भारत में आरक्षण की क्या आवश्यकता है?

भारत में आरक्षण की क्या आवश्यकता है?

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारत की सदियों पुरानी जाति व्यवस्था देश में आरक्षण प्रणाली की उत्पत्ति के लिये ज़िम्मेदार है। सरल शब्दों में कहें तो यह आबादी के कुछ वर्गों के लिये सरकारी नौकरियों, शैक्षणिक संस्थानों और यहाँ तक कि विधायिका तक पहुँच को सुविधाजनक बनाने से संबंधित है। इन वर्गों को अपनी जातीय पहचान के कारण ऐतिहासिक रूप से अन्याय का सामना करना पड़ा है।

भारत में आरक्षण प्रणाली से संबद्ध प्रमुख मुद्दे:

  • शिक्षा और रोज़गार की गुणवत्ता: आरक्षण नीतियाँ मुख्य रूप से शिक्षा और सरकारी नौकरियों तक पहुँच को लक्षित करती हैं। हालाँकि एक चिंता यह है कि ये नीतियाँ दीर्घकाल में शिक्षा और कार्यबल की गुणवत्ता से समझौते की स्थिति उत्पन्न कर सकती हैं, क्योंकि उम्मीदवारों का चयन योग्यता के बजाय कोटा के आधार पर किया जा सकता है।
  • प्रतिभा पलायन: कुछ लोगों का तर्क है कि आरक्षण नीतियों से प्रतिभा पलायन या ‘ब्रेन-ड्रेन’ की स्थिति बन सकती है, जहाँ अनारक्षित श्रेणियों के प्रतिभाशाली लोग आरक्षण प्रणाली से बचने के लिये विदेश में अध्ययन या कार्य करने का विकल्प चुन सकते हैं, जिससे देश के भीतर प्रतिभा की हानि हो सकती है।
  • आक्रोश और विभाजन: आरक्षण कभी-कभी समाज के अंदर सामाजिक एवं आर्थिक विभाजन पैदा कर सकता है। यह विभाजन उन लोगों में आक्रोश का कारण बन सकता है जिन्हें इन नीतियों से लाभ नहीं मिलता है, जिससे संभावित रूप से सामाजिक एकजुटता एवं विकास में बाधा उत्पन्न हो सकती है।
  • अक्षमताएँ और भ्रष्टाचार: आरक्षण नीतियाँ कभी-कभी अक्षमता, भ्रष्टाचार और जाति प्रमाणपत्रों में हेरफेर से भी अक्षम बनती हैं। ये मुद्दे प्रणाली की प्रभावशीलता को कमज़ोर कर सकते हैं और विकास में बाधा डाल सकते हैं।
  • फर्जी लाभार्थी (Ghost Beneficiaries): आरक्षण नीतियाँ प्रायः व्यापक श्रेणियों पर निर्भर करती हैं, जो उन श्रेणियों के सबसे वंचित व्यक्तियों को सटीक रूप से लक्षित करने में अक्षम सिद्ध हो सकती हैं। संभव है कि आरक्षित श्रेणियों के कुछ व्यक्ति अन्य व्यक्तियों की तरह वंचना का शिकार नहीं हों, फिर भी वे लाभान्वित हो रहे हों। 
  • कलंक और रूढ़िवादिता: आरक्षण के कारण कभी-कभी आरक्षित श्रेणियों के व्यक्तियों के लिये कलंक और रूढ़िवादिता का सामना करने की स्थिति बन सकती है, जो उनके आत्म-सम्मान और समग्र विकास को प्रभावित कर सकता है।
  • आर्थिक विकास बनाम सामाजिक विकास: आरक्षण नीतियाँ सामाजिक विकास पर ध्यान केंद्रित करती हैं, लेकिन वे प्रत्यक्ष रूप से आर्थिक असमानताओं को संबोधित करने में अक्षम सिद्ध हो सकती हैं। असमानता को दूर करने और समग्र विकास को बढ़ावा देने के लिये आर्थिक विकास भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
  • राजनीतिक शोषण: आरक्षण नीतियों का उपयोग कभी-कभी राजनीतिक लाभ के लिये किया जाता है, जिससे दीर्घकालिक विकास लक्ष्यों के बजाय अल्पकालिक राजनीतिक उद्देश्यों पर ध्यान केंद्रित किया जा सकता है।

आरक्षण का समाधान:

