कांग्रेस की जड़ें खोदकर ममता बनर्जी क्या हासिल करना चाहती है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

 भारतीय राजनीति में पिछले लगभग साढ़े सात वर्षो में अगर किसी का अवमूल्यन हुआ है तो वह कांग्रेस है। संसद के शीत सत्र से पहले कांग्रेस द्वारा आहूत विपक्षी पार्टियों की बैठक में शामिल नहीं होने की तृणमूल कांग्रेस की घोषणा इसका ताजा उदाहरण है। कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को अगर पुरानी स्मृतियों में गोता लगाने का शौक हो तो उन्हें याद होगा कि हाल तक कैसे तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी बड़े आदर और उम्मीद के साथ उनका नाम लेती थीं। अब सब कुछ बदल गया है।

ममता की पार्टी कांग्रेस की बची-खुची शक्ति को अपने में समाहित करने की रणनीति पर चल रही है। यह बात सबको समझ में आ रही है। कांग्रेस के प्रथम परिवार को भी यह आभास हो रहा है कि उसकी ताबूत में आखिरी कील ठोकी जा चुकी है। विडंबना यह कि वह इसे स्वीकारने और पार्टी को फिर से खड़ा करने का श्रमसाध्य काम करना नहीं चाहता या उसमें इसकी योग्यता नहीं है। पता नहीं सोनिया गांधी और राहुल गांधी कभी इसका हिसाब-किताब लगाते हैं कि कैसे एक-एक कर राज्य उनके हाथ से निकलते गए।

पिछले हफ्ते मेघालय के पूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा कांग्रेस के 18 में से 11 विधायकों को लेकर तृणमूल में शामिल हो गए। अगले चुनाव में अगर तृणमूल सरकार बना लेगी तो इस सूची में और राज्य जुड़ जाएंगे। पूवरेत्तर भारत के सबसे बड़े राज्य असम के हिमंता बिस्वा सरमा हों या फिर आंध्र प्रदेश के जगन मोहन रेड्डी और तेलंगाना के के. चंद्रशेखर राव, सभी कांग्रेस से निकले और हिमंता बिस्वा सरमा को छोड़कर शेष दोनों अपनी क्षेत्रीय पार्टी बनाकर सत्ता में आए।

ममता बनर्जी ने भी कांग्रेस की जड़ता से तंग आकर वर्ष 1998 में तृणमूल कांग्रेस का गठन किया और दो दशक में वह इस स्थिति में पहुंच गई हैं कि अपनी मूल पार्टी की छत्रछाया को स्वीकार करने के बजाय अब खुद विपक्ष का नेतृत्व करने की तैयारी कर रही हैं।

असम में कांग्रेस से तृणमूल में शामिल होने वाली राज्यसभा सांसद सुष्मिता देव और मेघालय में मुकुल संगमा के अलावा उत्तर पूर्व के त्रिपुरा में भी कांग्रेस को उसकी पूर्व सदस्य की पार्टी नुकसान पहुंचा रही है। त्रिपुरा के स्थानीय निकाय के चुनाव नतीजों में भले ही तृणमूल कांग्रेस को खास सफलता नहीं मिली हो, लेकिन भविष्य की राजनीति के लिहाज से विपक्ष का दावा तो ठोक ही दिया है।

प्रदेश कांग्रेस के नेता अपने अजीबोगरीब तर्क से भले ही खुद को बचाने की कोशिश कर रहे हों, लेकिन गंभीर लोग उनके इन प्रयासों को खास महत्व नहीं देंगे। वे इसे सेंधमारी साबित करते रहें, समझदार लोग इसे राजनीति कहते हैं। ममता बनर्जी ने उत्तर पूर्व के इन राज्यों के अलावा गोवा में भी कांग्रेस को समाप्त करने का बीड़ा उठाया है। राज्य से पार्टी के वरिष्ठ नेता लुइजिन्हो फलेरियो अब ममता के साथ हैं।

तृणमूल कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे कमलापति त्रिपाठी के परपोते ललितेशपति त्रिपाठी को साथ लिया है और बिहार में भी जदयू में रहे पूर्व नौकरशाह पवन वर्मा एवं पूर्व क्रिकेटर और पूर्व में भाजपा से लोकसभा सदस्य रह चुके व फिलहाल कांग्रेस में रहे कीर्ति आजाद को भी पार्टी में शामिल कराया है। इससे स्पष्ट है कि ममता इन दोनों राज्यों को लेकर बहुत गंभीर नहीं हैं और इसकी ठोस वजह भी है।

इन दोनों राज्यों में कांग्रेस खुद इतनी कमजोर है कि उसकी जमीन पर कोई और पार्टी फल-फूल नहीं सकती। जिन राज्यों में ममता को संभावना नजर आ रही है, वहां उनकी सक्रियता साफ दिख रही है। त्रिपुरा में हिंसा को बेवजह मुद्दा बनाकर सुप्रीम कोर्ट पहुंचना इसका प्रमाण है।

एक के बाद अपने ही नेताओं के विद्रोह ङोलते-ङोलते कांग्रेस अब उस स्थिति में पहुंच गई है जहां मुगल सल्तनत के आखिरी बादशाह बहादुर शाह जफर और उनके बाद आने वाले वारिस पहुंच गए थे। कहने को सुल्तान, लेकिन किले तक सीमित। कहने को कांग्रेस के पास अभी पंजाब, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सरकारें हैं, लेकिन सवाल है कि कब तक।

इन राज्यों में मुख्यमंत्रियों के खिलाफ पार्टी के अंदर असंतोष की खबरें सास-बहू के गप्प की तरह चर्चा में रहीं। महाराष्ट्र में वह एक ऐसी सरकार में शामिल है जिसके हर समय गिरने के कयास लगते हैं। पंजाब में तो नवजोत सिंह सिद्धू कांग्रेस आलाकमान से भी बड़े होने के प्रयास में कई बार हास्यास्पद और बहुधा खतरनाक नजर आ रहे हैं। कभी जीवे पाकिस्तान कहते हैं, कभी इमरान खान को बड़ा भाई कहते हैं।

सिद्धू कांग्रेस में अकेले नहीं हैं। उनसे बहुत वरिष्ठ मणिशंकर अय्यर तो नरेन्द्र मोदी को हराने के लिए पाकिस्तान में भी अपील कर चुके हैं। 2014 में भाजपा के सत्ता में आने से पहले उसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को कांग्रेस के दिल्ली अधिवेशन में चाय की स्टाल लगाने का न्योता दे चुके अय्यर का दिग्विजय सिंह बखूबी साथ दे रहे हैं। हालांकि असली समस्या ये नेता नहीं हैं, बल्कि ये पार्टी के अवसान के लक्षण हैं। नेतृत्व की कमी के कारण धरती से संपर्क कट चुके सेटेलाइट की तरह कांग्रेस राजनीति के आकाश में निरुद्देश्य चक्कर लगा रही है।

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