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देश में प्रेस पर अंकुश लगाने के क्‍या है नियम? - श्रीनारद मीडिया

देश में प्रेस पर अंकुश लगाने के क्‍या है नियम?

देश में प्रेस पर अंकुश लगाने के क्‍या है नियम?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

लोकतांत्रिक समाज में सोशल मीडिया का प्रभाव व प्रसार बढ़ा है। कोरोना महामारी के दौरान सोशल मीडिया का दायरा और बढ़ा है। यह एक ऐसे माध्‍यम के रूप में उभरा है, जिसका असर सरकारों पर भी पड़ता है। दुनिया भर में सोशल मीडिया लोगों के लिए सरकार के कामकाज में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने एवं आवाज उठाने के लिए एक बेहतर प्लेटफार्म बनकर उभरा है।

इसके जरिए समकालीन मुद्दों पर चर्चा करना, किसी घटना के कारण एवं परिणामों पर चर्चा और नेताओं को जवाबदेह ठहराना आसान हो गया है। इसके अलावा कोरोना काल में यह देखा गया है कि सोशल मीडिया के जरिए आम नागरिक एक दूसरे की सहायता कर सकते हैं एवं संकट से निपटने में आधुनिक सरकारी प्रयासों के पूरक हो सकते हैं।

क्‍या है सोशल मीडिया का सकारात्‍मक प्रभाव

लोकतंत्र पर सोशल मीडिया का सकारात्मक प्रभाव है। यह डिजिटल लोकतंत्र का दौर है। लोकतांत्रिक मूल्‍य तभी विकसित हो सकते हैं, जब लोगों के पास अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता हो। इस तरह से सोशल मीडिया स्‍वतंत्रता के इन मंचों के माध्‍यम से डिजिटल लोकतंत्र की अवधारणा को मजबूत करता है। सोशल मीडिया एक ऐसे प्‍लेटफार्म के रूप में कार्य करता है, जहां अजेय प्रतीत होने वाली सरकारों पर भी सवाल उठाया जा सकता है।

सोशल मीडिया वोट बैंक को प्रभाव‍ित कर उनकी जवाबदेही तय कर सकता है। 21वीं सदी में सोशल मीडिया लोगों तक सूचना पहुंचाने का बड़ा माध्‍यम बनता जा रहा है। ट्यूनीशिया जैसे देशों में सोशल मीडिया ने ‘अरब स्प्रिंग’ में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसे मुक्ति पाने के लिए एक तकनीक के रूप में इस्तेमाल किया गया था।

सोशल मीडिया का नकारात्‍मक प्रभाव

1- सोशल मीडिया के नकारात्‍मक प्रभाव में सबसे अहम है कि वह राजनीतिक ध्रुवीकरण तेजी से बनाता है। सोशल मीडिया की सबसे आम आलोचनाओं में से एक यह है कि यह ईको चेंबर बनाता है। इससे लोग केवल उन दृष्टिकोणों से चीजों एवं घटनाओं को देखते हैं, जिनसे वे सहमत होते हैं और जिनसे असहमत होते हैं उन्हें सिरे से खारिज कर देते हैं। इसके जरिए नफरत एवं सांप्रदायिकता से भरे भाषणों को आसानी से फैलाया जा सकता है।

इसके उपयोग से अप्रत्याशित तरीकों से ऐसे सामाजिक परिणाम सामने आ रहे हैं, जिनकी कभी उम्मीद नहीं की गई थी। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि सोशल मीडिया लोगों को अपनी बात रखने का पर्याप्त मौका देता है। कभी-कभी इसका इस्तेमाल किसी के द्वारा अफवाह फैलाने और गलत सूचना फैलाने के लिए भी किया जा सकता है।

2- गूगल ट्रांसपेरेंसी रिपोर्ट के अनुसार, राजनीतिक दलों ने पिछले दो वर्षों में ज्‍यादातर चुनावी विज्ञापनों पर करीब 80 करोड़ डालर (5,900 करोड़ रुपये) खर्च किए हैं। अमेरिकी राष्‍ट्रपति चुनाव के दौरान रूसी संस्थाओं ने सोशल मीडिया को सूचना के हथियार के रूप में उपयोग किया एवं सार्वजनिक रूप से लोगों की भावनाओं को प्रभावित करने के लिए फेसबुक पर नकली पेज बनाकर प्रचार किया।

