भारत में अध्यादेशों का अधिनियमन और इसपर होने वाली राजनीति क्या है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारत के राष्ट्रपति ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (National Capital Territory- NCT) में दिल्ली के उपराज्यपाल को सेवाओं के संदर्भ में अधिकार देते हुए अध्यादेश जारी या प्रख्यापित किया है।

  • इस अध्यादेश के तहत “राष्ट्रीय राजधानी सिविल सेवा प्राधिकरण” की स्थापना की गई जिसमें मुख्यमंत्री और दो वरिष्ठ IAS अधिकारी शामिल हैं, जो उन्हें बहुमत के माध्यम से मामलों को तय करने का अधिकार प्रदान करता है।
  • आलोचकों का तर्क है कि यह कदम प्रभावी रूप से ऐसी स्थिति उत्पन्न करता है जहाँ निर्वाचित मुख्यमंत्री के विचारों को संभावित रूप से खारिज किया जा सकता है।

भारतीय राजनीति में अध्यादेश:

  • परिचय: 
    • भारत के संविधान का अनुच्छेद 123 जब संसद के दोनों सदनों में से कोई भी अत्यावश्यक परिस्थितियों में सत्र में नहीं होता है तो राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने हेतु कानून बनाने की कुछ शक्तियाँ प्रदान करता है।
      • इसलिये संसद द्वारा अध्यादेश जारी करना संभव नहीं है।
      • जब अध्यादेश प्रख्यापित किया जाता है लेकिन विधायी सत्र अभी शुरू नहीं हुआ है, तो अध्यादेश कानून के रूप में प्रभावी रहता है। इसकी वही शक्ति एवं प्रभाव है जो विधायिका के अधिनियम का होता है।
        • लेकिन इसके पुन: प्रख्यापन के छह सप्ताह के भीतर संसद द्वारा अनुसमर्थन आवश्यक होता है।
      • राष्ट्रपति द्वारा प्रख्यापित अध्यादेश की वैधता इसके प्रख्यापन की तारीख से छह सप्ताह और अधिकतम छह महीने तक होती है।
    • किसी राज्य का राज्यपाल भी राज्य में विधानसभा सत्र न होने की स्थिति में भारत के संविधान के अनुच्छेद 213 के तहत अध्यादेश जारी कर सकता है।
    • यदि दोनों सदन अलग-अलग तिथियों पर अपना सत्र शुरू करते हैं, तो बाद की तारीख पर विचार किया जाता है (अनुच्छेद 123 और 213)।
  • अधिनियमन: 
    • अध्यादेश बनाने की प्रक्रिया में अध्यादेश लाने का निर्णय सरकार के पास होता है, क्योंकि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करता है।
      • यदि राष्ट्रपति आवश्यक समझे, तो वह मंत्रिमंडल की सिफारिश के लिये  पुनर्विचार हेतु इसे वापस कर सकता है।
      • हालाँकि यदि इसे वापस (पुनर्विचार के साथ या बिना) भेजा जाता है, तो राष्ट्रपति को इसे प्रख्यापित करना होता है।
  • अध्यादेश की वापसी: 
    • किसी संभावित कमी के कारण राष्ट्रपति एक अध्यादेश को वापस ले सकता है और संसद के दोनों सदन इसे अस्वीकार करने के लिये संकल्प पारित कर सकते हैं। हालाँकि एक अध्यादेश की अस्वीकृति का अर्थ यह होगा कि सरकार ने बहुमत खो दिया है।
      • हालाँकि यदि कोई अध्यादेश संसद की क्षमता के दायरे से बाहर कानून बनाता है, तो इसे शून्य माना जाता है।
  • अध्यादेश का पुन: प्रख्यापन:
    • जब कोई अध्यादेश समाप्त हो जाता है, तो सरकार आवश्यकता पड़ने पर इसे फिर से प्रख्यापित करने का विकल्प चुन सकती है।
    • वर्ष 2017 के एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि विधायी विचार के बिना बार-बार पुन: प्रचार करना असंवैधानिक होगा और विधायिका की भूमिका का उल्लंघन होगा।
      • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि अध्यादेश जारी करने की शक्ति को एक आपातकालीन उपाय के रूप में माना जाना चाहिये, न कि विधायिका को बायपास करने के साधन के रूप में।

