राज्यों में जल संकट की वर्तमान स्थिति क्या है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारतीय राज्य विशेष रूप से कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और तेलंगाना, प्रमुख जलाशयों में जल स्तर काफी कम होने के कारण गंभीर जल संकट का सामना कर रहे हैं।

दक्षिण भारतीय राज्यों में जल संकट की वर्तमान स्थिति क्या है?

  • वर्तमान जल स्थिति:
    • केंद्रीय जल आयोग के अनुसार, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में अधिकांश प्रमुख जलाशय अपनी क्षमता का केवल 25% या उससे भी कम भरे हुए हैं।
    • कर्नाटक में तुंगभद्रा और आंध्र प्रदेश-तेलंगाना सीमा पर नागार्जुन सागर जैसे उल्लेखनीय बांध अपनी पूरी क्षमता का 5% या उससे कम भर गए हैं।
      • तमिलनाडु में मेट्टूर बाँध और आंध्रप्रदेश-तेलंगाना सीमा पर श्रीशैलम बाँध में भी जलस्तर कम हो रहा है, यहाँ उनकी क्षमता का 30% से भी कम जल रह गया है।
  • सभी क्षेत्रों में जल स्तर की तुलना:
    • दक्षिणी क्षेत्र सबसे अधिक प्रभावित है, जहाँ इस बार जलाशय सामूहिक रूप से अपनी क्षमता का केवल 23% ही भर पाए हैं, जो पिछले वर्ष और 10 वर्ष के औसत से काफी कम है।
    • इसके विपरीत उत्तरी, मध्य, पश्चिमी और पूर्वी भारत जैसे अन्य क्षेत्रों में जलाशयों का स्तर उनके 10 वर्ष के औसत के करीब है।
  • केरल में अपवाद:
    • केरल उन दक्षिणी राज्यों में से एक है, जहाँ अधिकांश प्रमुख बाँधों में उनकी क्षमता का कम-से-कम 50% जल भरा हुआ है।
      • हालाँकि, इडुक्की, इदमालयार, कल्लाडा और काक्की जैसे जलाशयों में अपेक्षाकृत बेहतर जलस्तर होने का अनुमान है।

दक्षिण भारत में जल संकट के क्या कारण हैं?

  • वर्षा की कमी और अल-नीनो प्रभाव:
    • अल-नीनो घटनाओं के कारण कम वर्षा के कारण क्षेत्र में सूखे जैसी स्थिति और लंबे समय तक शुष्क अवधि रही है।
      • अल-नीनो एक जलवायु पैटर्न है, जिसकी विशेषता प्रशांत महासागर में सागरीय सतह के तापमान में वृद्धि है, जो विश्व स्तर पर सामान्य मौसम पैटर्न को बाधित कर सकता है, जिससे कुछ क्षेत्रों में वर्षा कम हो सकती है।
  • विलंबित मानसून और मानसून के बाद की कमी:
    • मानसून और मानसून के बाद के मौसम में वर्षा की कमी से जलाशयों में जलस्तर में कमी देखने को मिली है।
    • विलंबित मानसून की शुरुआत और महत्त्वपूर्ण अवधियों के दौरान अपर्याप्त वर्षा ने स्थिति को गंभीर बना दिया है।
    • मानसून के बाद की अवधि (अक्तूबर-दिसंबर, 2023) के दौरान, देश के 50% से अधिक क्षेत्रों में वर्षा की कमी थी।
  • तापमान वृद्धि और वाष्पीकरण:
    • ग्लोबल वार्मिंग के कारण बढ़ते तापमान से वाष्पीकरण की दर तीव्र हो जाती है, जिससे जलाशयों और जल निकायों से जल तेज़ी से कम होने लगता है।
    • उच्च तापमान भी शुष्कता की स्थिति को बढ़ाता है, जिससे कृषि, शहरी खपत और औद्योगिक उद्देश्यों हेतु जल की मांग बढ़ती है।
  • भूजल की कमी: 
    • सिंचाई के लिये अत्यधिक भूजल दोहन से, विशेषकर अपर्याप्त सतही जल स्रोतों वाले क्षेत्रों में, भूजल की कमी हो गई है।
    • दक्षिण भारत में मुख्य रूप से चावल, गन्ना और कपास जैसी फसलों की खेती की जाती है, जिनके लिये पर्याप्त मात्रा में जल की आवश्यकता होती है।
  • जलस्रोतों का प्रदूषण:
    • औद्योगिक निर्वहन, अनुपचारित सीवेज तथा ठोस अपशिष्ट डंपिंग से प्रदूषण ने जल स्रोतों को दूषित कर दिया है, जिससे वे उपभोग के लिये अनुपयुक्त हो गए हैं और उपलब्ध जल आपूर्ति में भी कमी आई है।
    • पर्यावरण प्रबंधन और नीति अनुसंधान संस्थान (Environmental Management & Policy Research Institute – EMPRI) द्वारा किये गए एक अध्ययन में कहा गया है कि बंगलुरु के लगभग 85% जल निकाय औद्योगिक अपशिष्ट, सीवेज और ठोस अपशिष्ट डंपिंग से प्रदूषित हैं।
  • कुप्रबंधन और असमान वितरण:
    • जल संसाधनों की बर्बादी, रिसाव और असमान वितरण सहित अकुशल जल प्रबंधन प्रथाएँ, क्षेत्र में जल की कमी के संकट की गंभीरता में योगदान करती हैं।

भारत में जल संकट के निहितार्थ क्या हैं?

