अंतर्राज्यीय जल विवादों को सुलझाने में प्रमुख चुनौतियां क्या है?

अंतर्राज्यीय जल विवादों को सुलझाने में प्रमुख चुनौतियां क्या है?

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारत जैसे विविधतापूर्ण और बड़ी आबादी वाले देश में अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद बार-बार उत्पन्न होने वाली चुनौती रही है, जिससे विभिन्न क्षेत्रों के बीच तनाव बढ़ रहा है और प्रगति में बाधा आ रही है। ये विवाद केवल राजनीति तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि प्रायः सामाजिक जीवन और विमर्श में भी फैल जाते हैं। इस परिदृश्य में इस मुद्दे का स्थायी समाधान ढूँढ़ना आवश्यक हो गया है जो जल संसाधनों के उपयोग में देरी, लागत में वृद्धि और कभी-कभी विधि-व्यवस्था की समस्याओं का कारण बनता है।

नदी जल का न्यायसंगत बँटवारा न केवल समुदायों और कृषि की तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये आवश्यक है बल्कि सामंजस्यपूर्ण अंतर्राज्यीय संबंधों और सतत् विकास को बढ़ावा देने के लिये भी महत्त्वपूर्ण है।

भारत में अंतर्राज्यीय जल विवादों का वर्तमान परिदृश्य:  

  • विवाद में शामिल राज्य और नदियाँ: 
    • हाल ही में कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच पेन्नैयार नदी विवाद चर्चा में रहा। इसके बाद महादयी नदी विवाद पुनः चर्चा में आया जो लंबे समय से कर्नाटक और गोवा के बीच विवाद का विषय रहा है।
    • सतलुज-यमुना लिंक नहर, कृष्णा जल विवाद (आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र और कर्नाटक), महानदी जल विवाद (ओडिशा और छत्तीसगढ़) और कावेरी जल विवाद (तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक और पुडुचेरी ) जैसे अन्य कई जल विवाद प्रायः ख़बरों में आते रहते हैं।
  • जल से संबंधित संवैधानिक प्रावधान: 
    • जल (यानी जल आपूर्ति, सिंचाई, नहर, जल निकासी, तटबंध, जल भंडारण और जल विद्युत) राज्य सूची (State List) में शामिल विषय है।
    • संघ सूची (Union List), केंद्र सरकार को संसद द्वारा घोषित सीमा तक अंतर्राज्यीय नदियों/घाटियों को विनियमित/विकसित करने का अधिकार प्रदान करती है।
    • अनुच्छेद 262 के अनुसार, अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद (inter-state river water disputes- ISRWD) के मामले में संसद विधि द्वारा निम्नलिखित के लिये उपबंध कर सकती है:
      • किसी भी विवाद के अधिनिर्णयन के लिये
      • किसी अंतर्राज्यीय नदी/घाटी के जल के वितरण/नियंत्रण के लिये
      • कि कोई भी न्यायालय ऐसे किसी भी विवाद या शिकायत के संबंध में क्षेत्राधिकार का प्रयोग नहीं करेगा।
  • अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद (ISRWD) अधिनियम, 1956: इस अधिनियम के तहत यदि विवाद में संलग्न राज्य बातचीत से मुद्दे को हल करने में सक्षम नहीं हैं तो केंद्र ISRWD को हल करने के लिये एक न्यायाधिकरण (tribunal) का गठन करता है। 
    • सरकारिया आयोग की प्रमुख अनुशंसाओं को शामिल करने के लिये इसे वर्ष 2002 में संशोधित किया गया।  

ISRWD न्यायाधिकरणों के प्रभावी कार्यकरण की राह की चुनौतियाँ:  