सोशल मीडिया को राष्ट्र एवं समाज को विभाजित करने के इरादे से साइबर युद्ध के लिए उपयोग किया जा सकता है। सोशल मीडिया नीति निर्माताओं की जनमत के बारे में धारणा को प्रभावित करता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि सोशल मीडिया प्लेटफार्म जीवन के हर क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं, लेकिन हर कोई इस प्लेटफार्म का समान रूप से उपयोग नहीं कर रहा है।

क्‍या है एक्‍सपर्ट की राय

1- वरिष्‍ठ पत्रकार व लेखक अरविंद कुमार सिंह का कहना है कि भारत में मीडिया अनियंत्रित नहीं है। प्रेस अनियंत्रित नहीं हो इसके लिए भारतीय प्रेस परिषद का गठन किया गया है। हालांकि, परिषद के पास सीमित शक्तियां है। अर्द्ध न्‍यायिक दर्जा प्राप्‍त होने के बावजूद इसके पास सीमित अधिकार है। परिषद कदाचार में लिप्‍त व्‍यक्तियों या इकाइयों की निंदा कर सकती है या चेतावनी दे सकती है। परिषद किसी को दंडित नहीं कर सकती है। प्रिंट मीडिया इसके अभिमत के दायरे के बाहर है।

2- प्रेस परिषद अधिनियम 1978 के अनुभाग 15 (4) को संशोधित करने का प्रस्‍ताव है। इसके तहत परिषद के निर्देश सरकारी प्राधिकरणों पर बाध्‍यकारी बनाए जा सके। मीडिया संगठनों में लोकपाल की नियुक्ति की बात भी कई बार कही गई है। इसके अतिरिक्‍त सिविल सोसाइटी भी प्रेस की समस्‍याओं को निपटाने में कारगर हो सकती हैं। पार्टी लाइन से हटकर कई राजनेताओं ने जनप्रतिनिधित्व अधिकार की धारा 123 में संशोधन करके पेड न्यूज के लिए धन के आदान-प्रदान को भ्रष्ट आचरण या ‘चुनावी कदाचार’ घोषित करने की मांग की है।

3- उन्‍होंने कहा कि आंकड़े यह दर्शाते हैं कि अधिकतर राजनीतिक दलों के कुल बजट का लगभग 40 फीसद मीडिया संबंधी खर्चों के लिए आवंटित होता है। चुनावों में प्रयुक्त होने वाला धन बल, शराब तथा पेड न्‍यूज की अधिकता चिंता का विषय है। भारतीय प्रेस परिषद के अनुसार, ऐसी खबरें जो प्रिंट या इलेक्ट्रानिक मीडिया में नकद या अन्य लाभ के बदले में प्रसारित किए जा रहे हों पेड न्यूज कहलाते हैं।

हालांकि यह साबित करना अत्यंत कठिन कार्य है कि किसी चैनल पर दिखाई गई विशेष खबर या समाचारपत्र में छपी न्यूज पेड न्यूज है। इस तरह के कार्यों से राजनीति में धन बल का प्रभाव बढ़ता है, जो कि लोकतांत्रिक सिद्धांतों को कमजोर करता है। इससे मीडिया की विश्वसनीयता पर भी संकट रहता है। उन्‍होंने कहा कि लंबे समय में यह मीडिया के लक्ष्यों के लिए नुकसानदायक हो सकता है।

4- उन्‍होंने कहा कि जहां तक सोशल मीडिया का प्रश्‍न है तो सरकार को भविष्‍य में इसके विनिय‍मित करने की जरूरत पड़ेगी। अरविंद कुमार सिंह ने कहा कि इसकी अनिश्चित प्रकृति, अफवाहों को हवा देना, गलत समाचारों के प्रसार में इसकी भूमिका के कारण, सोशल मीडिया किसी खास एजेंडा को प्रसारित करने, कुछ विशेष वर्गों को लक्षित करने, चुनी हुई सरकारों को अस्थिर करने एवं लोकतंत्र के मूल्यों से समझौता करने की दिशा की तरफ भी ले जाता है। सोशल मीडिया को इस तरह से विनियमित करने की जरूरत है, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, अल्पसंख्यकों के हित, कानून और व्यवस्था के बीच संतुलन बनाए तथा शासन में नागरिकों की भागीदारी को बढ़ावा दे।

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