Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the newsmatic domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/imagequo/domains/shrinaradmedia.com/public_html/wp-includes/functions.php on line 6121
अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस पर छुट्टी का क्या मतलब है? - श्रीनारद मीडिया

अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस पर छुट्टी का क्या मतलब है?

अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस पर छुट्टी का क्या मतलब है?

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

नयी पीढ़ी के लिए यह जानना दिलचस्प हो सकता है कि 19वीं शताब्दी के नौवें दशक तक मजदूर अत्यंत कम व अनिश्चित मजदूरी पर सोलह-सोलह घंटे काम करने को अभिशप्त थे. वर्ष 1810 के आसपास ब्रिटेन में उनके सोशलिस्ट संगठन ‘न्यू लेनार्क’ ने रॉबर्ट ओवेन की अगुवआई में अधिकतम दस घंटे काम की मांग उठायी. उसके छह-सात वर्षों बाद आठ घंटे काम पर जोर देना शुरू किया.

उसके संघर्षों के बावजूद 1847 तक मजदूरों की राह सिर्फ इतनी आसान हो पायी थी कि इंग्लैंड के महिला व बाल मजदूरों को अधिकतम दस घंटे काम की स्वीकृति मिल गयी थी. ऑस्ट्रेलिया में 21 अप्रैल, 1856 को स्टोनमेंशन और मेलबर्न के आसपास के बिल्डिंग कर्मचारियों ने आठ घंटे काम की मांग को लेकर हड़ताल और मेलबर्न विश्वविद्यालय से पार्लियामेंट हाउस तक प्रदर्शन किया. वहीं 1866 में जेनेवा कन्वेंशन में इंटरनेशनल वर्किंग मेंस एसोसिएशन ने भी इसके लिए अपनी आवाज बुलंद की.

निर्णायक घड़ी एक मई, 1886 को आयी, जब पुलिस की गोली से मेकॉर्मिक हार्वेस्टिंग मशीन कंपनी संयंत्र में चार हड़तालियों की मौत के अगले दिन शिकागो स्थित हेमार्केट स्क्वायर में हड़ताली मजदूरों ने विराट प्रदर्शन किया. इसके बाद वहां की पुलिस, नेशनल गार्ड व घुड़सवार दस्तों ने उनका बर्बरता से दमन किया. तभी से उस संघर्ष की याद में हर वर्ष एक मई को मजदूर दिवस मनाने का चलन शुरू हुआ. इस रूप में यह दिन श्रम को पूंजी की सत्ता से मुक्ति दिलाने, उसकी गरिमा को पुनर्स्थापित करने और शोषण के विरुद्ध संघर्ष की चेतना जगाने का है.

इसके मूल में कार्ल मार्क्स व फ्रेडरिक एंगेल्स का वह दर्शन है, जिसमें श्रम को मानव समाज के निर्माण की मूल प्रेरणा व संचालक शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है. उसके व्यक्तिगत की बजाय सामाजिक स्वरूप पर जोर दिया जाता है. भारत में यह दिवस सबसे पहले चेन्नई में 1923 में मनाया गया था.

आज कई लोग पूछते हैं कि भूमंडलीकरण के चोले में आयी नवउपनिवेशवादी नीतियों के ‘सफल’ तीन दशकों के बाद जब मजदूरों के पुराने कौशल बेकार हो गये हैं, उनकी जगह नये कौशलों व प्रशिक्षणों ने ले ली है, ऐसे में न वे श्रमिक रहे हैं, न वह श्रमिक एकता, तो इस दिवस का भला क्या औचित्य है? विश्वव्यापी नवऔपनिवेशिक व्यवस्था के आधारस्तंभों- विश्वबैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष व विश्व व्यापार संगठन के बढ़ते दबावों के बीच अनेक पिछड़े देशों की लोकतांत्रिक ढंग से चुनकर आने और लोकप्रिय होने का दावा करने वाली सरकारें भी उस उदारीकरण की राह पर चल पड़ी हैं, जो मुनाफाखोर कंपनियों को छोड़ हर किसी के लिए अनुदार हैं.

