भारत में बेरोज़गारी को दूर करने के लिये क्या किया जाना चाहिये?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
भारत में रोज़गार संकट एक गंभीर एवं चिरस्थायी समस्या है जो लाखों युवा और शिक्षित लोगों को प्रभावित करती है जो औपचारिक अर्थव्यवस्था में उपयुक्त रोज़गार पाने में असमर्थ हैं। एक स्वतंत्र थिंक टैंक ‘सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी’ (CMIE) के अनुसार भारत की बेरोज़गारी दर वर्षग 2021 और 2022 की अधिकांश अवधि में 7% से अधिक बनी रही जबकि दिसंबर 2022 में यह 7.9% तक पहुँच गई। बेरोज़गारी की यह दर वैश्विक औसत और अधिकांश उभरती अर्थव्यवस्थाओं में विद्यमान दर से उच्च है।
भारत जैसी अर्थव्यवस्था में दो प्रकार के रोज़गार प्रचलित हैं:
- इनमें पहला वेतन रोज़गार (wage employment) है जो नियोक्ताओं द्वारा मुनाफे की तलाश में मांग किये जाते श्रम का परिणाम है। इसे आगे निम्नलिखित रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है:
- नियमित वेतन रोज़गार: ये औपचारिक, संरचित पद हैं जहाँ कर्मियों को नियमित रूप से एक निश्चित वेतन या पारिश्रमिक प्राप्त होता है।
- इसमें सरकारी संगठनों, निजी कंपनियों और बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा प्रदत्त नौकरियाँ शामिल हैं।
- आकस्मिक या दिहाड़ी श्रम: भारत में बहुत से श्रमिक विशेष रूप से निर्माण, कृषि और असंगठित श्रम बाज़ार में दैनिक मज़दूरी या दिहाड़ी श्रम से संलग्न हैं।
- इन नौकरियों में प्रायः रोज़गार सुरक्षा का अभाव होता है और ये परिवर्तनशील आय का भी जोखिम रखती हैं।
- नियमित वेतन रोज़गार: ये औपचारिक, संरचित पद हैं जहाँ कर्मियों को नियमित रूप से एक निश्चित वेतन या पारिश्रमिक प्राप्त होता है।
- रोज़गार का दूसरा प्रकार स्वरोज़गार है जहाँ श्रम आपूर्ति और श्रम मांग सदृश होते हैं, यानी कर्मी स्वयं को रोज़गार प्रदान करता है। इसे आगे निम्नलिखित रूप में विभाजित किया जा सकता है:
- उद्यमिता: भारत में कई लोग उद्यमिता या उद्यमशील गतिविधियों से संलग्न हैं जहाँ वे छोटे व्यवसाय या उद्यम का संचालन कर रहे हैं।
- इसमें छोटी दुकानें, स्थानीय सेवाएँ या विनिर्माण इकाइयाँ शामिल हो सकती हैं।
- किसान: भारत में कृषि स्वरोज़गार का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। कई व्यक्ति स्वतंत्र रूप से या परिवार द्वारा संचालित उद्यम के अंग के रूप में अपने खेतों के मालिक हैं और उनका संचालन करते हैं।
- फ्रीलांसिंग और अनौपचारिक कार्य: गिग इकोनॉमी (gig economy) के उभार के साथ फ्रीलांसिंग और अनौपचारिक कार्य व्यवस्था बेहद आम हो गई है।
- इसमें फ्रीलांसर, सलाहकार या अंशकालिक भूमिकाओं में कार्यरत व्यक्ति शामिल होते हैं।
- उद्यमिता: भारत में कई लोग उद्यमिता या उद्यमशील गतिविधियों से संलग्न हैं जहाँ वे छोटे व्यवसाय या उद्यम का संचालन कर रहे हैं।
भारत में बेरोज़गारी के पीछे कौन-से प्रमुख कारण हैं?
