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हिंदी अध्ययन का क्या हैं अप्रिय यथार्थ? - श्रीनारद मीडिया

हिंदी अध्ययन का क्या हैं अप्रिय यथार्थ?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

लखनऊ में लड़कियों का एक बड़ा पुराना और प्रतिष्ठित कालेज है-नवयुग डिग्री कालेज। यहां एमए हिंदी का स्ववित्त पोषित कोर्स इसी वर्ष बंद कर दिया गया। कारण? हिंदी पढ़ने वाले नहीं आ रहे। बीए हिंदी में तो संख्या फिर भी ठीक है क्योंकि वहां तीन विषयों में एक है हिंदी, लेकिन नौकरी की आयु में पहुंचने के बाद जब केवल एक विषय की फीस देकर पढ़ने का प्रश्न आता है, तब छात्राएं नहीं आ रहीं। स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव में हिंदी अध्ययन का यह अप्रिय यथार्थ है।

पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के राज्य विश्वविद्यालयों के लिए जो पाठ्यक्रम बना, उसमें डा. रमेश पोखरियाल निशंक की कविता भी सम्मिलित की गई। उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री निशंक उस समय केंद्रीय शिक्षा मंत्री थे। पाठ्यक्रम बनाने वाली समिति के संयोजक डा. पुनीत बिसारिया थे और उनकी भी अनेक पुस्तकें व ग्रंथ पाठ्यक्रम में स्थान पा गए।

जैसे, प्राचीन हिंदी काव्य, अर्वाचीन हिंदी काव्य, काव्य वैभव, काव्य मंजूषा, शोध कैसे करें, भारतीय सिनेमा का सफरनामा, प्रकीर्ण विविधा, निबंध निकष, निबंध संग्रह। क्या यह गलत है? कुछ अधिकारी और साहित्यकार कहते हैं कि तकनीकी दृष्टि से तो गलत नहीं, परंतु नैतिक तौर पर यह ठीक नहीं कि अपने ही संयोजन वाले पाठ्यक्रमों में अपनी ही किताबें चलवा दी जाएं। समिति में तीन और सदस्य थे जिनमें से एक ने प्रस्ताव दिया और वह स्वीकार भी हो गया।

…और स्वयं पुनीत बिसारिया क्या कहते हैं? उनका उत्तर था, ‘मैं तो केवल संयोजक था समिति का। यदि समिति ने मेरी किताबों को पाठ्यक्रम में शामिल करने लायक समझा तो कर दिया। इसमें मैं क्या कर सकता हूं। जनवरी 2021 में सरकारी वेबसाइट पर सारी सामग्री डालकर एक महीने तक लोगों से सुझाव मांगे गए थे, पर तब तो कोई बोला नहीं …निशंक जी को शामिल करने का कारण यह था कि देशप्रेम पर उनकी ही रचना थी।’ डा. बिसारिया का एक और उत्तर था- ‘अब इसके लिए मैं क्या करूं कि पंद्रह वर्षों से कोई ढंग का शोध प्रबंध नहीं छपा।’

शिक्षामंत्री डा. दिनेश शर्मा जी, आपके द्वारा गठित विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम निर्धारण समिति के संयोजक का यह उत्तर विचारणीय है कि गत डेढ़ दशकों में शोध प्रबंध के क्षेत्र में स्तरीय लेखन नहीं हुआ। कौन दोषी है इसके लिए? विश्वविद्यालयों में उच्च शिक्षा का अर्थ उच्च स्तरीय शोधकार्य होता है, न कि बीए एमए की पढ़ाई। डा. बिसारिया की इस बात को नवयुग कालेज में बंद किए गए एमए हिंदी के स्ववित्त पोषित कोर्स से जोड़कर देखेंगे तो स्थितियां बड़ी विषम दिखाई देंगी। इसलिए दोषी आपका विभाग है जो हिंदी को रोजगार सृजन से नहीं जोड़ सका।स्वतंत्रता के बाद हिंदी को जिस एकपक्षीय वैचारिक जड़ता ने जकड़ लिया था, उससे मुक्ति का मार्ग अब भी प्रशस्त नहीं हो सका।

हिंदी को केवल साहित्य तक सीमित रखने का जो षड्यंत्र तब आरंभ हुआ था, वह अब तक जारी है। ‘तुम मुझे पंत कहो, मैं तुम्हें निराला’ की प्रदूषित मानसिकता से अब भी नहीं निकला जा सका है। साहित्य और अनुवाद से इतर मौलिक लेखन को अब भी प्रोत्साहित नहीं किया जा सका। बागवानी, पाकशास्त्र, गृहसज्जा, वास्तुशिल्प, कलाएं और विज्ञान कथाओं जैसे कितने ही विषय हैं जिनके अनगिनत पाठक हैं। वे यह सब अपनी भाषा में पढ़ने के लिए व्याकुल हैं, पर उन्हें यह नहीं मिल रहा। हिंदी का पाठक सक्षम और सचेत है, हिंदी की लिपि और व्याकरण समृद्ध और सजग है, पर उन्हें समर्थन देने का जो दायित्व आपके विभाग का है, उसमें वह विफल है।

भाषा नदी जैसी होती है। अपना मार्ग वह बना ही लेती है, परंतु उस पर बांध न बनने पाएं, यह देखना हाकिम का काम होता है…!

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