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पाँचों राज्यों के राजनीतिक परिदृश्य क्या हैं? - श्रीनारद मीडिया

पाँचों राज्यों के राजनीतिक परिदृश्य क्या हैं?

पाँचों राज्यों के राजनीतिक परिदृश्य क्या हैं?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

पाँच राज्यों में विधानसभा चुनावों की तारीखों का ऐलान हो चुका है और इसके साथ ही अब चुनावी मैदान सज गया है। देखना होगा कि किस-किस दल से कौन-कौन-से राजनीतिक महारथी चुनावी मुकाबले में उतरते हैं। माना जा रहा है कि मकर संक्रांति के बाद भाजपा सहित अन्य पार्टियों के उम्मीदवारों की पूरी सूची आ जायेगी।

हालांकि आम आदमी पार्टी समेत कुछ और क्षेत्रीय दल हैं जो पिछले कुछ समय से एक-एक कर अपने उम्मीदवारों की सूची घोषित करने का सिलसिला बनाये हुए हैं। लेकिन अब जब चुनावों का ऐलान हो चुका है तो देखना यह होगा कि कौन-कौन-सी पार्टियां अपने कितने विधायकों का टिकट काटती हैं और जाहिर-सी बात है कि जिनके टिकट कटेंगे वह पाला बदल कर दूसरे दल के उम्मीदवार के रूप में नजर आयेंगे। यह भी देखना होगा कि इस बार चुनावों में उम्मीदवार के रूप में फिल्म, खेल या बिजनेस क्षेत्र की कौन-कौन-सी हस्तियां उतरती हैं।

यूपी का चुनावी परिदृश्य

विधानसभा चुनावों के मुद्दों की बात करें तो उत्तर प्रदेश में स्पष्ट रूप से नजर आ रहा है कि भाजपा जहां योगी और मोदी सरकार की उपलब्धियों और डबल इंजन वाली सरकार के फायदे गिना रही है और एक साफ और कठोर निर्णय करने वाले मुख्यमंत्री की छवि रखने वाले योगी आदित्यनाथ के नाम पर वोट मांग रही है तो वहीं सत्ता में आने को आतुर दिख रही समाजवादी पार्टी यह दावा कर रही है कि योगी सरकार जिन कामों को गिना रही है उन्हें सपा सरकार ने ही शुरू किया था।

सपा का यह भी आरोप है कि पिछले पांच साल में बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार बढ़ा है और किसानों को उनकी उपज का सही दाम इस सरकार के कार्यकाल में नहीं मिल पा रहा है। जहां तक बसपा की बात है तो वह भी सपा और भाजपा दोनों पर ही आरोप लगाकर अपने शासनकाल की उपलब्धियां याद दिला कर वोट मांग रही है। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने तो वादों का पिटारा ही खोल दिया है। इन दोनों पार्टियों के वादों पर तो उत्तर प्रदेश में खूब हंसी-ठिठोली भी चल रही है।

बाकी अन्य क्षेत्रीय दल किसी ना किसी गठबंधन के तहत अपनी-अपनी चुनावी संभावनाएं बेहतर करने में लगे हुए हैं। सभी पार्टियों ने अपने घोषणापत्रों को अंतिम रूप देना भी शुरू कर दिया है। देखना होगा कि उम्मीदवारों की सूची आने के बाद जब पार्टियां अपना घोषणापत्र लाएंगी तो उसमें क्या बड़े-बड़े वादे होंगे। फिलहाल अगर मुख्य मुकाबले की बात करें तो यहां भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन और समाजवादी पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन के बीच ही टक्कर नजर आ रही है।

यह चुनाव जितना योगी आदित्यनाथ के लिए चुनौतीपूर्ण है उतना ही अखिलेश यादव के लिए भी हैं क्योंकि यदि योगी दोबारा जीते तो सत्ता में वापसी करने वाले मुख्यमंत्री के रूप में इतिहास रचने के साथ ही भाजपा के शीर्ष नेताओं में शुमार हो जायेंगे वहीं अगर अखिलेश यादव फिर से यह चुनाव हारे तो समाजवादी परिवार में बगावत होना तय है।

