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शहरी भारत में आपदा प्रबंधन क्या है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

चेन्नई में हाल ही में हुई अप्रत्याशित भारी बारिश की घटनाओं ने बार-बार मानसूनी बाढ़ और शहर के बंद होने (Urban Paralysis) जैसी समस्याओं को जन्म दिया। इसके साथ ही इसने चरम मौसमी घटनाओं के कारण शहरी व्यवस्था के पतन के जोखिमों को भी उजागर किया।  अतीत में चेन्नई में वर्ष वर्ष 2015 में आई विनाशकारी बाढ़ और मुंबई में वर्ष 2005 में उत्पन्न हुई भीषण बाढ़ की स्थिति के बाद उम्मीद थी कि शहरी विकास के संबंध में प्राथमिकताओं में एक बड़ा परिवर्तन देखने को मिलेगा।

किंतु भारी सामुदायिक समर्थन और परिवर्तन के लिये सक्रिय लामबंदी के बावजूद, कानून बस दिखावे भर के लिये बने रहे और शहरी वातावरण में असंवहनीय परिवर्तन होते रहे। पारिस्थितिकी की कीमत पर स्थायी, अभिजात निर्माणों को समर्थन दिया गया। यह उपयुक्त समय है सरकार समझे कि शहरी भारत को वर्तमान में आकर्षक रेट्रोफिटेड ‘स्मार्ट’ एन्क्लेव की आवश्यकता नहीं है, बल्कि उसे आवश्यकता सुदृढ़, कार्यात्मक महानगरीय शहरों की है।

शहरी नगर और आपदा प्रबंधन

  • भारत की आपदा संवेदनशीलता: राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (National Disaster Management Authority- NDMA) के अनुसार, भारत में कुल भूमि का लगभग 12% बाढ़ के खतरे से युक्त है, 68% सूखा, भूस्खलन एवं हिमस्खलन के प्रति संवेदनशील है और 58.6% भूभाग भूकंप-प्रवण है।
    • भारत की 7,516 किलोमीटर लंबी तटरेखा के 5,700 किमी. हिस्से के लिये सुनामी और चक्रवात एक नियमित घटना है।
    • इस तरह की संवेदनशील परिस्थितियों के कारण भारत विश्व के प्रमुख आपदा-प्रवण देशों में शामिल है।
  • शहरों के लिये नीति आयोग की रिपोर्ट: नीति आयोग ने ‘भारत में शहरी नियोजन क्षमता में सुधार’ विषय पर अपनी रिपोर्ट में कोविड-19 महामारी को एक भविष्यसूचक क्षण के रूप में उद्धृत किया है जो वर्ष 2030 तक सभी शहरों के स्वस्थ शहर में परिणत होने की अनिवार्य आवश्यकता को रेखांकित करता है।
    • जलवायु प्रभावों द्वारा शहरों को अधिक मौलिक और स्थायी रूप से प्रभावित किया जाना तय है।
      • यह नागरिकों की आवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं का आकलन करने के लिये भागीदारी योजना उपकरण, सर्वेक्षण और फोकस समूह चर्चा को अपनाने के साथ 500 प्राथमिकता शहरों को एक प्रतिस्पर्द्धी ढाँचे में शामिल करने की सिफारिश करता है।
  • प्रभाव:
    • चक्रवातों के कारण वृक्षों के बड़े पैमाने पर उखड़ने से शहरी क्षेत्रों में पहले से ही घट रहे हरित आवरण प्रभावित होते हैं।
    • भारी आबादी वाले शहरी क्षेत्रों में आपदाओं के कारण बड़ी संख्या में मानव जीवन की हानि हो सकती है।
      • असुरक्षित/कमज़ोर बुनियादी संरचनाएँ, जो भूकंप या सुनामी में ढह जाती हैं, किसी भी अन्य प्रकार के प्राकृतिक खतरे (जैसे बवंडर या तूफान) की तुलना में अधिक लोगों की जान लेती हैं।
    • आपदाएँ आधारभूत संरचनाओं को तबाह कर देती हैं और इनसे व्यापक आर्थिक क्षति होती है।
      • विश्व बैंक का अनुमान है कि वार्षिक आपदा क्षति 520 बिलियन डॉलर तक पहुँच चुकी है और ये आपदाएँ प्रति वर्ष 24 मिलियन लोगों को निर्धनता की ओर धकेलती हैं।

चुनौतियाँ:

