भारत में महिला आयोगों की क्या प्रभावशीलता है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारत में महिला आयोगों की स्थापना वृहत वादे और उच्च आकांक्षाओं के साथ की गई थी, जहाँ इन्हें राष्ट्रीय और राज्य दोनों स्तरों पर महिलाओं के अधिकारों एवं हितों की रक्षा के लिये समर्पित संस्थानों के रूप में परिकल्पित किया गया था, लेकिन समय गुज़रने के साथ महिलाओं से संबंधित महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर उनकी कार्यप्रणाली एवं प्रतिक्रियाओं की आलोचनात्मक समीक्षा करने की आवश्यकता स्पष्ट हो गई है। मणिपुर में महिलाओं से छेड़छाड़ और बलात्कार की हालिया घटनाओं—जिससे मानवीय गरिमा एवं अधिकारों की क्रूर उपेक्षा की चिंताजनक स्थिति सामने आई है, ने इन आयोगों के कार्यकरण की ओर देश का गहन ध्यान आकर्षित किया है।

महिला आयोग:

  • राष्ट्रीय महिला आयोग (National Commission for Women- NCW): 
    • NCW भारत सरकार का एक सांविधिक निकाय है, जो आमतौर पर महिलाओं को प्रभावित करने वाले सभी नीतिगत मामलों पर सरकार को सलाह देता है।
    • इसका गठन जनवरी 1992 में भारतीय संविधान के प्रावधानों के तहत किया गया था, जैसा कि राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम, 1990 में परिभाषित किया गया था।
    • NCW का उद्देश्य भारत में महिलाओं के अधिकारों का प्रतिनिधित्व करना और उनसे जुड़े मुद्दों एवं चिंताओं के लिये अभिव्यक्ति प्रदान करना है।
    • दहेज, राजनीतिक मामले, धार्मिक मामले, नौकरियों में महिलाओं के समान प्रतिनिधित्व और श्रम क्षेत्र में महिलाओं के शोषण जैसे विभिन्न विषय उसके अवलोकन के दायरे में शामिल रहे हैं।
    • NCW हिंसा, भेदभाव, उत्पीड़न की शिकार या अपने अधिकारों से वंचित महिलाओं की शिकायतें भी स्वीकार करता है और मामलों की जाँच करता है।
  • राज्य महिला आयोग (State Commissions for Women): 
    • NCW के अलावा, भारत के विभिन्न राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में राज्य महिला आयोगों का भी गठन किया गया है।
    • ये आयोग संबंधित राज्य अधिनियमों या आदेशों के तहत गठित किये गए हैं और NCW के समान ही कार्य और शक्तियाँ रखते हैं।
    • वे राज्य और केंद्रशासित प्रदेश जिनके पास महिलाओं के लिये अपने स्वयं के आयोग हैं: आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली, गोवा, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, झारखंड, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, मेघालय, मिज़ोरम, नगालैंड, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान, सिक्किम, तमिलनाडु, तेलंगाना, त्रिपुरा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल।

महिला आयोग के उद्देश्य एवं कार्य:  