उत्तराखण्ड का चुनावी परिदृश्य

बात उत्तराखण्ड की करें तो यहां मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही नजर आ रहा है लेकिन आम आदमी पार्टी भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए जीतोड़ प्रयास कर रही है। यहां भाजपा ने स्थिर सरकार तो दी लेकिन पांच साल में तीन मुख्यमंत्री बदल दिये। हालांकि अब जो पुष्कर सिंह धामी मुख्यमंत्री बनाये गये हैं उनकी कर्मठ और साफ छवि का फायदा भाजपा को मिल सकता है।

भाजपा यहां बढ़त में इसलिए भी नजर आ रही है क्योंकि कांग्रेस यहां काफी गुटों में बंटी दिखाई दे रही है। कांग्रेस नेता हरीश रावत चाहते हैं कि पार्टी उन्हें मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाकर चुनाव लड़े लेकिन पार्टी के अन्य नेता इस बात के खिलाफ हैं। टिकटों को लेकर भी कांग्रेस के भीतर जो झगड़ा नजर आ रहा है वह ऐन चुनावों के समय पार्टी की मुश्किलें बढ़ा सकता है।

पिछले कुछ समय से उत्तराखण्ड में दल बदल का खेल चल रहा है लेकिन अब इसके और तेज होने की उम्मीद है। भाजपा यहां पांच साल की अपनी उपलब्धियों और केंद्र सरकार की ओर से मिली विकास परियोजनाओं के नाम पर वोट मांग रही है तो कांग्रेस राज्य सरकार की नाकामियां गिनाते हुए अपने को वोट देने की अपील कर रही है। वहीं आम आदमी पार्टी का कहना है कि जनता ने भाजपा और कांग्रेस को देख लिया इसलिए अब उसको मौका दिया जाना चाहिए।

पंजाब का चुनावी परिदृश्य

बात पंजाब की करें तो यहां का चुनाव इस बार बेहद दिलचस्प है। यहां कांग्रेस सत्तारुढ़ तो है लेकिन उसके तमाम गुट आपस में ही एक दूसरे की टांग खींचने में लगे हुए हैं। चरणजीत सिंह चन्नी चाहते हैं कि उन्हें ही मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में घोषित कर चुनाव लड़ाया जाये तो नवजोत सिंह सिद्धू की चाहत खुद मुख्यमंत्री बनने की है।

सुनील जाखड़ समेत अन्य कई कांग्रेस नेता भी यह पद पाने का सपना संजोये हैं इसलिए टिकटों के बंटवारे के समय कांग्रेस में जबरदस्त घमासान देखने को मिल सकता है। पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह अपनी अलग पार्टी बनाकर भाजपा के साथ चुनाव लड़ रहे हैं तो कई किसान संगठन भी अपना मोर्चा बनाकर चुनाव मैदान में हैं। शिरोमणि अकाली दल भाजपा का साथ छोड़कर इस बार बहुजन समाज पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही है। आम आदमी पार्टी भी पहले से बेहतर संगठन और अच्छी रणनीति के साथ मैदान में है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हालिया पंजाब दौरे के दौरान उनकी सुरक्षा में हुई चूक के चलते शहरी क्षेत्रों में भाजपा के पक्ष में सहानुभूति का भी माहौल है। चुनावी मुद्दों की बात करें तो इस बार के चुनाव में कौन कितना क्या फ्री दे सकता है इसकी सर्वाधिक गूँज है। किसानों से जुड़े मुद्दे भी प्रमुख हैं। देखना होगा कि जनता आखिर स्पष्ट बहुमत वाली सरकार चुनती है या फिर राज्य में त्रिशंकु विधानसभा बनती है।