  • स्वास्थ्य संबंधी मुद्दे: 
    • सुरक्षित पेयजल तक पहुँच की कमी से विभिन्न स्वास्थ्य समस्याएँ जैसे निर्जलीकरण, संक्रमण, बीमारियाँ और यहाँ तक कि मृत्यु भी हो सकती है।
    • नीति आयोग की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि अपर्याप्त जल आपूर्ति के कारण भारत में हर वर्ष लगभग 2 लाख लोगों की मृत्यु हो जाती है।
      • विश्व बैंक के अनुसार, भारत में विश्व की 18% आबादी निवास करती है, लेकिन इसके पास केवल 4% लोगों के लिये ही पर्याप्त जल संसाधन हैं।
      • वर्ष 2023 में, लगभग 91 मिलियन भारतीय सुरक्षित जल तक पहुँच से वंचित होंगे।
  • पारिस्थितिकी तंत्र को खतरा:
    • जल की कमी भारत में वन्यजीवों और प्राकृतिक पर्यावासों के लिये भी खतरा उत्पन्न करती है। कई वन्य जीवों को भी जल की तलाश में मानव बस्तियों की ओर जाना पड़ता है, जिससे जीवों एवं मनुष्यों के बीच संघर्ष एवं संकट उत्पन्न हो सकता है।
    • जल की कमी जैवविविधता और पारिस्थितिक तंत्र के पारिस्थितिक संतुलन को भी बाधित करती है।
  • कृषि उत्पादकता में कमी: 
    • जल की कमी का कृषि क्षेत्र पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है, जो देश के लगभग 80% जल संसाधनों का उपभोग करता है।
    • जल की कमी से फसल की उपज कम हो सकती है, खाद्य सुरक्षा प्रभावित हो सकती है और किसानों में निर्धनता बढ़ सकती है।
  • आर्थिक हानि:
    • जल की कमी भारत की आर्थिक वृद्धि और विकास में बाधा उत्पन्न कर सकती है। यह औद्योगिक उत्पादन को प्रभावित कर सकती है, ऊर्जा उत्पादन को कम कर सकती है और जल आपूर्ति एवं उपचार की लागत को बढ़ा सकती है। जल की कमी पर्यटन, व्यापार और सामाजिक कल्याण को भी प्रभावित कर सकती है।
    • विश्व बैंक (2016) की ‘जलवायु परिवर्तन, जल और अर्थव्यवस्था’ (Climate Change, Water and Economy) शीर्षक रिपोर्ट में रेखांकित किया गया है कि जल की कमी वाले देशों को वर्ष 2050 तक आर्थिक विकास में बड़े आघात का सामना करना पड़ सकता है।

भारत में भूजल संकट से निपटने के लिये प्रमुख सरकारी योजनाएँ:

  • जल संरक्षण के लिये मनरेगा
  • जल क्रांति अभियान
  • राष्ट्रीय जल मिशन
  • अटल भूजल योजना (ABHY)
  • जल जीवन मिशन (JJM)
  • राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (NMCG)
  • दक्षिणी भारत में जल संकट से निपटने हेतु एक व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसमें सतत् जल प्रबंधन प्रथाएँ, संरक्षण उपाय, जल भंडारण एवं वितरण के लिये बुनियादी ढाँचे में निवेश, जल-कुशल प्रौद्योगिकियों को बढ़ावा देने के साथ-साथ जल संरक्षण को बढ़ावा देने हेतु जन जागरूकता अभियान भी शामिल हैं।
    • वन वाटर एप्रोच, जिसे एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन (IWRM) के रूप में भी जाना जाता है, में समुदाय, व्यवसायों, उद्योगों, किसानों, संरक्षणवादियों, नीति निर्माताओं, शिक्षाविदों तथा अन्य लोगों को शामिल करके उस पारिस्थितिक एवं आर्थिक स्रोत को एकीकृत, समावेशी और सतत् तरीके से प्रबंधित करना शामिल है।
  • किसानों को ड्रिप सिंचाई, परिशुद्ध कृषि, फसल चक्र एवं कृषि वानिकी जैसी जल-कुशल कृषि पद्धतियों को अपनाने हेतु प्रोत्साहित करना।
    • एम.एस. स्वामीनाथन समिति की रिपोर्ट कहती है कि ‘जल की प्रति बूँद अधिक फसल और आय’ (2006) के अनुसार, ड्रिप एवं स्प्रिंकलर सिंचाई से फसल की खेती में लगभग 50% जल बचाया जा सकता है और साथ ही इससे फसलों की उपज 40-60% तक बढ़ सकती है।
  • जल की कमी के प्रभावों को कम करने के साथ भावी पीढ़ियों के लिये स्थायी जल संसाधन प्रबंधन सुनिश्चित करने हेतु राष्ट्रीय, राज्य एवं स्थानीय स्तर पर समन्वित प्रयासों की आवश्यकता है।
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