवहनीय शहरीकरण पारंपरिक ज्ञान, रीति-रिवाजों और सांस्कृतिक पहचान के क्षरण का कारण बन रहा है।

हिमालय से संबंधित पारिस्थितिकी चुनौतियाँ:

  • जलवायु परिवर्तन और हिमनदों का पिघलना: हिमालय जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है। बढ़ते तापमान के कारण ग्लेशियर तेज़ी से पिघल रहे हैं, जिससे अनुप्रवाह में नदियों में जल की उपलब्धता प्रभावित हो रही है। 
    • यह उन समुदायों के लिये उल्लेखनीय जोखिम पैदा करता है जो कृषि, पेयजल और जलविद्युत के लिये हिमनदों के पिघले जल पर निर्भर हैं।
  • ब्लैक कार्बन का संचय: ग्लेशियरों के पिघलने का सबसे बड़ा कारण वायुमंडल में ब्लैक कार्बन एरोसोल (black carbon aerosols) का उत्सर्जन है।
    • ब्लैक कार्बन प्रकाश का अधिक अवशोषण करता है और इंफ्रा-रेड विकिरण उत्सर्जित करता है जिससे तापमान बढ़ता है; इस प्रकार, हिमालयी क्षेत्र में ब्लैक कार्बन में वृद्धि ग्लेशियरों के तेज़ी से पिघलने में योगदान करती है।
    • गंगोत्री हिमनद पर काले कार्बन का जमाव बढ़ रहा है, जिससे इसके पिघलने की दर बढ़ रही है। गंगोत्री सबसे तेज़ी से सिकुड़ता हिमनद भी है।
  • प्राकृतिक आपदाएँ: हिमालय युवा व वलित पर्वतमाला है जिसका अर्थ है कि वे अभी भी ऊपर की ओर बढ़ रही है और विवर्तनिक गतिविधियों (tectonic activities) के लिये प्रवण है। इससे यह क्षेत्र भूस्खलन, हिमस्खलन और भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशील हो जाता है।
    • जलवायु परिवर्तन इन घटनाओं की आवृत्ति और गंभीरता को बढ़ा सकता है, जिससे जीवन की हानि, संपत्ति की क्षति और अवसंरचना में व्यवधान की स्थिति बन सकती है।
  • मृदा अपरदन और भूस्खलन: वनों की कटाई, निर्माण गतिविधियाँ और अनुपयुक्त भूमि उपयोग अभ्यासों से मृदा अपरदन एवं भूस्खलन का खतरा बढ़ जाता है। 
    • वनस्पति आवरण की हानि हिमालयी ढलानों को अस्थिर कर देती है, जिससे वे भारी वर्षा या भूकंपीय घटनाओं के दौरान अपरदन/कटाव के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं।
  • आक्रामक प्रजातियों का विकास: तापमान वृद्धि के साथ आक्रामक प्रजातियों (Invasive Species) के लिये नए पर्यावास उपलब्ध हो जाते हैं, जो हिमालयी क्षेत्र की वनस्पतियों एवं जीवों पर हावी हो सकते हैं। 
    • आक्रामक प्रजातियाँ पारिस्थितिक तंत्र के नाजुक संतुलन को बाधित करती हैं और स्थानीय प्रजातियों के अस्तित्व को खतरे में डालती हैं।

हिमालयी क्षेत्र की सुरक्षा से संबंधित सरकारी पहलें: 

  • सुस्थिर हिमालयी पारिस्थितिक तंत्र हेतु राष्ट्रीय मिशन (National Mission on Sustaining Himalayan Ecosystem) 
    • इसे वर्ष 2010 में लॉन्च किया गया था और यह 11 राज्यों (हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम, सात पूर्वोत्तर राज्य एवं पश्चिम बंगाल) और 2 केंद्रशासित प्रदेशों (जम्मू-कश्मीर एवं लद्दाख) को दायरे में लेता है।
    • यह जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना (National Action Plan on Climate Change- NAPCC) के तहत क्रियान्वित आठ मिशनों में से एक है।
  • सिक्योर हिमालय परियोजना (SECURE Himalaya Project):
    • यह वैश्विक वन्यजीव कार्यक्रम (Global Wildlife Program) के ‘सतत विकास के लिये वन्यजीव संरक्षण और अपराध रोकथाम पर वैश्विक साझेदारी’ (Global Partnership on Wildlife Conservation and Crime Prevention for Sustainable Development)  वैश्विक वन्यजीव कार्यक्रम) का एक भाग है, जो वैश्विक पर्यावरण सुविधा (Global Environment Facility- GEF) द्वारा वित्तपोषित है।
    • यह उच्च हिमालयी पारिस्थितिक तंत्र में अल्पाइन चरागाहों और वनों के सतत प्रबंधन को बढ़ावा देता है।
  • मिश्र समिति रिपोर्ट 1976: 
    • एम.सी मिश्र (गढ़वाल क्षेत्र के तत्कालीन कमिश्नर) की अध्यक्षता में गठित समिति ने जोशीमठ में भूमि धँसाव पर अपने निष्कर्ष प्रस्तुत किये। 
    • समिति ने इस क्षेत्र में भारी निर्माण कार्य, सड़क मरम्मत एवं अन्य निर्माण के लिये बोल्डर हटाने हेतु विस्फोट करने या खुदाई करने और पेड़ों की कटाई पर प्रतिबंध लगाने की सिफ़ारिश की।

