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मुख्य जनगणना के साथ-साथ जाति की जनगणना क्या मुश्किल है?

मुख्य जनगणना के साथ-साथ जाति की जनगणना क्या मुश्किल है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

जाति जनगणना को लेकर भाजपा और सरकार ने भले ही सकारात्मक रूख दिखाया हो, लेकिन इसके मुख्य जनगणना के साथ होना मुश्किल है। मुख्य जनगणना के बाद जाति की जनगणना अलग से हो सकती है। वजह यह है कि मुख्य जनगणना इस बार डिजिटल रूप में हो रही है और उसमें जाति जनगणना के आंकड़े जुटाने के लिए नए सिरे से कोडिंग करने के साथ ही जनगणना कर्मियों की ट्रेनिंग भी देगी पड़ेगी, जबकि कोरोना के कारण मुख्य जनगणना में पहले ही डेढ़ साल की देरी हो चुकी है।

जनगणना में कोरोना के कारण पहले ही हो चुका डेढ़ साल का विलंब

भारत में जनगणना कराने वाले रजिस्ट्रार जनरल आफ इंडिया के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि हर 10 साल पर होने वाली जनगणना 2021 में कराने की पूरी तैयार कर ली गई थी। जनगणना के पहले चरण में 2020 के अप्रैल से सितंबर के बीच में पूरे देश में घरों और पशुओं की गिनती की जानी थी। दूसरे चरण में फरवरी में जनसंख्या के आंकड़े जुटाने की योजना थी। इसके लिए लाखों जनगणना कर्मियों की ट्रेनिंग का काम भी पूरा कर लिया था। जनगणना के आंकड़े डिजिटल रूप में जुटाने के लिए कई वर्षों की मेहनत के बाद प्लेटफार्म तैयार किया गया था, जो आनलाइन और आफलाइन दोनों स्थितियों में काम कर सके, लेकिन मार्च में कोरोना महामारी शुरू होने के कारण जनगणना का काम पूरा नहीं किया जा सका।

डिजिटल प्लेटफार्म की पूरी कोडिंग में करना होगा बदलाव

उन्होंने कहा कि कोरोना महामारी खत्म होने और स्वास्थ्य मंत्रालय से हरी झंडी मिलने के बाद किसी भी समय जनगणना का काम शुरू हो सकता है। जाति जनगणना के आंकड़े जुटाने के लिए मुख्य जनगणना के साथ कई नए कालम जोड़ने होंगे। इसके लिए डिजिटल प्लेटफार्म की पूरी कोडिंग में बदलाव करना होगा। इसके साथ ही जनगणना कर्मियों को नए सिरे से ट्रेनिंग देकर यह बताना होगा कि जाति की जनगणना के दौरान किस तरह से आंकड़े जुटाने होंगे और उन आंकड़ों को डिजिटल प्लेटफार्म पर कैसे भरना है।

जाति जनगणना के लिए मुख्य जनगणना को और आगे टालना संभव नहीं

आंकड़े जुटाने और डिजिटल प्लेटफार्म पर भरने में जरा सी गलती पूरे प्रयास पर पानी फेर सकती है। उन्होंने कहा कि 135 करोड़ की आबादी वाले देश में जनगणना एक श्रमसाध्य काम है और इसके लिए जनगणना कर्मियों को ट्रेनिंग देने में ही एक साल से अधिक समय लग जाता है। जाहिर है जाति जनगणना के लिए मुख्य जनगणना को और आगे टालना संभव नहीं होगा। उनके अनुसार यदि सरकार जाति जनगणना का फैसला करती है तो रजिस्ट्रार जनरल आफ इंडिया इसे नए सिरे से कराने को तैयार है।

जाति आधारित जनगणना की मांग क्यों?
जाति आधारित जनगणना के लिए बिहार विधान मंडल  और फिर बाद में बिहार विधानसभा में  सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पहले ही पारित हो चुका है। महाराष्ट्र विधानसभा में भी केंद्र सरकार से जाति आधारित जनगणना कराए जाने की मांग के प्रस्ताव को हरी झंडी मिल चुकी है। महाराष्ट्र, ओडिशा, बिहार और यूपी में कई राजनीतिक दलों की मांग है कि जाति आधारित जनगणना कराई जाए।