  • गठन संबंधी चुनौतियाँ: ISRWD के निर्णय के लिये एक न्यायाधिकरण का गठन तभी किया जाता है जब इसके लिये केंद्र सहमत हो। 
    • वर्तमान में सभी पक्षों के लिये स्वीकार्य जल डेटा की अनुपस्थिति के कारण अधिनिर्णय के लिये आधार रेखा निर्धारित करना कठिन हो गया है।
  • वर्तमान तंत्र से संलग्न समस्याएँ: इन न्यायाधिकरणों के वर्तमान तंत्र में ISRWD न्यायाधिकरण के निर्णय को लागू करने में लंबी देरी और गैर-अनुपालन जैसी समस्याएँ मौजूद हैं।
    • भारत में गोदावरी और कावेरी जल विवादों जैसे विवादों को समाधान पाने में लंबी देरी का सामना करना पड़ा है।
    • इसके अलावा, प्रायः संलग्न पक्षकार न्यायाधिकरण के निर्णय से संतुष्ट नहीं होते हैं और सर्वोच्च न्यायालय के पास पहुँच जाते हैं, जिससे वाद/मुक़दमेबाज़ी के एक और दौर का आरंभ हो जाता है।
  • वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव: व्यापक रूप से माना जाता है कि अधिनिर्णय ISRWD को निपटाने का उपयुक्त तरीका नहीं है। ऐसे कई विवादों में विधि के प्रश्न शामिल नहीं होते, बल्कि जल विज्ञान, पर्यावरण, इंजीनियरिंग, कृषि, जलवायु, समाजशास्त्र आदि के दायरे में आने वाले विषय शामिल होते हैं। 
    • इस प्रकार, एक और पहलू जिसकी इन न्यायाधिकरणों में कमी है, वह है विवादों को वैज्ञानिक तरीके से निपटाना। 
  • ISRWD के समाधान की राह की अन्य चुनौतियाँ: 
    • डेटा साझेदारी और विवाद में संलग्न राज्यों के बीच डेटा की विसंगतियाँ जैसी चुनौतियाँ भी प्रायः मौजूद होती हैं। 
    • राजनीतिक दल प्रायः इन विवादों का राजनीतिकरण कर देते हैं जिससे मुद्दे पर निष्पक्षता से विचार करना और सर्वसम्मति-आधारित समाधान ढूँढ़ना कठिन हो जाता है।
    • जनसंख्या वृद्धि, शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण जल की बढ़ती मांग जल संसाधनों के लिये राज्यों के बीच प्रतिस्पर्द्धा को तेज़ करती है।
    • जल एक अत्यधिक भावनात्मक मुद्दा है; लोगों के विरोध और सार्वजनिक प्रदर्शन अधिकारियों पर कठोर रुख अपनाने का दबाव बढ़ा सकते हैं, जिससे समाधान प्रक्रिया में बाधा आ सकती है।

जल विवादों को सुलझाने के लिये वैश्विक स्तर पर उपलब्ध नियम:

  • हेलसिंकी नियम (Helsinki Rules) 1966: 
    • व्यापक रूप से अनुपालित हेलसिंकी नियम के अनुच्छेद IV में अंतर्राष्ट्रीय अपवाह बेसिन के जल के न्यायसंगत उपयोग के बारे में उपबंध किया गया है। 
    • नियमों के अनुसार, ‘‘प्रत्येक बेसिन राज्य, अपने क्षेत्र के भीतर, एक अंतर्राष्ट्रीय अपवाह बेसिन के जल के लाभकारी उपयोग के संबंध में उचित और न्यायसंगत हिस्सेदारी का हकदार है।’’
    • हालाँकि, हेलसिंकी नियम का दायरा अंतर्राष्ट्रीय अपवाह बेसिन और इससे संबंधित भूजल स्रोतों तक ही सीमित था।
  • जल संसाधन पर बर्लिन नियम (Berlin Rules on Water Resources), 2004: 
    • ये नियम हेलसिंकी नियमों पर अधिभावी हुए और इन्होने राष्ट्रों के भीतर सभी ताज़े जल स्रोतों के उचित प्रबंधन; जलवायु संबंधी मुद्दे; पर्यावरणीय क्षति को न्यूनतम करने; अत्यंत महत्त्वपूर्ण मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति को प्राथमिकता देने और पर्याप्त मात्रा में सुरक्षित पेयजल तक पहुँच के व्यक्ति के अधिकार आदि पर बल दिया।
  • नोट:
    • सर्वोच्च न्यायालय ने लंबे समय से जारी कावेरी जल विवाद पर कावेरी जल न्यायाधिकरण निर्णय, 2007 से उत्पन्न स्थिति पर वर्ष 2018 में निर्णय देते हुए चैंपियन रूल्स (Campione Rules)—जो सतही जल और भूजल के बीच संपर्क को चिह्नित करता है, के साथ ही हेलसिंकी नियमों और बर्लिन नियमों के सिद्धांतों का सहारा लिया था।  

संसाधनों के समान वितरण से किस प्रकार ISRWD का समाधान किया जा सकता है? 