हिमालयी पारिस्थितिक तंत्र की सुरक्षा के लिये अन्य उपाय:

  • GLOFs के लिये NDMA दिशानिर्देश: अनियमित पर्यटन की समस्या को नियंत्रित करने के लिये राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (National Disaster Management Authority-NDMA) ने नियमों की एक शृंखला की अनुशंसा की है जो एक बफ़र ज़ोन का निर्माण करेगी और हिमानी झील के फटने से उत्पन्न बाढ़ (Glacial Lake Outburst Floods- GLOFs) के प्रवण क्षेत्रों और आस-पास के क्षेत्रों में पर्यटन को प्रतिबंधित करेगी ताकि उन क्षेत्रों में प्रदूषण के पैमाने को कम किया जा सके।
  • सीमा-पार सहयोग: हिमालयी देशों को एक अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क का निर्माण करने की आवश्यकता है जो हिमनद झीलों आदि से उत्पन्न जोखिमों की निगरानी करेगा और खतरों की पूर्व-चेतावनी देगा। यह पिछले दशक हिंद महासागर के आसपास स्थापित सुनामी चेतावनी प्रणालियों जैसा हो सकता है।
    • इन देशों को पर्वतमाला और वहाँ की पारिस्थितिकी के संरक्षण के बारे में ज्ञान की साझेदारी एवं प्रसार करना चाहिये।
  • शिक्षा और जागरूकता: यदि हिमालयी क्षेत्र के लोग अपने पर्वतीय परिवेश की भूवैज्ञानिक भेद्यता और पारिस्थितिक संवेदनशीलता के बारे में अधिक जागरूक होते तो वे निश्चित रूप से इसकी रक्षा के लिये कानूनों एवं विनियमों के अधिक अनुपालन के लिये बाध्य होते।
    • भारत और अन्य प्रभावित देशों को अपने स्कूली पाठ्यक्रम में हिमालय के भूविज्ञान और पारिस्थितिकी के आधारभूत ज्ञान को शामिल करना चाहिये। यदि छात्रों को अपने पर्यावरण के बारे में शिक्षण प्रदान किया जाए तो वे ज़मीन से अधिक जुड़ाव महसूस करेंगे और इसके बारे में अधिक जागरूक होंगे।
  • स्थानीय स्वशासन की भूमिका: हिमालयी राज्यों के नगर निकायों को भवन-निर्माण की मंज़ूरी देते समय अधिक सक्रिय भूमिका निभाने की आवश्यकता है; जलवायु परिवर्तन की उभरती चुनौतियों से निपटने के लिये भवन निर्माण संबंधी नियमों को अद्यतन करने की आवश्यकता है।
    • आपदा प्रबंधन विभागों को अपने दृष्टिकोण को अभिनव रुख प्रदान करने और बाढ़ की रोकथाम एवं पूर्व-तैयारियों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है
  • अन्य महत्त्वपूर्ण कदम: 
    • आपदा के पूर्वानुमान और स्थानीय आबादी एवं पर्यटकों को सचेत करने के लिये पूर्व-चेतावनी और बेहतर मौसम पूर्वानुमान प्रणाली का होना। 
    • क्षेत्र की नवीनतम स्थिति की समीक्षा करना और ऐसी संवहनीय योजना तैयार करना जो संवेदनशील क्षेत्र की विशिष्ट आवश्यकताओं एवं जलवायु प्रभावों का ध्यान रखती हो।
    • वाणिज्यिक पर्यटन के प्रतिकूल प्रभावों पर संवाद शुरू करना और पारिस्थितिक पर्यटन (ecotourism) को बढ़ावा देना।
    • किसी भी परियोजना के कार्यान्वयन से पहले विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (DPR), पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) और सामाजिक प्रभाव आकलन (SIA) जारी करना। 
    • मौजूदा बाँधों की संरचनात्मक स्थिरता में सुधार के लिये उन्हें उन्नत करना और बाढ़ की घटनाओं के बाद नियमित निगरानी को प्राथमिकता देना। 
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