  • उद्देश्य:
    • महिलाओं के अधिकारों का प्रतिनिधित्व:
      • राष्ट्रीय महिला आयोग का प्राथमिक उद्देश्य भारत में महिलाओं के अधिकारों का प्रतिनिधित्व और पक्षसमर्थन करना है।
      • वे महिलाओं के मुद्दों एवं चिंताओं को अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं और समाज में महिलाओं के समक्ष विद्यमान विभिन्न चुनौतियों को हल करते हैं।
    • नीतिगत सलाह: 
      • महिला आयोगों को महिलाओं को प्रभावित करने वाले नीतिगत मामलों पर सरकार को सलाह देने का कार्य सौंपा गया है।
      • वे लैंगिक समानता को बढ़ावा देने और महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने से संबंधित नीतियों एवं विधान को आकार देने के लिये मूल्यवान अनुशंसाएँ और सुझाव प्रदान करते हैं।
    • संवैधानिक प्रावधानों की सुरक्षा: 
      • महिला आयोग भारतीय संविधान और अन्य कानूनों के तहत महिलाओं को प्रदत्त सुरक्षा उपायों से संबंधित सभी मामलों की जाँच एवं परीक्षण के लिये ज़िम्मेदार हैं।
      • वे सुनिश्चित करते हैं कि महिलाओं के लिये संवैधानिक अधिकारों और सुरक्षा को बरकरार रखा जाए और प्रभावी ढंग से प्रवर्तित किया जाए।
    • शिकायतों का प्रबंधन: 
      • इन आयोगों को महिलाओं के अधिकारों के उल्लंघन से संबंधित शिकायतों का समाधान करने का दायित्व सौंपा गया है।
      • वे महिलाओं के साथ भेदभाव, उत्पीड़न, हिंसा और अन्य अन्याय के मामलों की जाँच करने और समाधान प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
    • स्वतः संज्ञान से कार्रवाई: 
      • महिला आयोग शिकायतों पर प्रतिक्रिया देने के अलावा महिला अधिकारों से वंचना और महिलाओं की सुरक्षा के उद्देश्य से बनाए गए कानूनों के गैर-अनुपालन से संबंधित मामलों का स्वतः संज्ञान (Suo Motu) भी ले सकता है। 
      • इससे उन्हें महिलाओं को प्रभावित करने वाले उभरते मुद्दों को सक्रिय रूप से संबोधित करने का अवसर मिलता है।
    • महिला सशक्तीकरण:
      • महिला आयोग महिलाओं के आर्थिक विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य को बढ़ावा देकर उन्हें सशक्त करने की दिशा में कार्य करता है।
      • उनका लक्ष्य महिलाओं की रोज़गार क्षमता को बढ़ाना और विभिन्न क्षेत्रों में उनकी उन्नति के अवसर सृजित करना है।
  • कार्य: 
    • अनुसंधान एवं अध्ययन: 
      • महिला आयोग महिलाओं के अधिकारों एवं लैंगिक समानता से संबंधित मुद्दों पर अनुसंधान और अध्ययन कार्य करते हैं।
      • वे साक्ष्य-आधारित नीति अनुशंसाओं का समर्थन करने के लिये डेटा और सूचना एकत्र करते हैं।
    • पक्षसमर्थन और जागरूकता:
      • ये आयोग महिलाओं के अधिकारों, लैंगिक समानता और संबंधित मुद्दों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिये पक्षसमर्थक प्रयासों में संलग्न हैं।
      • वे सामाजिक जागरूकता को बढ़ावा देने और महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव लाने के लिये विभिन्न अभियानों एवं कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं।
    • विधिक सहायता और समर्थन:
      • महिला आयोग भेदभाव, हिंसा या अन्य अधिकार उल्लंघनों का शिकार हुई महिलाओं को प्रायः विधिक सहायता और समर्थन भी प्रदान करते हैं।
      • वे महिलाओं को न्याय तक पहुँच बना सकने और कानूनी प्रक्रियाओं का उपयोग कर सकने में सहायता प्रदान करते हैं।
    • प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण: 
      • यह आयोग विधि प्रवर्तन एजेंसियों सहित विभिन्न हितधारकों के लिये प्रशिक्षण कार्यक्रम और क्षमता निर्माण पहल की पेशकश करता है ताकि उन्हें महिलाओं के मुद्दों के प्रति संवेदनशील बनाया जा सके तथा लैंगिक चुनौतियों के प्रति उनकी प्रतिक्रिया में सुधार लाया जा सके।
    • नीतिगत अनुशंसाएँ: 
      • महिला आयोग अपने शोध और निष्कर्षों के आधार पर प्रणालीगत लैंगिक असमानताओं को दूर करने तथा अधिक लिंग-समावेशी समाज का निर्माण करने के लिये सरकार को नीतिगत अनुशंसाएँ प्रदान करते हैं।
    • सहयोग और साझेदारी:
      • ये आयोग महिलाओं के अधिकारों एवं लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिये सामूहिक प्रयास का सृजन करने के लिये गैर- सरकारी संगठनों, नागरिक समाज संगठनों और अन्य सरकारी निकायों सहित विभिन्न हितधारकों के साथ सहयोग का निर्माण करते हैं।

महिला आयोगों के समक्ष विद्यमान चुनौतियाँ:  

  • पर्याप्त संसाधनों और स्वायत्तता का अभाव:
    • महिला आयोगों को प्रायः वित्तीय बाधाओं का सामना करना पड़ता है। वे सरकारी वित्तपोषण पर बहुत अधिक निर्भर होते हैं, जो उनकी स्वतंत्रता को प्रभावित कर सकता है तथा प्रभावी ढंग से कार्य कर सकने की उनकी क्षमता को बाधित कर सकता है।
  • राजनीतिक हस्तक्षेप: 
    • सत्तारूढ़ सरकार द्वारा मनोनीत होने के कारण महिला आयोगों को उन मामलों से बचने के लिये दबाव का सामना करना पड़ सकता है जो संभावित रूप से सरकार या उसके सहयोगियों पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकते हैं।
    • यह राजनीतिक हस्तक्षेप महिलाओं के अधिकारों के प्रति आयोग की निष्पक्षता एवं प्रतिबद्धता को कमज़ोर कर सकता है।
  • सीमित जागरूकता और पहुँच: 
    • महिलाओं की एक बड़ी संख्या (विशेषकर ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों में) महिला आयोगों के अस्तित्व और भूमिका से प्रायः अवगत नहीं है।
    • जागरूकता की कमी, चुनौतियों का सामना करने पर इन आयोगों से सहायता और समर्थन ले सकने की उनकी क्षमता को बाधित करती है।

महिला आयोगों से जुड़े विभिन्न विवाद:  

