क्या हो सकती है मौलाना मजहरूल हक साहब को सच्ची श्रद्धांजलि?
महान स्वतंत्रता सेनानी मौलाना मजहरूल हक की निष्ठा, त्याग और समर्पण देता है वर्तमान दौर को बड़ा संदेश
✍️ डॉक्टर गणेश दत्त पाठक, श्रीनारद मीडिया, सीवान (बिहार):
22 दिसंबर को महान स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षाविद्, अधिवक्ता, समाजसेवी मौलाना मजहरूल हक साहब की जयंती मनाई जाएगी। उनका पटना में स्थित सदाकत आश्रम राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान, जहां स्वतंत्रता सेनानियों के लिए तीर्थ स्थल था, वहीं उनका सीवान के फरीदपुर स्थित ‘ आशियाना’ एक सुरक्षित पनाह स्थल। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने उन्हें अपने दौर का महान हस्ती स्वीकार किया था।
गांधी जी के चंपारण सत्याग्रह को सफल बनाने में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। राष्ट्रीय विद्यापीठ की स्थापना, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय , कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना में सहयोग देकर उन्होंने शिक्षा के प्रसार में उल्लेखनीय भूमिका निभाई थी। फिरंगी हुकूमत के दौरान ‘ मदरलैंड’ अखबार के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना को जागृत करने में अहम भूमिका निभाई थी। ऐसे में उनकी जयंती के अवसर पर यह सवाल अवश्य उठता है कि मौलाना साहब को सच्ची श्रद्धांजलि क्या हो सकती है?
मौलाना मजहरूल हक साहब का शिक्षा के प्रति विशेष लगाव था। असहयोग आंदोलन के दौरान जब अपनी शिक्षा छोड़ चुके छात्र उनके पास पहुंचे तो उन्होंने तत्काल पटना के वर्तमान सदाकत आश्रम वाली अपनी भूमि में उन बच्चों को पढ़ने के लिए व्यवस्थाएं बनाई और कालांतर में यह सदाकत आश्रम बना, जो स्वतंत्रता सेनानियों के लिए तीर्थ स्थल बना और राष्ट्रीय आंदोलन की रणनीतियां यहां तैयार होती थी। मौलाना साहब शिक्षा को बहुत ज्यादा महत्व देते थे।
मौलाना मजहरुल हक़ बिहार में शिक्षा के अवसरों और सुविधाओं को बढ़ाने तथा निःशुल्क प्राइमरी शिक्षा लागू कराने के लिए अरसे तक संघर्ष करते रहे। गांघी के असहयोग आंदोलन के दौरान पढ़ाई छोड़ने वाले युवाओं की शिक्षा के लिए उन्होंने सदाकत आश्रम परिसर में विद्यापीठ कॉलेज की स्थापना की। यह विद्यापीठ उन युवाओं के लिए वरदान साबित हुआ जिनकी पढ़ाई आन्दोलनों और जेल जाने की वजह से बाधित हुई थी।
बिहपुरा में जहां उन्होंने जन्म लिया था, उस घर को उन्होंने एक मदरसे और एक मिडिल स्कूल की स्थापना के लिए दान दे दिया ताकि एक ही परिसर में हिन्दू और मुस्लिम बच्चों की शिक्षा-दीक्षा हो सके। ऐसे में शिक्षा के विकास का हर प्रयास मौलाना साहब के लिए सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है।
मौलाना मजहरूल हक साहब का जन्म एक जमींदार परिवार में हुआ था। उनका प्रारंभिक जीवन बेहद ऐश्वर्यपूर्ण तरीके से व्यतीत हुआ था। फिर भी जब उन्होंने राष्ट्र सेवा का प्रण लिया तो बिल्कुल सादगीपूर्ण जीवन जीने लगे और त्याग के एक अप्रतिम उदाहरण बन गए। जब महात्मा गांधी ने देश में असहयोग और ख़िलाफ़त आंदोलनों की शुरुआत की तो मज़हरुल हक़ अपनी वकालत का और इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल का सम्मानित पद छोड़ पूरी तरह स्वाधीनता आंदोलन का हिस्सा हो गए। आज के उपभोक्तावाद के दौर में अपने जीवन में सादगी को अपनाना भी मौलाना साहब के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है।
सामाजिक न्याय के प्रसार के प्रति मौलाना मजहरूल हक साहब बेहद संजीदा थे। उन्होंने समाज की विसंगतियों और व्याप्त असमानताओं के खिलाफ एक बड़े अभियान का संचालन किया था। अपने अखबार ‘ मदर लैंड’ के माध्यम से सामाजिक विसंगतियों को दूर करने के लिए प्रेरित करने वाले आलेख लिखे और राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान आयोजित जनसभाओं में निरंतर सामाजिक विसंगतियों के दुष्परिणामों के बारे में लोगों को जागृत करते रहे। ऐसे में सामाजिक न्याय के प्रसार का हर सार्थक पहल मौलाना साहब को सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है।
राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान जब देश में सांप्रदायिक दंगों के आगोश तले पीड़ित मानवता हाहाकार कर रही थी। उस दौर में उन्होंने कहा था कि हिन्दू और मुस्लिम दोनों एक ही नाव पर सवार हैं। हम डूबेंगे तो साथ-साथ और बचेंगे तो साथ साथ। देशरत्न डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने अपनी पुस्तक ‘ डिवाइडेड इंडिया’ में उन्हें एक भावुक देशभक्त बताया है। उन्होंने समाज में एकता और एकजुटता को बढ़ावा देने के लिए सतत प्रयास किए थे। देश के विभिन्न वर्गों में एकता और सद्भाव को बढ़ावा देने के प्रयास ही मौलाना साहब को सच्ची श्रद्धांजलि हो सकते हैं।
मौलाना मजहरूल हक साहब ने राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान कानपुर में फिरंगी हुकूमत द्वारा एक धार्मिक स्थल को तोड़े जाने के बाद, जब देश का कोई वकील उस मुकदमे का पैरवी नहीं कर रहा था तो उन्होंने निडरता और निर्भकता का परिचय देते हुए उस मुकदमे की पैरवी की और ब्रिटिश हुकूमत को झुकने पर मजबूर किया तथा वहां की जनता को सहारा दिया। बाद में तत्कालीन वायसराय के हस्तक्षेप के उपरांत वहां समझौता हुआ। अन्याय का हर स्तर पर शांतिपूर्ण और न्यायिक तरीके से विरोध भी मौलाना साहब के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है।
मौलाना मजहरूल हक साहब ने मां भारती की सेवा में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। उनकी निजी व्यक्तिगत संपति भी राष्ट्र सेवा में अनवरत योगदान करती रही। पटना में 16 कट्ठा जमीन उन्होंने राष्ट्र सेवा के लिए दान कर दी जिस पर बना सदाकत आश्रम स्वतंत्रता सेनानियों के लिए तीर्थ स्थल बना। उनके फरीदपुर स्थित आशियाना पर मदन मोहन मालवीय, सरोजनी नायडू, एफ ए नरीमन, मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे बड़े राष्ट्रीय नेता आते रहे। आज के राजनीतिक,प्रशासनिक, सामाजिक संस्कृति को मौलाना साहब का यह त्याग और राष्ट्र के प्रति योगदान की भावना एक बड़ा संदेश देती दिखती है जिसे समझे जाने की आवश्यकता है।
साल 1897 में जब बिहार अकाल की त्रासदी से कराह रहा था। लोग गरीबी के कारण भुखमरी का शिकार होने लगे थे। ऐसी स्थिति में मौलाना मजहरुल हक उनके हमदर्द बने। राहत कार्यों में महत्वपूर्ण योगदान दिया। ऐसे में पीड़ित मानवता के सहायतार्थ हर प्रयास मौलाना साहब के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि हो सकते हैं।
महिलाओं को आजादी की लड़ाई में शामिल करने के महात्मा गांधी के विचारों का मौलाना मजहरूल हक साहब ने पुरजोर समर्थन किया। इसके साथ ही साथ उन्होंने मुस्लिम महिलाओं से सामाजिक कामकाज में जुड़ने की अपील की। मौलाना मजहरुल हक के इन्हीं सब कामों के कारण उन्हें देश भूषण फकीर का खिताब दिया गया। ऐसे में महिला सशक्तिकरण के हर प्रयास मौलाना मजहरूल हक साहब को सच्ची श्रद्धांजलि हो सकते हैं।
मजहरुल हक के बारे में गांधी ने उनके देहांत पर संवेदना के रूप में 9 जनवरी, 1930 को यंग इंडिया में लिखा था, ‘मजहरुल हक एक निष्ठावान देशभक्त, अच्छे मुसलमान और दार्शनिक थे। बड़ी ऐश व आराम की जिंदगी बिताते थे, पर जब अंग्रेजों से असहयोग का अवसर आया, तो ठाटबाट वाली जिंदगी को छोड़ एक सूफी दरवेश की जिंदगी गुजारने लगे। वह अपनी कथनी और करनी में निडर और निष्कपट थे, बेबाक थे। बापू के इन शब्दों को आने वाली पीढ़ी तक पहुंचाना और नित्य स्मरण ही उन्हें सबसे सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है।
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