दूसरी ओर श्रमिकों की एकता तोड़ने के लिए दुनियाभर में व्यक्तिगत उपलब्धियों के लिए ही श्रम करने पर जोर दिया जा रहा है. उस सोच को सिरे से खत्म किया जा रहा है जो समाज के लिए श्रम करने और सामूहिकता की प्रवृत्ति के विकास में सहायक हो. इससे काम के घंटे और छुट्टियों आदि के मुद्दे कहीं पीछे छूटते जा रहे हैं. इस आईने में देखें, तो मजदूर आंदोलनों के विचलन, विपर्यय और अवसान के अंदेशे बहुत परेशान करते हैं.

उनके नेतृत्वों की समझदारी और रणनीतिक व सांगठनिक कौशलों पर सवाल उठाने का भी मन होता है. पर कोई यह कहे कि मजदूरों की एकता या उनके आंदोलनों की प्रासंगिकता ही खत्म हो गयी है, तो उससे सहमत नहीं हुआ जा सकता. क्योंकि आज भी न वर्ग संघर्षों का इतिहास बदला है, न श्रम, उत्पादन व पूंजी का मूल संबंध.

आज जब अनेकानेक विभाजनों से मजदूरों की एकता तोड़ उन्हें नये अत्याचारों व असुरक्षाओं के हवाले किया जा रहा है, प्रगतिशील और क्रांतिकारी मजदूर आंदोलनों की पहले से ज्यादा आवश्यकता है. इस वक्त मजदूर आंदोलनों को आत्मावलोकन की बहुत सख्त जरूरत है. उनसे सबसे बड़ी गलती समझने में यह हुई है कि उन्होंने समाजवादी दर्शन की उन उम्मीदों को नाउम्मीद कर डाला है जिनके तहत समझा गया था कि मजदूर संगठन क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तनों की अगुवाई करने वाले हिरावल दस्ते के रूप में काम करेंगे. इसके उलट उन्होंने खुद को मजदूरों, खासकर संगठित मजदूरों की चिंता तक सीमित कर लिया और उसी दृष्टि से अपनी उपलब्धियों का आकलन करने लगे.

यह तक देखने की दूरंदेशी नहीं अपनायी कि लगातार विकसित की जा रही टेक्नोलॉजी आगे चलकर उत्पादन में विशिष्ट श्रम की भूमिका घटा या बदल देने वाली है. जाहिर है कि मजदूरों व उनके आंदोलनों, दोनों का भविष्य इस पर निर्भर होगा कि वे अपनी पुरानी गलतियों से सबक सीखेंगे और आत्मावलोकन करेंगे या नहीं? मजदूरों की बहुआयामी सक्रियता के बगैर यह वस्तुस्थिति बदलने वाली नहीं कि अब अनेक कंपनियां बारह-बारह घंटे काम के टाइमटेबल पर चलने लगी हैं और बड़े संघर्षों से हासिल सुरक्षाएं गंवाकर बर्खास्तगी व छंटनी आदि से डरे मजदूर उन्हें झेल रहे हैं.

निरंकुश बड़ी पूंजी का एकतरफा भूमंडलीकरण जहां ‘देयर इज नो अल्टरनेटिव’ के घातक प्रचार के सहारे अपनी जड़ें लगातार गहरी करता जा रहा है, वहीं श्रम के भूमंडलीकरण की कहीं कोई चर्चा ही नहीं है. जबकि निर्बंध पूंजी के बरक्स निर्बंध श्रम की मांग के लिए यही सही समय है. पूंजी के भूमंडलीकरण के प्रवर्तक अमेरिका तक का मन उससे उचाट हो रहा है और वह ‘अमेरिका फर्स्ट’ की राह पर चलने लगा है. उससे पूछा ही जाना चाहिए कि बड़ी पूंजी के निर्बंध प्रवाह के लिए राष्ट्रों व राज्यों की सीमाओं व सत्ताओं के भरपूर अतिक्रमणों के बाद श्रम को निर्बंध होने से रोकने की लड़ाई वह नये संरक्षणवाद के ‘पुराने हथियार’ से कैसे जीतेगा?

Leave a Reply

error: Content is protected !!