  • मणिपुर घटना पर प्रतिक्रिया:
    • मणिपुर मामले में NCW की प्रतिक्रिया की आलोचना की गई है, जहाँ वह त्वरित और सक्रिय रूप से कार्रवाई करने में विफल रहा।
  • मैंगलोर पब हमले पर प्रतिक्रिया: 
    • वर्ष 2009 में मैंगलोर के एक पब में महिलाओं के एक समूह पर हमले के मामले में NCW की प्रतिक्रिया को असंवेदनशील एवं ‘विक्टिम-ब्लेमिंग’ के रूप में देखा गया और इसकी व्यापक निंदा की गई।
    • इस मामले में आयोग की एक सदस्य ने पीड़िताओं पर स्वयं की सुरक्षा का ध्यान न रखने का आरोप लगाया था और शिकायत करने की उनकी अनिच्छा पर सवाल उठाया था।
  • यौन उत्पीड़न के आरोपों को हल करने में विफलता:
    • वर्ष 2019 में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध यौन उत्पीड़न के आरोपों पर NCW की प्रतिक्रिया ने महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के संबंध में इसकी सक्रियता और इच्छा पर चिंताएँ उत्पन्न की।

NCW की प्रमुख उपलब्धियाँ: 

  • महिला अधिकारों से संबंधित कानून का सुदृढ़ीकरण: 
    • NCW ने घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 और दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961 जैसे महिलाओं के अधिकारों से संबंधित कानूनों के कार्यान्वयन को सुदृढ़ करने में मदद की है।
  • कानूनी और मनोवैज्ञानिक परामर्श:
    • इसने हिंसा और यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाओं को कानूनी और मनोवैज्ञानिक परामर्श प्रदान किया है।
  • कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न: 
    • इसने कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और  निवारण) अधिनियम, 2013 का कार्यान्वयन और इसकी निगरानी सुनिश्चित की है।
  • ‘जेंडर प्रोफ़ाइल’:
    • इसने सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में (लक्षद्वीप को छोड़कर) महिलाओं की स्थिति एवं उनके सशक्तीकरण का आकलन करने के लिये जेंडर प्रोफ़ाइल तैयार किया है।
  • बाल विवाह और अन्य कानूनी मुद्दे: 
    • इनसे बाल विवाह के मुद्दे पर सक्रिय से कार्य किया है, विधिक जागरूकता कार्यक्रमों एवं पारिवारिक महिला लोक अदालत को प्रायोजित किया है और दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961, PNDT अधिनियम 1994, भारतीय दंड संहिता 1860 तथा राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम 1990 जैसे कानूनों की समीक्षा की है ताकि इन्हें अधिक कठोर एवं प्रभावी बनाया जा सके।
  • कार्यशालाएँ और परामर्श:
    • इसने कार्यशालाओं/परामर्शों का आयोजन किया है, महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण पर विशेषज्ञ समितियों का गठन किया है, लिंग जागरूकता के लिये कार्यशालाएँ/सेमिनार आयोजित किये हैं और कन्या भ्रूण हत्या, महिलाओं के विरुद्ध हिंसा आदि के खिलाफ प्रचार अभियान चलाया है ताकि इन सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध समाज में जागरूकता उत्पन्न हो सके।
  • प्रकाशन: 
    • यह नियमित रूप से ‘राष्ट्र महिला’ नामक एक मासिक समाचार पत्र का हिंदी और अंग्रेज़ी में प्रकाशन करता रहा है।

महिला आयोगों में सुधार के लिये रणनीतियाँ:  

  • पारदर्शी नियुक्ति प्रक्रिया: 
    • महिला आयोगों के अध्यक्षों एवं सदस्यों की नियुक्ति के लिये योग्यता आधारित एवं पारदर्शी प्रक्रिया अपनाई जाए। राजनीतिक विपक्ष, न्यायपालिका और नागरिक समाज संगठनों सहित विभिन्न हितधारकों के प्रतिनिधियों को शामिल करने से निष्पक्षता सुनिश्चित करने में मदद मिल सकती है। 
  • ‘सोशल ऑडिट’: 
    • महिला आयोगों के प्रदर्शन, धन के उपयोग और प्रभाव का आकलन करने के लिये बाह्य एजेंसियों की सहायता से नियमित रूप से इनका सामाजिक लेखा परीक्षण (Social Audit) किया जाना चाहिये।
    • यह उन्हें जवाबदेह बनाएगा और सुधार के लिये अंतर्दृष्टि प्रदान करेगा।
  • क्षेत्रीय दौरों को प्रोत्साहन: 
    • आयोग के सदस्यों और कर्मियों को अधिक क्षेत्रीय दौरे करने, विभिन्न भूभागों में महिलाओं के साथ संवाद करने और उनकी अनूठी चुनौतियों एवं आवश्यकताओं को समझने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
  • जागरूकता और पहुँच: 
    • हेल्पलाइन, ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म और मोबाइल आउटरीच जैसे विभिन्न चैनलों के माध्यम से, विशेष रूप से दूरदराज के क्षेत्रों में, महिलाओं के बीच महिला आयोग के बारे में अधिक जागरूकता को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
  • समानुभूति और संवेदनशीलता प्रशिक्षण:
    • संकटग्रस्त महिलाओं के प्रति समानुभूति और संवेदनशीलता विकसित करने के लिये आयोग के सदस्यों और कर्मियों को प्रशिक्षण प्रदान किया जाना चाहिये। इससे मामलों से निपटने में एक समर्थनकारी और पीड़िता-केंद्रित दृष्टिकोण के निर्माण में मदद मिलेगी।
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