- गतिहीन रोज़गार वृद्धि दर: पिछले चार दशकों में गैर-कृषि क्षेत्र में वेतनभोगी कर्मियों की रोज़गार वृद्धि दर कमोबेश गतिहीन रही है।
- यह औपचारिक रोज़गार अवसरों में उल्लेखनीय विस्तार की कमी को दर्शाता है।
- प्रच्छन्न बेरोज़गारी: भारतीय अर्थव्यवस्था में खुली बेरोज़गारी (open unemployment) और अनौपचारिक रोज़गार (स्वरोज़गार एवं आकस्मिक वेतन वाले कर्मियों सहित) के उच्च स्तर मौजूद हैं।
- इनमें से दूसरी स्थिति को ‘प्रच्छन्न बेरोज़गारी’ (Disguised Unemployment) के रूप में जाना जाता है क्योंकि यह खुली बेरोज़गारी जैसा दिखता है और औपचारिक क्षेत्र में उपयुक्त रोज़गार अवसरों की कमी को दर्शाता है।
- श्रम मांग निर्धारक (Labour Demand Determinants): औपचारिक गैर-कृषि क्षेत्र में श्रम की मांग दो प्रमुख कारकों पर निर्भर करती है।
- सर्वप्रथम, यह उस उत्पादन की मात्रा से प्रभावित होता है जिसे कंपनियाँ बेच सकने में सक्षम हैं। यदि उत्पादन की मांग कम है तो कंपनियों द्वारा अतिरिक्त कर्मियों को नियुक्त करने की संभावना कम होती है।
- दूसरा, प्रौद्योगिकी का स्तर एक भूमिका निभाता है, क्योंकि श्रम-बचत प्रौद्योगिकियों की शुरूआत कंपनियों को कम कर्मियों के साथ समान मात्रा में उत्पादन करने की अनुमति देती है।
- यद्यपि इससे दक्षता बढ़ती है, लेकिन इससे औपचारिक क्षेत्र में उपलब्ध नौकरियों की संख्या में कमी आ सकती है।
- आउटपुट वृद्धि पर नीतिगत फोकस: भारत में आर्थिक नीतियाँ पारंपरिक रूप से आउटपुट वृद्धि (जीडीपी या मूल्यवर्द्धित) के संदर्भ में तैयार की गई हैं, जो आवश्यक नहीं है कि रोज़गार सृजन की चुनौती का समाधान करती हो।
- केवल उत्पादन वृद्धि पर केंद्रित नीतियों के परिणामस्वरूप रोज़गार के अवसरों में वृद्धि नहीं भी हो सकती है, विशेष रूप से यदि श्रम उत्पादकता वृद्धि दर बढ़ती है।
- रोज़गार वृद्धि दर की प्रतिक्रियाशीलता का अभाव (Lack of Responsiveness of Employment Growth Rate): भारत में 1980 और 1990 के दशक की तुलना में 2000 के दशक में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर और मूल्यवर्द्धित विकास दर में उल्लेखनीय वृद्धि के बावजूद औपचारिक एवं गैर-कृषि क्षेत्र की रोज़गार वृद्धि दर अनुत्तरदायी बनी रही।
- उत्पादन वृद्धि दर में परिवर्तन के प्रति रोज़गार वृद्धि दर की प्रतिक्रियाशीलता की कमी रोज़गारहीन वृद्धि (Jobless Growth) की परिघटना को प्रकट करती है। यह श्रम उत्पादकता वृद्धि दर और उत्पादन वृद्धि दर के बीच एक मज़बूत संबंध को इंगित करती है।
भारत के मामले में रोज़गारहीन वृद्धि क्या है?
- किसी अर्थव्यवस्था के विकास के साथ आम तौर पर देखा जाता है कि वह अधिक उत्पादक भी हो जाती है। अर्थात्, कुल आउटपुट की अधिक मात्रा का उत्पादन करने की प्रक्रिया में कंपनियाँ प्रति कर्मी अधिक आउटपुट के उत्पादन में सक्षम हो जाती हैं। ऐसा इस स्थिति के कारण होता है जिसे अर्थशास्त्री आकारिक मितव्ययिता या ‘इकोनॉमिज़ ऑफ स्केल’ (economies of scale) कहते हैं।
- अधिक आउटपुट के उत्पादन के साथ फर्मों को श्रम-बचत प्रौद्योगिकियों को अपनाना आसान लगने लगता है। लेकिन श्रम-बचत प्रौद्योगिकियों को किस हद तक पेश किया जाता है, यह श्रम की सौदेबाजी शक्ति पर निर्भर करता है।
- आउटपुट वृद्धि और श्रम उत्पादकता वृद्धि के बीच संबंध की सुदृढ़ता के आधार पर दो प्रकार की रोज़गारहीन विकास व्यवस्थाएँ विकसित होती हैं:
- जीडीपी वृद्धि के प्रति दुर्बल रोज़गार प्रतिक्रियाशीलता: इस मामले में रोज़गारहीन विकास की संभावना विशेष रूप से स्वचालन और श्रम-बचत प्रौद्योगिकी की शुरूआत के कारण उभरती है।
- लेकिन ऐसे देशों में यदि उत्पादन वृद्धि दर बढ़ती है तो रोज़गार वृद्धि दर भी अनिवार्य रूप से बढ़ेगी।
- श्रम उत्पादकता की दुर्बल प्रतिक्रियाशीलता के तहत रोज़गार पर सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर का सकारात्मक प्रभाव श्रम-बचत प्रौद्योगिकियों के प्रतिकूल प्रभाव पर हावी होगा।
- यहाँ रोज़गार संकट का समाधान अधिक तीव्र आर्थिक विकास में निहित है।
- जीडीपी वृद्धि के प्रति प्रबल या उच्च रोज़गार प्रतिक्रियाशीलता: भारत के मामले में उत्पादन वृद्धि दर के प्रति श्रम उत्पादकता वृद्धि दर की प्रतिक्रियाशीलता उच्च है।
- यहाँ रोज़गार पर उत्पादन वृद्धि दर का सकारात्मक प्रभाव श्रम-बचत प्रौद्योगिकियों के प्रतिकूल प्रभाव का प्रतिकार करने में विफल रहता है।
- ऐसे देशों में केवल जीडीपी वृद्धि दर बढ़ाकर रोज़गार वृद्धि दर नहीं बढ़ाई जा सकती।
- काल्डोर-वेरडॉर्न गुणांक (Kaldor-Verdoorn Coefficient): काल्डोर-वेरडॉर्न गुणांक उस सीमा की माप करता है जिस हद तक श्रम उत्पादकता वृद्धि उत्पादन वृद्धि के प्रति प्रतिक्रिया करती है।
- उच्च गुणांक दोनों के बीच एक मज़बूत संबंध को इंगित करता है।
- भारत का काल्डोर-वेरडॉर्न गुणांक अधिक है, इसका तात्पर्य यह है कि भारत अन्य विकासशील देशों की तुलना में रोज़गारहीन विकास के अधिक स्पष्ट रूप का अनुभव कर रहा है।
- जीडीपी वृद्धि के प्रति दुर्बल रोज़गार प्रतिक्रियाशीलता: इस मामले में रोज़गारहीन विकास की संभावना विशेष रूप से स्वचालन और श्रम-बचत प्रौद्योगिकी की शुरूआत के कारण उभरती है।
मैक्रोइकोनॉमिक नीति ढाँचे (Macroeconomic Policy Frameworks):
- कींस का सिद्धांत (Keynes’ theory/ Keynesian Theory): मैक्रोइकॉनॉमिक्स में कींस क्रांति (Keynesian revolution) का केंद्रीय योगदान रोज़गार पर बाध्यकारी बाधा के रूप में समग्र मांग की भूमिका को उजागर करना था।
- राजकोषीय नीति से आउटपुट को प्रोत्साहित कर श्रम मांग को बढ़ाने की अपेक्षा की गई। जिन विकासशील देशों को अपनी स्वतंत्रता के दौरान दोहरी अर्थव्यवस्था संरचना विरासत में प्राप्त हुई, उन्हें आउटपुट पर अतिरिक्त बाधाओं का सामना करना पड़ा।
- महालनोबिस रणनीति (Mahalanobis Strategy): इसने आउटपुट और रोज़गार पर बाध्यकारी बाधा के रूप में पूंजीगत वस्तुओं की उपलब्धता की पहचान की और भारी औद्योगीकरण की नीति को आगे बढ़ाया।
- संरचनावादी सिद्धांत (Structuralist Theories): विकासशील देशों के अनुभवों पर आधारित संरचनावादी सिद्धांतों ने कृषि बाधा और भुगतान संतुलन की बाधाओं की संभावना पर प्रकाश डाला।
- इन दोनों बाधाओं के कारण भारत में विशेष रूप से 1970 के दशक में और 1990 के दशक के आरंभ में प्रमुख नीतिगत बहसों को बल मिला।
- बहरहाल, इन सभी अलग-अलग रूपरेखाओं में जो सामान्य बात रही वह यह धारणा थी कि गैर-कृषि क्षेत्र में उत्पादन वृद्धि दर बढ़ाना औपचारिक क्षेत्र में रोज़गार वृद्धि दर बढ़ाने के लिये एक पर्याप्त शर्त होगी।
- लेकिन रोज़गार की चुनौती को अब केवल अधिक तीव्र जीडीपी वृद्धि के माध्यम से पूरा नहीं किया जा सकता है।
भारत में बेरोज़गारी को दूर करने के लिये क्या किया जाना चाहिये?
