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स्थानीय चुनाव में हिंसा के क्या कारण है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

स्थानीय निकाय चुनाव एक स्वायत्त एवं संवैधानिक निकाय है जो किसी राज्य में शहरी स्थानीय निकायों और पंचायतों के चुनाव कराने के लिये उत्तरदायी है। राज्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति राज्य के राज्यपाल द्वारा की जाती है और उसे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के लिये निर्दिष्ट आधारों और रीति के अलावा अन्य किसी प्रकार से उसके पद से नहीं हटाया जा सकता है। राज्य चुनाव आयोग यह सुनिश्चित करता है कि चुनाव स्वतंत्र, निष्पक्ष एवं पूर्वाग्रहरहित तरीके से आयोजित किये जाएँ तथा वह मतदाता सूची को अद्यतन करने और आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct- MCC) लागू करने में भी भूमिका निभाता है।

स्थानीय निकाय चुनाव भारत में लोकतंत्र के महत्त्वपूर्ण पहलू हैं, क्योंकि वे ज़मीनी स्तर पर लोगों को शासन एवं विकास गतिविधि में भागीदारी हेतु सशक्त बनाते हैं। हालाँकि, पश्चिम बंगाल जैसे कुछ राज्यों में इन चुनावों में राजनीतिक हिंसा और भयादोहन के दृष्टांत देखने को मिले हैं जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया और विधि के शासन को कमज़ोर करते हैं।

स्थानीय चुनाव में हिंसा के कारण और परिणाम 

  • कारण:
    • शक्ति और संसाधनों के लिये प्रतिस्पर्द्धा:
      • जब चुनावों को एक ‘ज़ीरो-सम गेम’ के रूप में देखा जाता है, जहाँ विजेता को सब कुछ प्राप्त होता है और पराजित को कुछ भी नहीं मिलता, तो फिर सब कुछ दाँव पर लगा होता है और हिंसा की प्रेरणा प्रबल होती है। इससे फिर राजनीतिक विरोधियों, समर्थकों या चुनाव अधिकारियों को धमकी देने, उनके उत्पीड़न या हत्या करने जैसी स्थिति बन सकती है।
    • जातीय या धार्मिक ध्रुवीकरण:
      • जब चुनाव जातीय या धार्मिक आधार पर लड़े जाते हैं तो वे पहले से मौजूद आपसी दरारों और शिकायतों को बढ़ा सकते हैं तथा कुछ समूहों के लिये अस्तित्व संबंधी खतरे की भावना उत्पन्न कर सकते हैं।
      • ये विद्वेषपूर्ण भाषण (Hate Speech), भेदभाव या सांप्रदायिक झड़पों के कारण बन सकते हैं।
    • कमज़ोर संस्थाएँ और विधि का शासन:
      • जब चुनाव सुप्रबंधित, पारदर्शी या विश्वसनीय नहीं होते हैं तो वे चुनावी प्रक्रिया और इसके परिणाम में भरोसे एवं वैधता को कमज़ोर कर सकते हैं
      • इससे पराजित पक्ष द्वारा विरोध प्रदर्शन, दंगे या परिणामों को अस्वीकार करने की स्थिति बन सकती है।
    • संगठित हिंसा के अन्य रूप:
      • जब चुनाव ऐसे परिदृश्यों में आयोजित होते हैं जब गृह युद्ध, विद्रोह, आतंकवाद या आपराधिक गतिविधियों की स्थिति हो तो वे हिंसा के इन रूपों से प्रभावित हो सकते हैं या नई तरह की हिंसा को प्रेरित कर सकते हैं।
      • इससे चुनावी प्रक्रिया या मतदाताओं के लिये व्यवधान, उनके भयादोहन या उन पर दबाव निर्माण की स्थिति बन सकती है।
  • परिणाम:
    • मानव अधिकारों और गरिमा का उल्लंघन:
      • राजनीतिक हिंसा पीड़ितों और उनके परिवारों के लिये शारीरिक क्षति, मनोवैज्ञानिक आघात, विस्थापन या मृत्यु का कारण बन सकती है।
    • चुनावी अखंडता और जवाबदेही को कमज़ोर करना:
      • राजनीतिक हिंसा लोगों की इच्छा को विकृत कर सकती है, मतदान प्रतिशत को कम कर सकती है अथवा भय या पक्षपात के रूप में मतदान व्यवहार को प्रभावित कर सकती है।
      • यह चुनावी विवादों की प्रभावी निगरानी, अवलोकन या न्यायनिर्णयन को भी रोक सकता है।
    • भरोसे और सामाजिक सामंजस्य की हानि:
      • राजनीतिक हिंसा चुनावी संस्थानों और निर्वाचित प्रतिनिधियों की प्रतिष्ठा एवं वैधता को नुकसान पहुँचा सकती है।
      • यह समाज में विभिन्न समूहों के बीच ध्रुवीकरण, आक्रोश या शत्रुता को भी बढ़ा सकती है।
    • विकास और स्थिरता के लिये बाधा:
      • राजनीतिक हिंसा आर्थिक गतिविधियों, सार्वजनिक सेवाओं या आधारभूत संरचना को बाधित कर सकती है।
      • यह असुरक्षा, अनिश्चितता या अस्थिरता उत्पन्न कर सकती है जो निवेश, विकास या सहयोग को बाधित कर सकती है।

