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भूदान-ग्रामदान आंदोलन और स्वतंत्रता के बाद इसका प्रभाव क्या है? - श्रीनारद मीडिया

भूदान-ग्रामदान आंदोलन और स्वतंत्रता के बाद इसका प्रभाव क्या है?

भूदान-ग्रामदान आंदोलन और स्वतंत्रता के बाद इसका प्रभाव क्या है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

महाराष्ट्र के एक गाँव ने ग्रामदान अधिनियम को लागू करने की मांग को लेकर बंबई उच्च न्यायालय का रुख किया।

ग्रामदान: 

  • भूदान आंदोलन:
    • पृष्ठभूमि:
      • यह भारत में वर्ष 1951 में विनोबा भावे द्वारा शुरू किया गया एक सामाजिक- राजनीतिक आंदोलन था।
      • विनोबा भावे, महात्मा गांधी के शिष्य थे, जिन्हें गांधीजी ने पहले व्यक्तिगत सत्याग्रही के रूप में चुना और उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लिया।
      • स्वतंत्रता के बाद उन्होंने महसूस किया कि भूमिहीन का मुद्दा ग्रामीण भारत के सामने एक बड़ी समस्या है और वर्ष 1951 में उन्होंने भूदान आंदोलन या भूमि उपहार आंदोलन शुरू किया।
    • उद्देश्य:
      • उनका उद्देश्य धनी ज़मींदारों को भूमिहीन किसानों को अपनी भूमि का एक हिस्सा दान करने के लिये राजी करना था।
      • जब भावे ने गाँव-गाँव घूमकर ज़मींदारों से अपनी ज़मीन दान करने का अनुरोध किया तो आंदोलन को गति मिली।
      • भावे का दृष्टिकोण अहिंसा के दर्शन में निहित था तथा उनका यह विचार था कि भू-स्वामियों को गरीबों हेतु करुणा एवं सहानुभूति के साथ अपनी भूमि दान करनी चाहिये।
  • ग्रामदान आंदोलन:
    • भूदान आंदोलन का अगला चरण ग्रामदान आंदोलन या ग्राम उपहार आंदोलन था।
    • इसका उद्देश्य भूमि के सामूहिक स्वामित्त्व के माध्यम से आत्मनिर्भर गाँव बनाना था।
    • ग्रामदान आंदोलन के तहत ग्रामीणों से आग्रह किया गया कि वे अपनी भूमि एक ग्राम परिषद को दान करें, जो ग्रामीणों को भूमि का प्रबंधन एवं वितरण करेगी।
    • इस आंदोलन को कई राजनीतिक नेताओं का समर्थन मिला तथा इसे ग्रामीण भारत में भूमि के असमान वितरण की समस्या के समाधान के रूप में देखा गया।
  • आंदोलन का महत्त्व:
    • यह आंदोलन भारत के कई हिस्सों में सफल रहा, हज़ारों एकड़ भूमि ज़मींदारों द्वारा दान की गई।
    • भूदान-ग्रामदान आंदोलन का भारतीय समाज एवं राजनीति पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा, इसने भूमिहीनता की स्थिति को कम करनेभूमि का अधिक समान वितरण करने तथा आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने के साथ-साथ ग्रामीण समुदायों के सशक्तीकरण में मदद की।
    • इसने समुदाय में सभी को समान अधिकार एवं ज़िम्मेदारियाँ देकर तथा समुदायों को स्वशासन की ओर बढ़ने हेतु सशक्त बनाकर प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण का मार्ग प्रशस्त किया।
  • कमियाँ:
    • यह दान की गई भूमि या तो अनुपजाऊ या मुकदमेबाज़ी के अधीन होती थी।
      • साथ ही भूमि के बड़े क्षेत्रों को दान किया गया था, जबकि भूमिहीनों के बीच बहुत कम वितरित किया गया था।
    • यह उन क्षेत्रों में सफल नहीं हुआ जहाँ भूमि जोत में असमानता थी।
    • साथ ही यह आंदोलन अपनी क्रांतिकारी क्षमता को उजागर करने  में भी विफल रहा।

ग्रामदान अधिनियम का वर्तमान परिदृश्य: 

  • विभिन्न राज्यों में ग्रामदान अधिनियम:
    • वर्तमान में भारत के सात राज्यों में 3,660 ग्रामदान गाँव हैं, जिनमें से सबसे अधिक ओडिशा (1309) में हैं।
      • अन्य छह राज्य आंध्र प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, राजस्थान, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश हैं।
    • सितंबर 2022 में असम सरकार ने राज्य में दान की गई भूमि पर अतिक्रमण का सामना करने हेतु असम भूमि एवं राजस्व विनियमन (संशोधन) विधेयक, 2022 पारित करके असम ग्रामदान अधिनियम, 1961 तथा असम भूदान अधिनियम, 1965 को निरस्त कर दिया।
      • उस समय तक असम में 312 ग्रामदान गाँव थे।
  • ग्रामदान अधिनियम की कुछ सामान्य विशेषताएँ:
    • गाँव के कम-से-कम 75% भूस्वामियों को ग्राम समुदाय को भूमि का स्वामित्त्व प्रदान करना देना चाहिये। ऐसी भूमि गाँव की कुल भूमि का कम-से-कम 60% होनी चाहिये।
    • दान की गई भूमि का 5% खेती के लिये गाँव में भूमिहीनों में वितरित कर दिया जाता है।
      • ऐसी भूमि प्राप्तकर्त्ता समुदाय की अनुमति के बिना उसे हस्तांतरित नहीं कर सकते।
    • शेष भूमि दाताओं के पास रहती है; वे और उनके वंशज इसका उपयोग कर सकते हैं।
      • हालाँकि वे इसे गाँव के बाहर अथवा गाँव में किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं बेच सकते हैं जो ग्रामदान में शामिल नहीं हुआ है।
    • ग्रामदान में शामिल सभी काश्तकारों को अपनी आय का 2.5% हिस्सा समुदाय हेतु देना अपेक्षित है।
  • चिंताएँ:
    • मुख्य रूप से कानून के खराब कार्यान्वयन के कारण कई गाँवों में इस अधिनियम की प्रासंगिकता खत्म हो गई है।
    • ग्रामदान के तहत कुछ गाँवों में अपनी ज़मीन देने वालों के वंशज निराश हैं कि वे गाँव के बाहर अपनी ज़मीन नहीं बेच सकते हैं और उनके अनुसार यह अधिनियम ‘विकास विरोधी’ है।

वन संरक्षण में इस अधिनियम का महत्त्व:

 

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