नोट: किसी भी अन्य कानून की तरह एक अध्यादेश पूर्वव्यापी हो सकता है यानी यह पिछली तारीख से लागू हो सकता है। यह संसद के किसी अधिनियम या किसी अन्य अध्यादेश को संशोधित या निरस्त भी कर सकता है।

फायदानुकसान
वे जरूरी मामलों पर त्वरित और प्रभावी कार्रवाई की अनुमति देते हैं।वे कानून बनाने की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को दरकिनार करते हैं और संसदीय निरीक्षण को कम करते हैं।
वे विधायी बाधाओं के बिना नीति कार्यान्वयन को सक्षम करते हैं।वे शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को कमज़ोर करते हैं और विधायिका के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं।
न्यायिक अंतर या अस्पष्टता के मामले में वे कानूनी निश्चितता और स्पष्टता प्रदान करते हैं।वे कानूनी अस्थिरता पैदा करते हैं क्योंकि वे अस्थायी हैं और परिवर्तन या निरसन के अधीन हैं।
वे कार्यकारी शाखा की अनुक्रियता और जवाबदेही को दर्शाते हैं।उनका राजनीतिक या व्यक्तिगत लाभ के लिये या सार्वजनिक जाँच या बहस से बचने हेतु दुरुपयोग किया जा सकता है।

अध्यादेशों पर अन्य विगत न्यायिक घोषणाएँ:

  • आर.सी. कूपर बनाम भारत संघ (1970): इस मामले ने बैंकिंग कंपनियों (उपक्रमों का अधिग्रहण और हस्तांतरण) अध्यादेश, 1969 को चुनौती दी, जिसने भारत में 14 प्रमुख बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया।
    • सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, अध्यादेश की आवश्यकता के संबंध में राष्ट्रपति की संतुष्टि न्यायिक समीक्षा से मुक्त नहीं है और इसे चुनौती दी जा सकती है।
    • न्यायालय के अनुसार, एक अध्यादेश संसद के अधिनियम के समान संवैधानिक सीमाओं के अधीन है और संविधान के किसी भी मौलिक अधिकार या अन्य प्रावधानों का उल्लंघन नहीं कर सकता है।
  •  ए.के. रॉय बनाम भारत संघ (1982): इस मामले में राष्ट्रीय सुरक्षा अध्यादेश, 1980 को चुनौती दी गई थी, जिसमें बिना मुकदमे के एक वर्ष तक के लिये व्यक्तियों को निवारक हिरासत में रखने का प्रावधान था।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने अध्यादेश की वैधता का समर्थन किया, लेकिन इसके संचालन के लिये कुछ सुरक्षा उपाय निर्धारित किये जैसे कि एक सलाहकार बोर्ड द्वारा समय-समय पर समीक्षा, हिरासत में लिये गए व्यक्ति को हिरासत के आधार की सूचना देना और हिरासत के खिलाफ प्रतिनिधित्व का अवसर देना
    • न्यायालय के अनुसार, एक अध्यादेश का उपयोग संसदीय कानून के विकल्प के रूप में नहीं किया जाना चाहिये और इसका उपयोग केवल अत्यावश्यकता या अप्रत्याशित आपात स्थिति के मामलों में किया जाना चाहिये।
  • डी.सी. वाधवा बनाम बिहार राज्य (1987): इस मामले ने विभिन्न विषयों पर वर्ष 1967-1981 के बीच बिहार के राज्यपाल द्वारा जारी किये गए अध्यादेशों की एक शृंखला को चुनौती दी, जिनमें से कुछ को विधानसभा द्वारा पारित किये बिना कई बार प्रख्यापित किया गया था।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने सभी अध्यादेशों को असंवैधानिक बताते हुए रद्द कर दिया तथा यह माना कि अध्यादेशों का पुन: प्रख्यापन संविधान के साथ धोखा और लोकतांत्रिक विधायी प्रक्रिया का उल्लंघन है।
    • न्यायालय ने यह भी कहा कि एक अध्यादेश स्वतः ही समाप्त हो जाता है यदि इसे विधायिका द्वारा पुन: इसके सत्र के छह सप्ताह की अवधि में अनुमोदित नहीं किया जाता है और पुन: प्रख्यापन द्वारा इसे जारी नहीं रखा जा सकता है।
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