  • नियोजन और स्थानीय शासन की समस्याएँ: सभी शहरों में से आधे से भी कम में ‘मास्टर प्लान’ मौजूद हैं और इन पर भी अनौपचारिक रूप से ही अमल होता है क्योंकि प्रभावशाली अभिजात वर्ग और गरीब वर्ग दोनों ही आर्द्रभूमि और नदी तटों जैसी सार्वजनिक भूमियों का अतिक्रमण करते हैं।
    • नगर परिषदों की उपेक्षा, सशक्तीकरण की कमी और नगरपालिका प्राधिकारों में क्षमता निर्माण की विफलता ने चरम मौसम के दौरान बार-बार शहरी पक्षाघात की स्थिति उत्पन्न की है।
  • प्राकृतिक स्थानों का अतिक्रमण: देश में आर्द्रभूमि की संख्या वर्ष 1956 में 644 से घटकर वर्ष 2018 में 123 रह गई और हरित आवरण महज 9% है, जो आदर्श रूप से कम से कम 33% होना चाहिये था।
    • महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक संपत्तियों का अतिक्रमण किफायती शहरी आवासों की आपूर्ति हेतु बाज़ार की शक्तियों पर अत्यधिक निर्भरता को प्रकट करता है।
    • आवास क्षेत्र में अधिकांश उपनगरीय निवेश उनके वास्तविक मूल्य को नहीं दर्शाते, भले ही वे सरकार द्वारा ‘अनुमोदित’ हों, क्योंकि नगर से दूर स्थित इन नगर पंचायतों के पास जल आपूर्ति, स्वच्छता और सड़कों जैसी बुनियादी संरचनाओं के निर्माण की भी पर्याप्त क्षमता या धन का अभाव होता है।
  • अपर्याप्त निकासी अवसंरचना: जल निकासी तंत्र पर अत्यधिक दबाव, अनियमित निर्माण, प्राकृतिक स्थलाकृति एवं ‘हाइड्रो-जियोमॉर्फोलॉजी’ की अवहेलना आदि शहरी बाढ़ को एक मानव निर्मित आपदा बनाते हैं।
    • हैदराबाद, मुंबई जैसे शहर एक सदी पुरानी जल निकासी प्रणाली पर निर्भर हैं, जो मुख्य शहर के केवल एक छोटे से हिस्से को ही दायरे में लेती है।
      • शहरों के विस्तार के साथ उपयुक्त जल निकासी व्यवस्था के अभाव को दूर करने के लिये अधिक प्रयास नहीं किया गया।
  • कार्यान्वयन में शिथिलता: पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (Environmental Impact Assessment- EIA) जैसे नियामक तंत्रों में वर्षा जल संचयन, संवहनीय शहरी जल निकासी प्रणाली आदि के प्रावधानों के बावजूद उपयोगकर्ता के साथ-साथ प्रवर्तन एजेंसियों ​के स्तर पर इनके अंगीकरण की गति शिथिल रही है।

आगे की राह

  • स्थानीय स्वशासन की भूमिका: वृहत समावेशन और समुदाय की भावना को सुनिश्चित करने के लिये लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई स्थानीय सरकारों को केंद्रीय भूमिका सौंपे जाने की आवश्यकता है।
    • जलवायु परिवर्तन अनुकूलन के लिये एक शीर्ष-स्तरीय विभाग का निर्माण करना उपयुक्त होगा जो आवास एवं शहरी विकास, परिवहन, जल आपूर्ति, ऊर्जा, भूमि उपयोग, लोक कार्य और सिंचाई जैसे राज्य के सभी संबंधित विभागों का समन्वय करेगा और उन्हें निर्वाचित स्थानीय सरकार के साथ मिलकर कार्य करने में सक्षम बनाएगा। प्राथमिकताओं के निर्धारण और उत्तरदायित्व के वहन में इस शीर्ष विभाग की प्रमुख भूमिका होगी।
  • समग्र संलग्नता: ऊर्जा एवं संसाधनों के ठोस और केंद्रित निवेश के बिना वृहत स्तरीय शहरी बाढ़ को अकेले नगरपालिका अधिकारियों द्वारा नियंत्रित करना संभव नहीं होगा।
    • नगर निगमों के साथ-साथ महानगर विकास प्राधिकरण, NDMA और राज्य के राजस्व एवं सिंचाई विभागों को इस तरह के कार्य के लिये एक साथ संलग्न करना होगा।
  • बेहतर शहर नियोजन: सस्ते आवास सहित शहर के विकास के सभी आयाम भविष्य के जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूल होने में केंद्रीय भूमिका निभाते हैं।
    • वे आधारभूत संरचना निर्माण के दौरान भी कार्बन उत्सर्जन वृद्धि को कम कर सकते हैं यदि बायोफिलिक डिज़ाइन (biophilic design) और हरित सामग्री का उपयोग किया जाए।
    • नियोजित शहरीकरण आपदाओं का सामना कर सकता है। इसका आदर्श उदाहरण जापान है जो नियमित रूप से भूकंप का सामना करता रहता है।
      • भारत आपदा संसाधन नेटवर्क (India Disaster Resource Network ) को व्यवस्थित सूचना और साधन एकत्रीकरण (Equipment Gathering) के लिये एक निधान (Repository) के रूप में संस्थागत किया जाना चाहिये।
  • ड्रेनेज प्लानिंग’: नीति और कानून में वाटरशेड प्रबंधन और आपातकालीन निकासी योजना/ड्रेनेज प्लानिंग को स्पष्ट रूप से व्यक्त किया जाना चाहिए।
    • अर्बन वाटरशेड सूक्ष्म पारिस्थितिक जल निकासी प्रणाली (Micro Ecological Drainage Systems) हैं, जो भूभाग की आकृति के अनुरूप आकार ग्रहण करते हैं।
    • इनका विस्तृत दस्तावेज उन एजेंसियों के पास होना चाहिये जो नगरपालिका के अधिकार क्षेत्र से बंधे नहीं हैं। वास्तव में निकासी योजना को आकार देने के लिये चुनावी वार्ड जैसे शासनिक सीमाओं के बजाय वाटरशेड जैसी प्राकृतिक सीमाओं पर विचार किया जाना अधिक उपयुक्त होगा।

निष्कर्ष

भारत के शहर उत्पादन और उपभोग के उल्लेखनीय स्तर के साथ देश के आर्थिक विकास के चालक हैं, लेकिन इस विकास कथा को जलवायु परिवर्तन के युग में असंवहनीय शहरी विकास से खतरा है। आवश्यकता ऐसे सुदृढ़, कार्यात्मक महानगरीय शहरों का विकास करने की है जो अर्थव्यवस्था के इंजनों को चालू रखने के लिये बाढ़, ग्रीष्म लहर, प्रदूषण और जन गतिशीलता को संभाल सकें। ऐसा नहीं हुआ तो शहरी भारत एक सबप्राइम निवेश भर बनकर रह जाएगा।

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