नृत्य परंपराएं और मंदिर कलाओं का क्या है नाता?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
काशी विश्वनाथ धाम के नव्य और भव्य स्वरूप के लोकार्पण के बाद भारतीय समाज और संस्कृति में मंदिरों के स्थान को लेकर भी चर्चा होनी चाहिए। मंदिरों के सामाजिक और सांस्कृतिक केंद्र के ऐतिहासिक स्वरूप पर बात होनी चाहिए। मंदिरों से जुड़ी कलाओं पर भी चर्चा होनी चाहिए। हमारी भारतीय संस्कृति में मंदिरों को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। मंदिरों से नृत्य और कला का गहरा जुड़ाव रहा है। मुगल आक्रांताओं ने जब हमारे देश पर हमला किया और तो उनको मंदिरों की सामाजिक और सांस्कृतिक महत्ता का अनुमान हो गया था। ये अकारण नहीं है कि मुगलकाल में मंदिरों पर हमले हुए, मंदिरों को तोड़ा गया।
मुगलों ने मंदिरों को तोड़कर सिर्फ हिंदुओं की आस्था को नहीं तोड़ा बल्कि उन्होंने भारतीय समाज के उस केंद्र को नष्ट करने का प्रयास किया जहां लोग संगठित होते थे। मुगलों ने मंदिरों के रूप में स्थापित सामाजिक और सांस्कृतिक केंद्रों को तोड़कर भारतीय समाज को कमजोर किया। समाज की ताकत पर प्रहार किया। मुगलों के शासनकाल में विदेशों से चित्रकार आदि भारत आए। मुगलों की कला में और उसके पहले के भारतीय कला में एक आधारभूत अंतर था। मुगल कला का केंद्र बिंदु बादशाह का निजी जीवन और निजी पसंद था। भारतीय कला लोक के बीच व्याप्त थी। मंदिर उसके केंद्र हुआ करते थे। जनता की आकांक्षाएं और उसके स्वप्न कलाओं में खुलते और खिलते थे।
मुगलों के पराभव के बाद और अंग्रेजी राज के उदय के समय और कालांतर में उनके शासनकाल में भी मंदिरों का पौराणिक स्वरूप स्थापित नहीं हो सका। मंदिरों पर अंग्रेज शासकों की लगातार नजर रहा करती थी। वहां होने वाली गतिविधियों पर, वहां होने वाले धन संचय पर भी अंग्रेज नजर रखते थे। इसी काल में मंदिरों को सिर्फ धार्मिक केंद्र के रूप में माने जाने पर जोर दिया जाने लगा। उनके सांस्कृतिक स्वरूप और सामाजिक भूमिका पर पाबंदियां लगाई गईं। अंग्रेजी शासन वाले कालखंड में धर्म से जुड़ी बातों को तोड़ा मरोड़ा गया। आधुनिक और अंग्रेजी शिक्षा के नाम पर धर्म की गलत व्याख्या करके उसको रिलीजन बनाकर आने वाली पीढ़ियों के मानस में स्थापित कर दिया गया। जब देश स्वाधीन हुआ तो पहले प्रधानमंत्री का वैचारिक झुकाव साम्यवाद की ओर था।
सोमनाथ मंदिर पर देश के पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बीच ऐतिहासिक मतभेद हुआ था। राजेन्द्र बाबू सोमनाथ मंदिर को सिर्फ धर्म से जोड़कर नहीं देख रहे थे लेकिन साम्यवाद के प्रभाव में नेहरू उसको धार्मिक केंद्र मानते थे। यह भारतीय दृष्टि और विदेशी प्रभाव की दृष्टि की टकराहट भी थी। स्वाधीनता के कुछ वर्षों के बाद संस्कृति और शिक्षा पर साम्यवादियों की पकड़ मजबूत होने लगी थी। इंदिरा गांधी के शासनकाल में साम्यवादियों ने संस्कृति और शिक्षा पर अपनी सत्ता लगभग स्थापित कर ली।
धर्म को अफीम मानने वाले साम्यवादियों का मंदिरों के प्रति क्या रुख रहा है ये सार्वजनिक है। साम्यवादियों ने विदेशी कलाओं से लेकर विदेशी नाटककारों के नाटकों को भारत में खूब बढ़ाया। कहना न होगा कि साम्यवादियों के इसी उपेक्षा भाव की वजह से भारतीय कला पर विदेशी कलाओं को प्राथमिकता दी गई। धर्म से दूरी की वजह से मंदिर कलाओं के साधकों को हाशिए पर डालने की कोशिशें हुईं। उनको सांप्रदायिक तक करार दिया गया, क्योंकि साम्यवादी कला को भी धर्म से मुक्त करवाकर ध़र्मनिरपेक्ष बनाना चाहते थे।
पिछले दिनों प्रसिद्ध नृत्यांगना सोनल मानसिंह से संवाद पर आधारित यतीन्द्र मिश्र की पुस्तक देवप्रिया (वाणी प्रकाशन) पढ़ रहा था। अचानक मेरी नजर एक प्रश्न पर चली गई। यतीन्द्र ने सोनल जी से उनपर सांप्रदायिक होने के लगने वाले आरोपों के बारे में पूछा। सोनल मानसिंह ने लंबा उत्तर दिया। उसका एक अंश, ‘मैंने जिस विधा में जीवन गुजारा है वो संस्कृति से उपजा है और नृत्य जैसी महान परंपरा का स्थायी अंग है।
