नार्को एनालिसिस टेस्ट क्या है,यह सुर्खियों में क्यों है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

जंतर-मंतर पर प्रदर्शनकारी पहलवानों ने नार्को टेस्ट कराने की इच्छा जताई है, इस शर्त के साथ कि इसकी निगरानी सर्वोच्च न्यायाल करेगा और पूरे देश में इसका सीधा प्रसारण किया जाएगा।

नार्को टेस्ट:

  • परिचय: 
    • नार्को  एनालिसिस टेस्ट में सोडियम पेंटोथल नामक एक दवा को अभियुक्त के शरीर में इंजेक्ट किया जाता है, यह दवा कृत्रिम निद्रावस्था या बेहोशी की अवस्था के साथ कल्पना को निष्प्रभावी कर देती है।
      • इस सम्मोहक अवस्था में अभियुक्त को झूठ बोलने में असमर्थ समझा जाता है और उससे आशा की जाती है कि वह सत्य जानकारी को प्रकट करेगा।
    • भारत में वर्ष 2002 के गुजरात दंगों और 26/11 के मुंबई आतंकवादी हमले के मामलों  में नार्को एनालिसिस टेस्ट का विशेष रूप से उपयोग किया गया था।
  • सोडियम पेंटोथल के बारे में: 
    • सोडियम पेंटोथल या सोडियम थायोपेंटल,तीव्रता से काम करने वाला एक अल्पकालिक संवेदनाहारी है जो सर्जरी के दौरान रोगियों को बेहोश करने के लिये बड़ी मात्रा में उपयोग किया जाता है।
    • यह दवाओं के बार्बिट्यूरेट वर्ग से संबंधित है जो केंद्रीय तंत्रिका तंत्र पर अवसादक के रूप में कार्य करती है।
      • माना जाता है कि दवा झूठ बोलने के विषय में संकल्प को कमज़ोर करती है, इसे कभी-कभी “ट्रुथ सीरम” के रूप में संदर्भित किया जाता है और कहा जाता है कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान खुफिया कार्यकर्त्ताओं द्वारा इसका उपयोग किया गया था।
  • नार्को बनाम पॉलीग्राफ टेस्ट: 
    • नार्को और पॉलीग्राफ परीक्षणों को लेकर भ्रमित नहीं होना चाहिये, हालाँकि एक ही ट्रुथ-डिकोडिंग मकसद होने के बावजूद ये अलग तरह से काम करते हैं।
    • पॉलीग्राफ परीक्षण इस धारणा के साथ किया जाता है कि जब कोई झूठ बोल रहा होता है तो उसकी शारीरिक प्रतिक्रियाएँ वास्तविकता से भिन्न होती हैं।
    • पॉलीग्राफ परीक्षण में शरीर में दवाओं को इंजेक्ट करने के बजाय, कार्डियो-कफ या संवेदनशील इलेक्ट्रोड जैसे उपकरणों को संदिग्ध व्यक्ति से जोड़ते हैं और उससे पूछताछ करते समय रक्तचाप, स्पंद दरश्वसन, स्वेद ग्रंथि की क्रियाशीलता में परिवर्तन, रक्त प्रवाह आदि जैसे चर को मापते हैं।

नार्को टेस्ट के कानूनी निहितार्थ: 

  • सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य मामला 2010: 
    • सर्वोच्च न्यायालय ने नार्को परीक्षण की वैधता और स्वीकार्यता पर निर्णय सुनाते हुए कहा कि नार्को या लाई डिटेक्टर टेस्ट का अनैच्छिक प्रशासन किसी व्यक्ति की “मानसिक गोपनीयता” का उल्लंघन करता है।
    • शीर्ष न्यायालय ने माना कि नार्को टेस्ट संविधान के अनुच्छेद 20(3) के तहत अभियुक्त के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है जिसमें कहा गया है कि किसी भी अपराध के आरोपी व्यक्ति को खुद के विरुद्ध गवाह बनने के लिये विवश नहीं किया जाएगा।
  • डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य मामला 1997: 
    • सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि पॉलीग्राफ और नार्को टेस्ट का अनैच्छिक प्रशासन अनुच्छेद 21 या जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार के संदर्भ में क्रूर, अमानवीय और अपमानजनक व्यवहार के समान होगा।
  • सर्वोच्च न्यायालय की अन्य टिप्पणियाँ:
    • नार्को परीक्षण सबूत के रूप में विश्वसनीय या निर्णायक नहीं हैं क्योंकि ये मान्यताओं और संभावनाओं पर आधारित होते हैं।
    • साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27 के अनुसार, स्वैच्छिक रूप से प्रशासित परीक्षण परिणामों की सहायता से बाद में खोजी गई किसी भी जानकारी या सामग्री को स्वीकार किया जा सकता है।
      • उदाहरण के लिये यदि एक अभियुक्त नार्को परीक्षण के दौरान भौतिक साक्ष्य (हत्या में प्रयुक्त हथियार आदि) के रूप में स्थान का खुलासा करता है और पुलिस को बाद में उस स्थान पर विशिष्ट साक्ष्य का पता चलता है, तो अभियुक्त के बयान को साक्ष्य के रूप में नहीं माना जाएगा, लेकिन भौतिक साक्ष्य मान्य होगा।
    • इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि जो व्यक्ति इस तरह के परीक्षणों से गुज़रता है वह केवल सच्चाई ही प्रकट करेगा। निहित स्वार्थों के चलते परिणामों के मनगढ़ंत व इनमें हेर-फेर किये जाने की संभावना है।
    • नार्को टेस्ट को अधिकारों एवं परिणामों के बारे में सूचित करने बाद आरोपी की सहमति से ही कराया जा सकता है।
    • न्यायालय ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि वर्ष 2000 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा प्रकाशित ‘अभियुक्त पर पॉलीग्राफ टेस्ट के प्रशासन हेतु दिशा-निर्देश’ का सख्ती से पालन किया जाना चाहिये।
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