इस तरह केंद्र पर जातिगत जनगणना कराने को लेकर दबाव बनाने की कवायद चल रही है। दरअसल जातिगत जनगणना के आधार पर ही सियासी पार्टियों को अपना समीकरण और चुनावी रणनीति बनाने में मदद मिलेगी। सभी पार्टियों की दिलचस्पी अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी की सटीक आबादी जानने को लेकर है। अभी तक सियासी पार्टियां लोकसभा और विधानसभा सीटों पर केवल अनुमानों के आधार पर ही रणनीति बनाती रही है।

ओबीसी मतदाताओं का चुनावों पर बड़ा प्रभाव

ओबीसी मतदाताओं का चुनावों पर बहुत प्रभाव है। भाजपा के हिंदुत्व का एजेंडा अब ओबीसी और अति पिछड़ी जातियों के सहारे ही चल रहा है, खासतौर पर उत्तर प्रदेश में।  यहां के चुनाव में तो ओबीसी निर्णायक भूमिका में होते हैं। इसलिए सभी पार्टियां ओबोसी को साधना चाहती हैं। मोटे तौर पर कहें तो उत्तर प्रदेश में 40 से 43 फीसदी ओबीसी मतदाता हैं। इसलिए योगी मंत्रिमंडल में उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य समेत मंत्रिमंडल में पहले से बड़े ओबीसी चेहरे शामिल हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव की बात हो 2019 के बड़ी संख्या में ओबीसी मतदाताओं ने भाजपा को वोट किया था। इसी तरह बिहार की बात करें तो राज्य में 26 फीसदी ओबीसी हैं और नीतीश कुमार ओबीसी को साधन के लिए ही जाति आधारित जनगणना की वकालत कर रहे हैं।

नीतीश कुमार का कहना है कि जातिगत जनगणना सभी तबकों के विकास के लिए आवश्यक है। किस इलाके में किस जाति की कितनी संख्या है, जब यह पता चलेगा तभी उनके कल्याण के लिए ठीक ढंग से काम हो सकेगा। जाहिर है, जब किसी इलाके में एक खास जाति के होने का पता चलेगा तभी सियासी पार्टियां उसी हिसाब से मुद्दों और उम्मीदवारों के चयन से लेकर अपनी तमाम रणनीतियां बना सकेंगी। दूसरी तरफ सही संख्या पता चलने से सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में उन्हें उचित प्रतिनिधत्व देने का रास्ता साफ हो सकेगा। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद अभी ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण का प्रावधान है।

इस तरह जाति आधारित जनगणना नहीं होने से सटीक तौर पर यह पता नहीं चल पाया कि ओबीसी और ओबीसी के भीतर विभिन्न समूहों की कितनी आबादी है। 1931 में जाति आधारित जनगणना के आधार पर ही अब तक यह माना जाता है कि देश में 52 फीसदी ओबीसी आबादी है। मंडल आयोग ने भी यही अनुमान लगाया कि ओबीसी आबादी 52% है। इसी तरह ओबीसी की आबादी को लेकर चुनाव के समय राजनीतिक दल लोकसभा और विधानसभा सीटों पर अपना अनुमान लगाती है।

कितनी बार हुई है जाति जनगणना की मांग?
जाति आधारित जनगणना की मांग हर जनगणना से पहले होती रही है। ऐसी मांग आमतौर पर ओबीसी और अन्य वंचित वर्गों के नेता करते हैं, जबकि उच्च जातियों के नेता इस विचार का विरोध करते रहे हैं। ये पहला मौका नहीं है जब देश में जाति आधारित जनगणना की मांग उठने लगी है। पिछली जनगणना 2011 के दौरान भी मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और शरद यादव जैसे नेताओं ने ऐसी ही जनगणना की  मांग की थी। सपा प्रमुख अखिलेश यादव भी जाति आधारित जनगणना की मांग उठा चुके हैं।

 

 

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