गोवा का चुनावी परिदृश्य

जहां तक गोवा की बात है तो इस छोटे से राज्य की सत्ता हासिल करने के लिए अन्य राज्यों की आधा दर्जन पार्टियां यहाँ पहुँच चुकी हैं। गोवा में मुख्य मुकाबला वैसे तो भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन और कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन के बीच ही है लेकिन मैदान में आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस भी ताल ठोंक रही हैं।

इस बार के चुनावों में यहां कई नेता पुत्रों की फौज भी देखने को मिल सकती है क्योंकि बताया जा रहा है कि भाजपा और कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता अपने-अपने पुत्रों को टिकट दिलाने की जुगत में लगे हुए हैं। तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की नजर ऐसे लोगों पर बनी हुई है जिन्हें भाजपा या कांग्रेस से उम्मीदवारी नहीं मिले तो वह उनके पाले में आ सकें।

यहां चुनावी मुद्दों की बात करें तो भाजपा अपने विकास कार्यों को गिना रही है तो कांग्रेस समेत अन्य पार्टियां कोरोना की दूसरी लहर के दौरान राज्य सरकार की कथित नाकामियों, भ्रष्टाचार, महंगाई, खनन आदि को मुद्दा बना रही हैं। लेकिन फिर भी भाजपा को उम्मीद है कि साफ छवि वाले मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत उसे सत्ता में वापिस ले आयेंगे।

हम आपको याद दिला दें कि गोवा में भाजपा को पिछली बार भी सत्ता नहीं मिली थी और वह दूसरे नंबर की सबसे बड़ी पार्टी बनी थी लेकिन उसके बावजूद उसने जोड़तोड़ कर सरकार बना ली। यदि इस बार भी ऐसा ही हो जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

मणिपुर का चुनावी परिदृश्य

मणिपुर की बात करें तो पिछले पांच साल में यह प्रदेश अपेक्षाकृत शांत रहा और इसे विकास की कई परियोजनाएं मिली हैं। यहां भाजपा की पहली सरकार है और उसका यह कहना है कि उसे अभी काम पूरे करके दिखाने के लिए और समय चाहिए इसीलिए यहां उसके खिलाफ कोई नकारात्मक माहौल नजर नहीं आ रहा है। कांग्रेस के कई नेताओं ने जिस तरह हाल ही में पाला बदला है उससे ऐन चुनावों से पहले पार्टी की स्थिति कमजोर हुई है। मणिपुर में भाजपा अपने सहयोगी दलों को साथ रखने और नये लोगों को साथ जोड़ने में कामयाब हुई है इसलिए फिलहाल उसका पलड़ा भारी नजर आ रहा है।

लेकिन हाल में एकाध उग्रवादी घटनाओं और नगालैंड की घटना को देखते हुए कुछ नाराजगी भी दिख रही है। देखना होगा कि भाजपा यह नाराजगी कैसे दूर कर पाती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने हालिया दौरे के दौरान राज्य को विकास की कई सौगातें देकर गये हैं जिसका भाजपा को फायदा हो सकता है। कांग्रेस नेताओं ने वादा किया है कि यदि उनकी सरकार बनती है तो कैबिनेट की पहली बैठक में पूरे मणिपुर से अफ्स्पा हटाया जायेगा। देखना होगा कि इस वादे का कितना असर जनता पर होता है।

बहरहाल, पाँच राज्यों में अब चूँकि चुनावी बिसात बिछ चुकी है इसलिए पल-पल राजनीतिक घटनाक्रम बदलता रहेगा। देखना होगा कि इन पाँच में से चार राज्यों में सत्तारुढ़ भाजपा क्या फिर से चारों राज्यों की सत्ता हासिल कर पाती है और क्या वाकई पंजाब में प्रभावी उपस्थिति दर्ज करा पाती है। जहां तक कांग्रेस की बात है तो यदि उसने पंजाब की सत्ता खो दी तो गांधी परिवार के खिलाफ जी-23 ग्रुप फिर से खुलकर सामने आ सकता है। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि यह चुनाव परिणाम 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों की भी दशा-दिशा तय करेंगे।

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