आपको यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत की ज्यादातर नृत्य परंपराएं मंदिर कलाओं के उदाहरण हैं। ये मठ, मंदिरों से जन्मी हैं और उनमें ज्यादातर कार्य व्यवहार देवता के प्रति आभार प्रदर्शन के अर्थ में होता आया है। पुराण, धर्म ग्रंथ, संत साहित्य, भजनावलियों और मंदिरों के महात्म्य का वर्णन ही नृत्य विधा में होता रहा है। यही मैंने जीवनभर किया है।
अब अगर ओडिसी या भरतनाट्यम के नृत्य करने से, गीत-गोविंद की चर्चा या आदर करने से कोई सांप्रदायिक ठहराया जाए तो मैं क्या कर सकती हूं। इस लिहाज से यदि आप या कोई व्यक्ति किसी कला या कलाकार का सरलीकरण करेगा, तब यह देखना मुश्किल हो जाएगा कि क्या क्या सांप्रदायिक हो सकता है? शास्त्रीय संगीत में भी अधिकांश गायन भक्तिपदों का होता है तो क्या सारे गायक सांप्रदायिक हो गए। भारतीय संस्कृति को उजागर करनेवाली कलाओं में खासकर नृत्य में कोई मार्क्सवादी विचार, मेरे देखने में नहीं आया है। आपको कहीं मिले तो ढूंढकर मुझे भी दीजिएगा।‘
सोनल मानसिंह के उत्तर के कई आयाम हैं और उसमें उन्होंने कई ऐसी बातें कही हैं जिसपर चर्चा होनी चाहिए। पहली बात तो ये कि भारत की ज्यादातर नृत्य परंपराएं मंदिर कलाओं के उदाहरण हैं। इससे यह बात पुष्ट होती है कि मंदिर भारतीय कलाओं का महत्वपूर्ण केंद्र हुआ करता था। यहां हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय साहित्य में नटराज यानि शिव सबसे अच्छे नर्तक के रूप में स्थापित हैं।
शिव का ये स्वरूप नृत्य कला का आधार भी कहा जाता है। सोनल जी अपने उत्तर का अंत एक प्रश्न से करती हैं और जानना चाहती हैं कि नृत्य में कोई मार्क्सवादी विचार हैं क्या? नृत्य और कला में मार्क्सवादी विचार के बारे में कल्पना करना भी व्यर्थ है। मार्क्सवादियों का तो नृत्य संगीत से ही कोई लेना देना रहा नहीं है। उनके हिसाब से तो ये सब बुर्जुआ से जुड़ी विधाएं हैं। काफी समय तक तो सिनेमा को लेकर भी उनकी यही राय थी। गीत संगीत को लेकर भी। वो कला की विभिन्न विधाओं से चिढ़ते हैं। उसकी उपेक्षा करते हैं।
मार्क्सवादियों को लगता है कि हिंदू धर्म या सनातन धर्म नृत्य, गीत, अभिनय और कला की अन्य प्रवृत्तियों की वजह से जीवंत है। आततायियों के आक्रमण और मंदिरों को तोड़े जाने के बावजूद भारतीय धर्म के निर्मल आदर्शों के कारण भारतीय कला बची रही। आज जब एक बार फिर से मंदिरों को सांस्कृतिक और सामाजिक केंद्रों के रूप में स्थापित किया जा रहा है तो मार्क्सवादी असहज हो रहे हैं।
उनको लग रहा होगा अगर ये मंदिर फिर से सामाजिक और सांस्कृतिक केंद्र के तौर पर शक्तिशाली हो गए तो धर्म का प्रभाव बढ़ेगा। धर्म का प्रभाव बढ़ेगा तो भारतीय संस्कृति मजबूत होगी। प्रसिद्ध लेखक वासुदेव शरण अग्रवाल ने स्वाधीनता के बाद अपने एक लेख में कहा था, ‘राष्ट्र संवर्धन का सबसे प्रबल कार्य संस्कृति की साधना है। उसके लिए बुद्धिपूर्वक प्रयत्न करना होगा, हमारे देश की संस्कृति की धारा अति प्राचीन काल से बहती आई है, उसके प्राणवंत तत्त्व को अपनाकर ही हम आगे बढ़ सकते हैं।‘
मंदिरों के सांस्कृतिक केंद्र के रूप में पुनर्स्थापना राष्ट्र संवर्धन का उपक्रम है इसको सिर्फ धार्मिक केंद्र के रूप में देखना गलत है। मंदिरों के प्राचीन वैभव की वापसी के उपक्रम से किसी अन्य मतावलंबियों को कोई खतरा नहीं है। मार्क्सवादी बुद्धिजीवी अपने राजनीतिक आकाओं को प्रसन्न करने के लिए समाज में कई तरह से भ्रम फैलाते हैं।
इस भ्रम का परोक्ष लक्ष्य अपनी वैचारिकी से जुड़े राजनीतिक दलों को फायदा पहुंचाना होता है। आगामी महीनों में कुछ राज्यों में विधानसभा के चुनाव होनेवाले हैं । मार्क्सवादियों को लगता है कि मंदिर के नाम पर वो समाज में ध्रुवीकरण करने में सफल हो जाएंगे और चुनाव में उनको फायदा मिल जाएगा। ऐसी ही परिस्थतियों को ध्यान में रखकर वासुदेव शरण अग्रवाल ने बुद्धिपूर्वक प्रयत्न की सलाह दी थी।
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