क्या है वैदिक परंपरा और हमारा पितृलोक?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

ऋग्वेद में एक प्रार्थना मिलती है-‘उदित होती हुई उषा, बहती हुई नदियां, सुस्थिर पर्वत और पितृगण सदैव हमारी रक्षा करें।’ यह प्रार्थना वैदिक संस्कृति में पितरों की भूमिका को रेखांकित करती है। वैदिक ऋषि अपनी परंपरा में पितरों की उपस्थिति को अनुभव करते हैं, वे बार-बार उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हैं। वैदिक मान्यता के अनुसार हमारे सामाजिक संस्कार, विचार, मर्यादाएं, भौतिक व आध्यात्मिक उत्तराधिकार पितरों पर ही निर्भर हैं। इसलिए उनसे की गई प्रार्थना हमें विरासत के प्रति जागृत करती है।

चेतनाओं में अवस्थित

पितरों ने समय-समय पर रूढ़ियां तोड़ीं और जड़ता के विरुद्ध आवाज उठाई। वैदिक ऋषि बताते हैं कि हमारे पितृगण उच्चतर चेतना में लीन हैं। वे हमारी चेतना में देवताओं की तरह अवस्थित हैं। वे हमारी पुकार सुनते हुए हमारी रक्षा भी करते हैं। पितरों के बारे में वैदिक मान्यता है कि वे निरंतर हमारी प्राणिक चेतना का प्रक्षालन करते हुए उसे दिव्य प्रकाश की तरंगों से जोड़ने का उपक्रम करते रहते हैं। उनकी सूक्ष्म सत्ता हमारा पथ-प्रदर्शन करती है और हमें देव-सोपानों पर आरोहण के लिए तैयार भी करती है।

दिव्य जीवन के ज्ञान पुंज

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान ने कहा है कि ‘मैं पितरों में अर्यमा हूं’। अर्यमा द्वादश आदित्यों में से एक हैं और द्युलोक में हम सब लोगों के प्रकाशवान पूर्वज प्रतिनिधि हैं। अर्यमा मनुष्य की प्रकाश-यात्रा के अग्रणी नेता की भांति दिखाई देते हैं। वे द्युलोक में स्थित हैं, तो स्वाभाविक रूप से मित्र, वरुण, भग, पूषा, सविता और विष्णु जैसे व्यापक प्रभुत्व वाले देवताओं के साथ उनका होना हमें देवत्व के लिए जगाता है और इस बात के लिए भी आश्वस्त करता है कि मनुष्य की यात्रा पृथ्वीलोक से द्युलोक तक की है और वही गंतव्य है।

ऋग्वेद के प्रसिद्ध पितरसूक्त (10.15) प्रार्थना हमारे भीतर प्रकाश की ऊर्जा भरती है। वेदों में पितरों का आह्वान उसी तरह किया गया है, जैसा इंद्र, अग्नि, मरुत आदि देवों का किया गया। वे प्रभात की अरुण रश्मियों पर बैठकर आते हैं और हमारे भयमुक्त जीवन का आधार बनाकर मानसिक शांति के प्रहरी बन आस-पास मौजूद रहते हैं। इसीलिए वेदों में हमारे जीवन का परितोष पितरों पर ही निर्भर बताया गया है।

सुरक्षा करते हैं पितरों के प्रतिनिधि

पितरों को उनके व्यापक अर्थ में समझना होगा। वेदोत्तर परंपरा प्राचीन ऋषियों को पितर होने का सम्मान ही नहीं देती, अपितु उन्होंने जिस वेद की प्रतिष्ठा की, ऋतम् और सत्यम् के साथ जिस सनातन धर्म की प्रतिष्ठा की, उसे भी पितर कहते हैं। इसका सीधा अर्थ यह भी है कि हम जिसे सनातन धर्म कहते हैं, वह हमारे लिए पितृस्वरूप है। देवों के जिस विशाल साम्राज्य का पता लगाया गया, वह पितरों की महान विजय के रूप में देखा जाता है। संपूर्ण सौरमंडल, महासागरों की संपूर्ण सत्ता, नदियां, वनस्पतियां, औषधियां और जीवन-प्रणालियां पितरों के प्रतिनिधि की तरह हमारी सुरक्षा में है। यह भाव हमें पितरों के प्रति सम्मान से भर देता है।

अमरता पर आस्था

पितृलोक को पितरों की आध्यात्मिक विजय के रूप में भी देखा गया है। यह लोक आनंद, राग और रागिनियों से सदैव भरा-पूरा बताया गया है। कहा जाता है कि नचिकेता ने सशरीर इस लोक की यात्रा की थी। वह वहां तीन दिन रहकर आया था और मानव-पितरों में प्रथम माने जाने वाले यम से भी मिला था। पितृपूजा का शुद्ध और सात्विक अर्थ है, आत्मा की अमरता में गहरी आस्था। पितरों की परंपरा आत्मा का ही रूप है, और वही एकमात्र गंतव्य है। इसीलिए मनु ने कहा था ‘अमृत पथ पर चलते रहे पिता, पितामह हमारे। रास्ता निद्र्वंद्व अब वही है, बस वही है।

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