रूस के सापेक्ष भारत और अमेरिका के बीच संबंधों की क्या है अहमियत?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

छह दिसंबर को रूस के राष्ट्रपति पुतिन भारत आ रहे हैं। ऐसे में रूस और भारत के संबंधों में और मजबूती आने की संभावनाएं व्यक्त की जा रही हैं। वहीं देश में एक वर्ग भारत रूस संबंधों पर भारत अमेरिका संबंधों को अधिक तरजीह देने की बात का लगातार विरोध करता रहा है। एक तरफ जहां भारत और रूस की दिसंबर में पहली बार टू प्लस टू वार्ता का आयोजन किया जाना है, इसमें डिफेंस, ट्रेड और एनर्जी पर नई मजबूत साझेदारियां की जानी हैं, क्षेत्रीय सुरक्षा के नए तरीकों को खोजा जाना है, वहीं कुछ नेताओं का भारत अमेरिका संबंध विरोधी बयान इस दिशा में ध्यान आकर्षित करने वाला है।

इस बीच कांग्रेस पार्टी के नेता मणिशंकर अय्यर का एक बयान आया है कि भारत 2014 के बाद वास्तव में अपनी आजादी खो चुका है और वह अमेरिका का गुलाम बन चुका है। वैसे भारत के लोग इस बयान को तिनका भर तवज्जो नहीं देते, क्योंकि दिव्य मणि से प्रकाशित इस अलौकिक ज्ञान को वो कई बार सारहीनता सिंड्रोम से ग्रस्त पा चुके हैं।

लेकिन अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विश्लेषकों के लिए यह जिज्ञासा का विषय होना चाहिए कि क्या भारत अमेरिका का गुलाम है और भारत लगातार रूस के साथ ज्यादतियां कर रहा है, रूस को तवज्जो नहीं दे रहा है, ईरान से साथ के मुद्दे पर अमेरिका से खौफ खा रहा है। अमेरिका केंद्रित होकर तीसरी दुनिया के साथ राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक अन्याय कर रहा है।

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इस संबंध में विडंबना यह है कि लोगों की समझ हल्की हो गई दिखती है। आज भारत के राष्ट्रीय, वैश्विक और क्षेत्रीय हितों को पूरा करने में जिस देश की साङोदारी की सबसे अधिक जरूरत है वो निर्विवाद रूप से अमेरिका है। भारतीय हितों को अमेरिका से जोड़कर देखना अमेरिका परस्त हो जाना, पूंजीवादी मानसिकता परस्त हो जाना कहीं से नहीं है। ऐसे में यहां कुछ महत्वपूर्ण आयामों पर बात करना जरूरी हो जाता है।

पहला, आज वैश्विक आतंकवाद खासकर दक्षिण एशिया में आतंकवाद से निपटने में भारत के लिए सबसे बड़ा सहायक देश कौन हो सकता है? जवाब है अमेरिका, इजरायल, फ्रांस, ब्रिटेन जैसे देश। इसका यह मतलब नहीं है कि रूस इस मसले पर हमारे लिए महत्वहीन हो गया है, लेकिन यह बात सच है कि रूस ने अमेरिका के साथ शत्रुता, यूरोपीय देशों से शत्रुता, क्रीमिया यूक्रेन जैसे मसले का अति राजनीतिकरण कर कहीं न कहीं विश्व राजनीति में अपने महत्व और प्रभाव को कम कर लिया। रूस का विश्व राजनीति में एक अलग ही महत्व हो सकता था, लेकिन पुतिन की महत्वाकांक्षाओं ने कई मायने में रूस के रुतबे में कमी की और प्रभाव में आई कमी का असर अंतरराष्ट्रीय राजनीति में द्विपक्षीय व बहुपक्षीय संबंधों पर पड़ता ही है।

दूसरा, क्या महासागरीय सुरक्षा खासकर हिंद महासागर की सुरक्षा, इंडो पैसिफिक की सुरक्षा में रूस अमेरिका की तुलना में भारत की स्वाभाविक पसंद बन सकता था या बन सकता है? क्या रूस चीन का उस स्तर पर विरोध कर सकता था या कर सकता है जैसा क्वाड देश कर रहे हैं? जवाब मिलेगा, नहीं। यह जरूर है कि रूस ने भारत के साथ दक्षिण चीन सागर में एक वैकल्पिक व्यापारिक मार्ग की बात आर्थिक हितों की सुरक्षा के लिए की थी, लेकिन चीन के खिलाफ अमेरिका, फ्रांस की तरह युद्धपोतों की तैनाती का साहस नहीं दिखा पाया था। बल्कि चीन के साथ मिलकर रूस ने तो क्वाड को एशियाई नाटो की उपाधि से भी विभूषित कर दिया था।