  • संसाधनों के न्यायसंगत उपयोग को समझना:
    • स्थायी और स्वीकार्य समाधान पाने में प्राकृतिक संसाधनों का निष्पक्ष, न्यायसंगत और उचित उपयोग एक महत्त्वपूर्ण कारक होगा। 
      • हालाँकि निष्पक्ष, न्यायसंगत और उचित उपयोग की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है, इस अवधारणा का कार्यान्वयन कठिन सिद्ध हो सकता है।
      • इस तरह के उपयोग को आमतौर पर कई कारकों के मूल्यांकन द्वारा निर्धारित किया जा सकता है, जो संबद्ध क्षेत्रों में इतिहास, वर्तमान परिस्थितियों और सामाजिक स्थितियों पर निर्भर होते हैं।
    • न्यायसंगत हिस्सेदारी इस प्रकार तय की जानी चाहिये कि प्रत्येक पक्ष जल के उपयोग में अधिकतम लाभ प्राप्त करे और दूसरे पक्ष को न्यूनतम हानि पहुँचाए। 
  • हेलसिंकी नियमों से सहायता: हेलसिंकी नियमों में विचार किये जाने वाले प्रासंगिक कारकों का विस्तार से वर्णन किया गया है:
    • कारकों के पहले समूह में प्रत्येक बेसिन राज्य के भीतर जल निकासी क्षेत्र, बेसिन में जल विज्ञान और जलवायु शामिल हैं। वे प्रत्येक राज्य के भीतर बेसिन जल संसाधनों का निर्धारण करेंगे।
    • कारकों का दूसरा समूह प्रत्येक पक्ष द्वारा जल के उपयोग को निर्धारित करता है और पिछले एवं वर्तमान उपयोग तथा प्रत्येक बेसिन राज्य में बेसिन के जल पर निर्भर आबादी को दायरे में लेता है। 
    • वैकल्पिक तरीकों से आवश्यकताओं की पूर्ति करने की सापेक्ष लागत के साथ-साथ इन कारकों पर भी विचार किया जाना चाहिये।
  • पर्याप्त जल डेटा:
    • डेटा की अपर्याप्त उपलब्धता के कारण न्यायसंगत वितरण का वैज्ञानिक निर्धारण कठिन सिद्ध हो सकता है।
      • जैसा कि बर्लिन नियम 2004 में अंतर्निहित है, जल संसाधनों से संबंधित जानकारी का उपलब्ध होना न्यायसंगतता के लिये महत्त्वपूर्ण है।
      • इस प्रकार, सरकार को सभी प्रासंगिक जल संसाधन डेटा एकत्र करने और उसे सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराने के लिये कदम उठाने चाहिये। 
  • अधिकतम लाभ के लिये सर्वोत्तम अभ्यास: 
    • जल का न्यायसंगत उपयोग करते हुए अधितम लाभ प्राप्त करने और दूसरे पक्ष को न्यूनतम हानि पहुँचाने के लिये राज्यों को सर्वोत्तम जल उपयोग अभ्यासों को अपनाने के लिये प्रोत्साहित एवं प्रेरित करने की आवश्यकता है।
      • भूजल के अत्यधिक उपयोग को हतोत्साहित किया जाना चाहिये क्योंकि इससे नदियों के आधार प्रवाह में गिरावट आती है।
    • राज्यों को कृषि, औद्योगिक और घरेलू क्षेत्रों में जल उपयोग दक्षता बढ़ाने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
  • स्थानीय लोगों की भागीदारी: 

Leave a Reply

error: Content is protected !!