क्या हैं अशोक गहलोत व सचिन पायलट के बीच की लड़ाई ?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
राजस्थान कांग्रेस की राजनीति इस वक्त उस पराक्रमी लोकतांत्रिक ढांचे की तरह है, जहां चरण वंदना का शोर दिखता तो संवैधानिक है पर आकलन करने पर इस ढांचे के बीजगणित में सियासी चालों और चरित्रों की भयानक तस्वीर उभरती है। यह स्पष्ट होने लगता है कि सियासत में वफादारी, लोकतंत्र, निष्ठा, नैतिकता सब शतरंज के प्यादों से ज्यादा कुछ नहीं। सत्य-निष्ठा जैसे शब्द हास्यास्पद और बकवास कुतर्क हैं।
दरअसल राजनीति का एक ही प्रचंड और चतुर सिद्धांत है- जरूरत से ज्यादा शोर, रोष और प्रतिरोध तब ही कीजिए जब आपके सियासी तजुर्बे की जमीन कोई हिला रहा हो। रविवार को 90 से ज्यादा कांग्रेसी विधायकों के क्रोध की कहानी का रोचक किस्सा भी यही है। अब इस क्रोध की कहानी का वह हिस्सा जिसने जयपुर में कांग्रेस के दर्शनशास्त्र के सभी नैतिक अध्याय बदल दिए।
राजस्थान की सियासत में क्या होने वाला है, इसका पूरा कालचक्र या स्क्रिप्ट दिल्ली में लिखी गई थी। तय हुआ कि विधायक दल की बैठक में दो प्रमुख एजेंडे होंगे। पहला, राजस्थान का नया सीएम आलाकमान तय करेगी, इसपर सभी विधायकों को सहमत होना था। दूसरा, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के इस्तीफे की पेशकश होनी थी और अध्यक्ष पद पर नामांकन से पहले ही सचिन पायलट को नया सीएम बनना था।
यानी सारे विधायकों को इस स्क्रिप्ट को हंसते-हंसते स्वीकार करना था। पर ऐसा हुआ नहीं। क्यों? सबको पता है। सियासत के पुराने महाराजा ने दिल्ली से आए आदेशों को दरहम-बरहम कर दिया। अपनी नई स्क्रिप्ट लिख डाली। भरपूर एक्शन से भरी। क्या राजस्थान कांग्रेस के इतिहास में पहले कभी आलाकमान का ऐसा तिरस्कारपूर्ण विरोध हुआ? क्या सत्ता केंद्र से ऐसी चुनौती मिली?
इतिहास के पास ऐसे दस्तावेज नहीं हैं, लेकिन पुरानी और नई पीढ़ी सत्ता के लिए उलझती रही है। इसके भरपूर साक्ष्य हैं। 70 के दशक में कद्दावर नेता मोहनलाल सुखाड़िया को सीएम पद से हटाकर बरकतउल्ला खां को मुख्यमंत्री बनाया गया। तब सुखाड़िया के समर्थन में कई विधायक विरोध करने इंदिरा गांधी के सामने जा खड़े हुए। इनका कहना था कि सुखाड़िया के बिना राजस्थान में अंधेरा हो जाएगा।
इंदिरा गांधी ने कहा- अंधेरे के बाद उजाला होता ही है। इसलिए जयपुर लौट जाइए। जगन्नाथ पहाड़िया को हटाने पर भी सियासत बेचैन हुई। कांग्रेस के 98 विधायकों ने पहाड़िया के समर्थन में चिट्ठी दिल्ली भेजी, लेकिन आलाकमान ने खारिज कर दिया। शिवचरण माथुर सीएम बने। आज की तस्वीर भी ऐसी ही है। सबसे दिलचस्प 1998 का चुनाव रहा। प्रदेश अध्यक्ष अशाेक गहलोत थे और परसराम मदेरणा नेता प्रतिपक्ष।
पूरे चुनाव में मदेरणा पोस्टर बॉय रहे। पर नतीजों के बाद एक लाइन का प्रस्ताव पास हुआ और जातिगत विरोध के बाद भी सीएम गहलोत ही बने। लेकिन 2022 में यह सवाल सनसनीखेज है कि इस बार ऐसा क्यों नहीं हुआ? क्या आलाकमान की दूरदृष्टि, दलीलें, फैसले इतने खराब हैं कि विधायकों का बड़ा कुनबा इन्हें मानने को तैयार ही नहीं? समझने वाली बात यह है कि लड़ाई क्या है? कौन करा रहा है?
इसके नतीजे क्या होंगे? क्या यह मुख्यमंत्री गहलोत व सचिन पायलट के बीच की लड़ाई है जिसे गहलोत समर्थक विधायक लड़ रहे हैं? सुनते आए हैं कि सियासत में कोई भी भाव स्थाई नहीं होता। न दोस्ती, न दुश्मनी। लेकिन जयपुर में जो हुआ उसने इन सियासी किवदंतियों के सारे मायने बदल दिए। यह सही है कि आलाकमान एक जटिल व्यवस्था है और अंतिम निर्णय ठीक से नहीं लिए जाते।
अब यक्ष प्रश्न… आगे क्या? इस त्रिशंकु के बीच संतुलन का तरीका क्या? राजस्थान कांग्रेस के लिए अगले 48 घंटे महत्वपूर्ण हैं। क्या सुलह होगी तो पिछले सत्ता संघर्ष की तरह मजबूरी व अपमान भरी तो नहीं? इस चुनौती के बाद गहलोत आलाकमान के सामने अपना पक्ष और जो दलीलें रखेंगे, पूरा निर्णय उसी पर होगा।
वफादारी-गद्दारी के मायने अब खत्म हो गए हैं। असहाय, लाचार आलाकमान को अपना अस्तित्व बचाने का एक दमदार व सर्वश्रेष्ठ उदाहरण पेश करना है। क्या सोनिया-राहुल इस काले अध्याय को चमकदार उदाहरण में बदलने का जोखिम उठाएंगे? और क्या राहुल गांधी के पास भी झटपट जादू करने की कोई सियासी छड़ी है?
इस विरोध ने आलाकमान की प्रतिष्ठा की धज्जियां तो उड़ाई ही हैं, आंतरिक लोकतंत्र का मजाक भी बना दिया। 2023 में विधानसभा चुनाव होने हैं, लेकिन इस संघर्ष से स्पष्ट है कि चुनाव कितने चुनौती भरे होंगे।
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