  • अवसर के बुनियादी ढाँचे का पुनरुद्धार करना: अवसर के बुनियादी ढाँचे के पुनरुद्धार के लिये ‘3Es’ – यानी शिक्षा, रोज़गार योग्यता और रोज़गार (Education, Employability and Employment) में तेज़ी से सुधार लाने की आवश्यकता है।
    • शिक्षा के क्षेत्र में राज्य सरकारों को छोटे वर्ग आकार, शिक्षक योग्यता या शिक्षक वेतन पर अधिक ऊर्जा बर्बाद करने के बजाय प्रदर्शन प्रबंधन, शासन और ‘सॉफ्ट स्किल’ की बाध्यकारी बाधाओं पर ध्यान केंद्रित करते हुए सरकारी स्कूलों को बेहतर बनाने का प्रयास करना चाहिये।
    • रोज़गार योग्यता या क्षमता के मामले में हमें अभ्यास से सीखने (learning by doing), सीखने के साथ आय अर्जन करने (learning while earning), क्वालिफिकेशन मोड्यूलरिटी के साथ सीखने (learning with qualification modularity), मल्टीमॉडल डिलीवरी के साथ सीखने (learning with multimodal delivery) और सिग्नलिंग वैल्यू के साथ सीखने (learning with signaling value) के पाँच डिज़ाइन सिद्धांतों के अनुरूप प्रणाली को फिर से अभिकल्पित कर नियोक्ताओं से कौशल के लिये बड़े पैमाने पर नए वित्तपोषण को आकर्षित करने की आवश्यकता है।
    • रोज़गार के मामले में, बड़े पैमाने पर गैर-कृषि, उच्च-मज़दूरी, औपचारिक रोज़गार सृजन के लिये नियोक्ताओं हेतु नियामक बाधाओं या ‘रेगुलरिटी कोलेस्ट्रॉल’ (जो नियोक्ताओं पर मुक़दमेबाजी, अनुपालन, फाइलिंग और अपराधीकरण को बढ़ावा देते हैं) में कटौती की आवश्यकता है और इसके लिये नई श्रम संहिताएँ पारित की जानी चाहिये।
  • समान व्यवहार: यह सुनिश्चित करना कि सभी व्यक्तियों के साथ उचित और भेदभावरहित व्यवहार किया जाए, समानता को बढ़ावा देने का एक बुनियादी पहलू है। इसका अर्थ यह है कि लोगों को उनकी पृष्ठभूमि, जैसे कि उनके माता-पिता की स्थिति, के आधार पर हानि का सामना नहीं करना पड़े या विशेषाधिकार प्राप्त नहीं हो। 
  • निष्पक्ष प्रतिस्पर्द्धा: लोगों के लिये प्रतिस्पर्द्धा के एकसमान अवसर को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये, जहाँ व्यक्तियों को अपने कौशल, क्षमताओं और प्रयासों के आधार पर सफल होने के समान अवसर प्राप्त हों। यह व्यक्तियों को अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करने के लिये प्रेरित करने के माध्यम से उत्कृष्टता को बढ़ावा देता है।
  • प्रतिफलों का निष्पक्ष आकलन: किसी व्यक्ति के प्रदर्शन, कौशल और योगदान के उचित और निष्पक्ष मूल्यांकन के माध्यम से प्रतिफलों को निर्धारित किया जाना चाहिये। यह सुनिश्चित करेगा कि सफलता के निर्धारण में योग्यता और उपलब्धि प्राथमिक कारक हैं।
  • प्रयास और साहस के आधार पर आकलन: कड़ी मेहनत, दृढ़ संकल्प और अपने लक्ष्यों को आगे बढ़ाने के साहस के महत्त्व पर बल देने से व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी और व्यक्तिगत प्रयास की संस्कृति को बढ़ावा देने में मदद मिलती है।
  • संसाधनों का विवेकपूर्वक उपयोग: आधुनिक राज्य को कल्याणकारी राज्य होना चाहिये और भविष्य में इसे आदर्श राज्य तब समझा जाएगा जब इसकी एक ऐसी सरकार हो जो समाज के संसाधनों का उपयोग उन लोगों को गुणवत्तापूर्ण भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा एवं आवास प्रदान करने के लिये करे जिन्हें इसकी आवश्यकता है।

Leave a Reply

error: Content is protected !!