- राष्ट्रीय रोज़गार नीति (National Employment Policy- NEP) लागू करना: साक्ष्य बताते हैं कि रोज़गार चुनौती को अब केवल अधिक तीव्र जीडीपी वृद्धि के माध्यम से पूरा नहीं किया जा सकता है, बल्कि जीडीपी वृद्धि पर ध्यान देने के साथ-साथ रोज़गार पर भी एक अलग नीतिगत फोकस की आवश्यकता है।
- ऐसी रोज़गार नीतियों के लिये मांग पक्ष और आपूर्ति पक्ष दोनों घटकों की आवश्यकता होगी।
- उदाहरण के लिये, कर्मियों की शिक्षा और स्वास्थ्य के सार्वजनिक प्रावधान की कमी के कारण फर्मों को अपने कार्य को स्वचालित करना जिस हद तक आसान लगता है, बेहतर देखभाल के माध्यम से कार्यबल की गुणवत्ता में वृद्धि के साथ-साथ कौशल अंतर को दूर करना भी महत्त्वपूर्ण है।
- मांग पक्ष की ओर, प्रत्यक्ष सार्वजनिक रोज़गार सृजन की आवश्यकता होगी।
- मनरेगा (MGNREGA) का शहरी संस्करण पेश करना: यह शहरी गरीबों के लिये एक सुरक्षा जाल और आय का स्रोत प्रदान कर सकता है। यह योजना उन शहरी गरीबों के लिये लागू की जा सकती है जो प्रायः अनौपचारिक एवं अनिश्चित रोज़गार में लगे होते हैं। यह उन्हें न्यूनतम स्तर की आय सुरक्षा प्रदान कर सकता है और शहरी क्षेत्रों में सार्वजनिक संपत्ति एवं सेवाएँ का निर्माण भी कर सकता है।
- राजस्थान ने हाल ही में मनरेगा का एक शहरी संस्करण पेश किया है।
- कृषि में औद्योगीकरण और निवेश बढ़ाना: यह अधिक नौकरियाँ पैदा कर सकता है और उत्पादकता बढ़ा सकता है। भारत में बेरोज़गारी की स्थिति का सबसे अचूक इलाज तीव्र औद्योगीकरण ही हो सकता है।
- उद्योगों की बढ़ी हुई संख्या प्रभावी रूप से रोज़गार के अवसरों की बढ़ी हुई संख्या में रूपांतरित हो जाती है।
- इसके अलावा, कृषि में निवेश या पूंजी निर्माण भी गुणक प्रभावों के माध्यम से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रोज़गार पैदा कर सकता है।
- कृषि में विविधता लाना और कृषि-प्रसंस्करण उद्योगों को बढ़ावा देना: यह ग्रामीण आय और रोज़गार के अवसरों को बढ़ा सकता है। फसल उत्पादन से बागवानी, सब्जी उत्पादन, फूलों की खेती, पशुपालन, मत्स्य पालन आदि की ओर एक सापेक्ष बदलाव की तत्काल आवश्यकता है जो अधिक श्रम अवशोषी और उच्च आय प्रदाता होते हैं।
- इसके अतिरिक्त, निर्यात उद्देश्यों के लिये कृषि-प्रसंस्करण उद्योगों को बढ़ावा देने में रोज़गार की वृहत संभावना निहित है।
- ये उद्योग कृषि उपज की बर्बादी को भी कम कर सकते हैं और मूल्यवर्द्धन बढ़ा सकते हैं।
- शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल का विस्तार: यह मानव पूंजी में सुधार कर सकता है और सामाजिक क्षेत्र में रोज़गार पैदा कर सकता है। शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल का विस्तार न केवल मानव पूंजी के संचय को बढ़ावा देता है और इस प्रकार उत्पादन की वृद्धि में योगदान करता है, बल्कि यह रोज़गार के अच्छे अवसर भी पैदा करेगा।
- शिक्षा प्रणाली में सुधार और व्यावसायिक एवं तकनीकी प्रशिक्षण प्रदान करने से कार्यबल के कौशल एवं रोज़गार क्षमता में वृद्धि होगी।
- व्यावसायिक और तकनीकी प्रशिक्षण छात्रों को विशिष्ट व्यवसायों और उद्योगों के लिये आवश्यक कौशल एवं ज्ञान प्राप्त करने में मदद कर सकता है।
- यह श्रम की मांग और आपूर्ति के बीच असंगति को कम कर सकता है तथा अर्थव्यवस्था की उत्पादकता और प्रतिस्पर्द्धात्मकता में सुधार ला सकता है।
- शिक्षा प्रणाली में सुधार और व्यावसायिक एवं तकनीकी प्रशिक्षण प्रदान करने से कार्यबल के कौशल एवं रोज़गार क्षमता में वृद्धि होगी।
- ग्रामीण क्षेत्रों का विकास करना और विकास का विकेंद्रीकरण: यह शहरी क्षेत्रों पर प्रवासन के दबाव को कम कर सकता है और अधिक संतुलित विकास का सृजन कर सकता है।
- ग्रामीण क्षेत्रों का विकास ग्रामीण लोगों के शहरी क्षेत्रों की ओर प्रवासन को कम करने में मदद कर सकता है जिससे शहरी क्षेत्र के रोज़गार अवसरों पर दबाव कम हो सकता है।
- विकेंद्रीकृत विकास यह भी सुनिश्चित कर सकता है कि विकास के लाभ विभिन्न क्षेत्रों और खंडों के बीच अधिक समान रूप से साझा किये जाएँ।
- इससे स्थानीय भागीदारी और लोगों के सशक्तीकरण को भी बढ़ावा मिल सकता है।
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