तीसरा, क्या भारत को द्विपक्षीय आर्थिक व्यापार में रूस से उतना लाभ मिल सकता है जितना उसे अमेरिका से मिलता है? इस समय भारत अमेरिका के बीच 149 अरब डालर का द्विपक्षीय वार्षिक व्यापार है जिसे 500 अरब डालर तक पहुंचाने का लक्ष्य भी दोनों देशों ने तय किया है और शायद आप जानते होंगे कि अमेरिका के साथ द्विपक्षीय व्यापार में ट्रेड बैलेंस लगातार भारत के पक्ष में रहा है यानी भारत ने अमेरिका को निर्यात ज्यादा किया है, आयात कम। वहीं भारत का रूस के साथ द्विपक्षीय वार्षिक व्यापार देखें तो वह महज 8.1 अरब डालर है और भारत इसमें व्यापार घाटे की स्थिति में है। भारत का रूस को निर्यात मात्र 2.6 अरब डालर है, जबकि आयात 5.48 अरब डालर। अब आर्थिक हितों की दृष्टि से अमेरिका हमारी पसंद बनता है तो ये गुलामी कैसे हुई।

चौथा, यह सार्वभौमिक सत्य है कि आज भारत को नाभिकीय व्यापार के स्तर पर जो वैश्विक पहचान और सुविधा मिली है, उसकी नींव अमेरिका ने ही रखी। यह भी सच है कि 2004 से पहले इस नींव को किसी अन्य देश को अमेरिका ने ही भरने नहीं दिया था। वर्ष 2004 में जब ‘नेक्स्ट स्टेप इन स्ट्रेटेजिक पार्टनरशिप एग्रीमेंट’ दोनों देशों के बीच हुआ, उसी के बाद भारत की 30 वर्षीय नाभिकीय अस्पृश्यता भी दूर हुई और अमेरिका के सहयोगियों समेत तमाम अन्य साङोदारों ने भी भारत को मान्यता देते हुए उससे नाभिकीय समझौते किए। इसी का परिणाम है कि अब तक 18 देशों ने भारत के साथ ऐसे समझौते कर रखे हैं।

पांचवां, भारत और अमेरिका इस समय एक दूसरे के मुख्य रक्षा साङोदार हैं। रक्षा तकनीक भारत को देने में अमेरिका का अपना एक खास महत्व है। बहुत से अंतरराष्ट्रीय विश्लेषक यह मानते हैं कि इस मामले में अमेरिका का महत्व रूस से ज्यादा है। यहां अमेरिका रूस के महत्व से ज्यादा जरूरी बात यह है कि भारत की प्रतिरक्षा आवश्यकताएं क्या हैं और ऐसी कौन सी विशेष प्रतिरक्षा तकनीक है, जो भारत की अमेरिका से मिलती है और भारत का स्वाभाविक झुकाव अमेरिका की तरफ बढ़ जाता है।

साइबर सुरक्षा सहयोग : इस संदर्भ में हम अमेरिका के साथ साझेदारी की उपेक्षा नहीं कर सकते। अमेरिका उन पांच प्रमुख देशों में से भी एक है जहां सर्वाधिक भारतीय प्रवासी रहते हैं और बहुत बड़े पदों पर हैं। अमेरिका की सीनेट, प्रतिनिधि सभा भारतीय मूल के विधि निर्माताओं के महत्व को मान्यता देती है। इस मामले में रूस अमेरिका से पीछे हो जाता है। यह एक बड़ा कारण है कि अमेरिकी भारतीय प्रवासी नागरिकों ने भारत अमेरिका संबंधों को गुलामी नहीं, बल्कि पारस्परिक राष्ट्रीय हितों के आधार पर देखा है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, क्वांटम टेक्नोलाजी और साइबर साझेदारी, अमेरिका द्वारा भारत को सबमरीन तकनीक देने पर विचार जैसे कई पहलू भारत अमेरिका संबंधों को एक नया ही आयाम देते हैं।