हिंसा पर अंकुश लगाने में राज्य चुनाव आयोग की भूमिका

  • राजनीतिक हिंसा पर अंकुश लगाने में राज्य चुनाव आयोग (SEC) की भूमिका यह सुनिश्चित करने के रूप में प्रकट होती है कि चुनाव स्वतंत्र, निष्पक्ष और पूर्वाग्रहरहित तरीके से आयोजित किये जाएँ।
  • SEC के पास मतदाता सूची तैयार करने और पंचायतों एवं नगर निकायों के सभी चुनावों के संचालन के अधीक्षण, निर्देशन एवं नियंत्रण की शक्ति है।
  • SEC प्रत्येक चुनाव से पहले विभिन्न उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों द्वारा पालन किये जाने वाले आदर्श आचार संहिता को भी लागू करता है ताकि चुनावी प्रक्रिया की मर्यादा बनी रहे।
  • SEC बूथ कैप्चरिंग, धांधली, हिंसा और अन्य अनियमितताओं के मामले में चुनाव रद्द करने की भी शक्ति रखता है।
  • SEC से एक स्वतंत्र और निष्पक्ष संवैधानिक प्राधिकरण के रूप में कार्य करने की अपेक्षा की जाती है जो लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा करता है।

SEC के कार्यकरण में विद्यमान चुनौतियाँ 

  • स्वायत्तता का अभाव:
    • हालाँकि राज्य चुनाव आयोग ने विभिन्न अवसरों पर भारत के संविधान में निहित अपने कर्तव्यों का पालन करने की कोशिश की है, लेकिन उन्हें अपनी स्वायत्तता प्रकट कर सकने के लिये संघर्ष भी करना पड़ा है। उदाहरण के लिये:
    • महाराष्ट्र में राज्य चुनाव आयुक्त ने बलपूर्वक अभिव्यक्त किया था कि उनके पास महापौर, उप-महापौर, सरपंच और उप-सरपंच पदों के लिये चुनाव कराने की शक्ति होनी चाहिये ।
    • लेकिन राज्य विधानसभा ने उनके अधिकार क्षेत्र एवं शक्तियों के संबंध में कथित संघर्ष के मामले में उन्हें विशेषाधिकार के उल्लंघन का दोषी पाया और मार्च 2008 में दो दिनों के लिये जेल भेज दिया।
  • राज्य चुनाव आयुक्त के लिये सुरक्षा का अभाव:
    • हालाँकि राज्य चुनाव आयुक्त को उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के लिये निर्दिष्ट आधार एवं रीति के अतिरिक्त अन्य किसी तरीके से नहीं हटाने का उपबंध है (अनुच्छेद 243K(2)), लेकिन कई दृष्टांतों में इसका पालन नहीं किया गया है।
    • अपारमिता प्रसाद सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2007) मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि यदि राज्यपाल के पास नियम द्वारा कार्यकाल तय करने या निर्धारित करने की शक्ति है तो उन्हें कार्यकाल की अवधि बढ़ाने के लिये या उसे कम करने के लिये नियम में संशोधन करने की भी शक्ति प्राप्त है।