अब यहां ये भी जानना जरूरी है कि भारत अमेरिका साङोदारियों को पसंद न करने वाले लोगों को इस बात का पता होना चाहिए कि अगर भारत आंख बंदकर अमेरिका की हर बात, हर शर्त मान रहा होता तो शायद भारत अमेरिका के बीच कोई मतभेद, तनाव ही नहीं उभरते। लेकिन ऐसा नहीं है, भारत ने अपने राष्ट्रीय और आर्थिक, व्यापारिक हितों, विश्व राजनीति में अपनी पहुंच और छवि को सुरक्षित व मजबूत करने के लिए ऐसे कई फैसले लिए हैं जिससे उसे अमेरिका के आक्रोश, असंतुष्टि का कारण बनना पड़ा है।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि हर देश का अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अपना एक विशेष महत्व, भूमिका, योगदान, प्रभाव है। तमाम आयाम ऐसे हैं जिसमें रूस का स्थान अमेरिका नहीं ले सकता और न ही अमेरिका चीन का स्थान ले सकता है। सऊदी अरब सहित खाड़ी देशों की अपनी अलग अहमियत है, ईरान का अपना महत्व है। ऐसे में भारत के द्विपक्षीय संबंधों और उसके सापेक्ष देशों के महत्व की तुलना थोड़ी सतर्कता, सजगता और सार्थकता से की जानी चाहिए।

अमेरिका में कई ऐसे संगठन और आर्थिक समूह हैं जो अपने आर्थिक हितों का किसी कीमत पर त्याग नहीं करना चाहते और भारत ने अमेरिकी बाजारों में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराकर उन्हें ऐसा करने के लिए बाध्य किया है। अमेरिका स्थित सदर्न श्रिम्प अलायंस ने भारत सहित कुछ अन्य देशों से अमेरिका में होने वाले श्रिम्प यानी झींगा आयात पर शिकायत दर्ज कराई थी। इस अलायंस की शिकायत है कि भारत सहित इन देशों का सस्ता श्रिम्प तालाबों में तैयार किए श्रिम्प से अमेरिकी उद्योग को नुकसान पहुंच रहा है। वहीं अमेरिका श्रिम्प को अधिकतर सागरों से हार्वेस्ट करता है।

गौरतलब है कि भारत फाम्र्ड श्रिम्प का दुनिया में सबसे बड़ा उत्पादक देश है और वैश्विक मछली उत्पादन में लगभग छह प्रतिशत की हिस्सेदारी भारत की है। अमेरिका को किए जाने वाले सीफूड निर्यात में भी भारत दुनिया में पहले स्थान पर है। वर्ष 2021 के दौरान भारत ने अमेरिका को 2.7 लाख टन प्रान का निर्यात किया है। सीफूड एक्सपोर्ट में यह भारत के प्रभुत्व को दर्शाता है।

दो देशों के बीच भले ही भिन्न भिन्न स्तरों पर कितनी ही साङोदारियां क्यों न हों, बात जब राष्ट्रीय हितों, आर्थिक लाभों और व्यापारिक हितों की आती है तो देशों के बीच मतभेद, तनाव, विवाद उभरने स्वाभाविक भी होते हैं। हाल ही में ऐसा एक मामला भारत और अमेरिका के बीच उभरा है। अमेरिका ने भारत से निर्यात किए जाने वाले प्रशीतित श्रिम्प यानी झींगों पर एंटी डंपिंग ड्यूटी बढ़ा दी है। इस ड्यूटी को यूएस डिपार्टमेंट आफ कामर्स के 15वें एडमिनिस्ट्रेटिव रिव्यू में बढ़ाकर अमेरिका ने 7.15 प्रतिशत किया है। पहले यह ड्यूटी 3.06 प्रतिशत थी।

यहां पर इस बात का जिक्र करना जरूरी है कि भारत अमेरिका वार्षिक द्विपक्षीय व्यापार में अमेरिका जो व्यापारिक घाटे का सामना करता है और भारत जिसके पक्ष में ट्रेड बैलेंस है, उसका एक प्रमुख कारण भारत द्वारा अमेरिका को बड़े पैमाने पर किया गया निर्यात है। भारत के कुल सीफूड निर्यात में फ्रोजेन श्रिम्प यानी झींगा के निर्यात की हिस्सेदारी 74.31 प्रतिशत है।

अब जब अमेरिकी प्रशासन ने अमेरिकी आयातों पर एंटी डंपिंग ड्यूटी बढ़ा दी है तो इसका असर भारत के झींगा निर्यात पर पड़ेगा। अमेरिकी टैरिफ एक्ट, 1930 में प्रविधान किया गया है कि सभी प्रकार के टैरिफ और भारत, चीन, ब्राजील, थाईलैंड और वियतनाम से होने वाले झींगा निर्यात पर एंटी डंपिंग ड्यूटी प्रत्येक पांच वर्ष में स्वत: समीक्षा के दायरे में आ जाएगी और फिर अमेरिका इस कानून के तहत यह फैसला लेगा कि 2005 से जो एंटी डंपिंग ड्यूटी इन देशों पर झींगा निर्यात पर लगाई गई थी, उसे बनाए रखा जाय या हटाया जाय।

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