    • एक बार जब निर्धारित कार्यकाल समाप्त हो जाता है तो निवर्तमान राज्य चुनाव आयुक्त पद से हट जाता है और यह पद से हटाने के समान नहीं होता है।
  • राज्य चुनाव आयुक्तों के लिये गैर-समान सेवा शर्तें:
    • अनुच्छेद 243K(2) में कहा गया है कि कार्यकाल और नियुक्ति राज्य विधायिका द्वारा बनाई गई विधि के अनुसार निर्देशित की जाएगी और इस प्रकार प्रत्येक राज्य चुनाव आयुक्त एक पृथक राज्य अधिनियम द्वारा शासित होता है।
    • यह राज्यों को नियमों में एकतरफा तरीके से संशोधन करने की शक्ति देता है और यहाँ तक कि कई बार वे विधायी संवीक्षा को दरकिनार करने के लिये अध्यादेश का भी उपयोग करते हैं (जैसा कि हाल में आंध्र प्रदेश में दिखा)।

राज्य चुनाव आयोग को सशक्त करने के उपाय 

राज्य चुनाव आयोग को सशक्त करने से स्थानीय चुनावों की गुणवत्ता और विश्वसनीयता में सुधार लाने में मदद मिल सकती है, साथ ही राजनीतिक हिंसा को रोकने या कम करने में भी मदद मिल सकती है। राज्य चुनाव आयोग को सशक्त करने के कुछ संभावित उपाय निम्नलिखित हैं:

  • पर्याप्त संसाधन और कर्मी सुनिश्चित करना:
    • राज्य चुनाव आयोग के पास अपने कार्यों को प्रभावी ढंग से और कुशलता से पूरा करने के लिये पर्याप्त धन, कार्मिक, साधन और अवसंरचना होनी चाहिये।
    • राज्यपाल को राज्य चुनाव आयोग को ऐसे कर्मचारी उपलब्ध कराने चाहिये जो उसके कार्यों के निर्वहन के लिये आवश्यक हों।
  • स्वतंत्रता और जवाबदेही बढ़ाना:
    • राज्य चुनाव आयोग को किसी भी स्रोत से राजनीतिक हस्तक्षेप, दबाव या प्रभाव से मुक्त होना चाहिये।
    • राज्य चुनाव आयुक्त को उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के लिये निर्दिष्ट आधार एवं रीति के अलावा उसके पद से नहीं हटाया जाना चाहिये। राज्य चुनाव आयोग को अपने कार्यों एवं निर्णयों के लिये जनता और कानून के प्रति जवाबदेह होना चाहिये।
  • चुनावी प्रबंधन और विवाद समाधान की स्थिति में सुधार करना:
    • राज्य चुनाव आयोग को मतदाता पंजीकरण, मतदाता शिक्षा, मतदान व्यवस्था, गिनती और परिणामों की घोषणा जैसे चुनावी प्रबंधन के लिये सर्वोत्तम अभ्यासों एवं मानकों को अपनाना चाहिये।
    • राज्य चुनाव आयोग के पास चुनाव संबंधी विवादों, आक्षेपों एवं शिकायतों को समय पर और निष्पक्ष तरीके से हल करने के लिये एक प्रभावी तंत्र भी होना चाहिये।
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