Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the newsmatic domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/imagequo/domains/shrinaradmedia.com/public_html/wp-includes/functions.php on line 6121
पंडित मदन मोहन मालवीय जी का क्या था स्वराज्य? - श्रीनारद मीडिया

पंडित मदन मोहन मालवीय जी का क्या था स्वराज्य?

पंडित मदन मोहन मालवीय जी का क्या था स्वराज्य?

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

स्वतंत्रता का न होना, उन्नति के अवसरों को खोना है, उन्नति के अवसरों को खोना, अधःपतन है; और अधःपात मृत्यु के तुल्य है। – -पंडित मदन मोहन मालवीय

पंडित मदन मोहन मालवीय स्वराज्य को मानवीय धर्म का महामंत्र मानते थे; क्योकि पराधीनता से बड़ा दुःख संसार मे कुछ और नही हो सकता है। विदेशी सरकार की अधीनता सबसे बड़ा अभिशाप है,जो किसी राष्ट्र पर हो सकता हैं; वह जानता के पुरुषत्व को नष्ट करता है और भयंकर मात्रा में नैतिक स्वभाव को प्रभावित करता है। पंडित जी पश्चिमी विचारकों से सहमत नही थे कि स्वराज्य की अवधारणा पश्चिमी जगत से आयी है और भारत लोकनियांत्रित राजसत्ता से अपरिचित थे । मालवीय जी का मानना था कि यूरोपवासियों ने स्वराज्य करने की पद्धति को भारतवाशियों से सीखा है। पूरा भारतीय वाङ्गमय इस पद्धति से भरा पूरा है। महामना की दृष्टि में स्वराज्य के कई अर्थ है।

वे क्रांतिकारियों के इस मत से सहमत थे; कि स्वराज का अर्थ अंग्रेजी दासता से भारत की मुक्ति है। यद्यपि वे क्रांतिकारियों के हिंसात्मक मार्ग के समर्थक नही थे,इसके लिए वे गोरे शासकों को जिम्मेदार मानते थे।उनका कहना था कि क्रांतिकारियों ने विवस होकर हिंसा का रास्ता चुना ; क्योकि क्रांतिकारी एक क्षण के लिए भी विदेशी सत्ता को बर्दाश्त नही करना कहते थे।मालवीय जी के अनुसार राजनैतिक परतंत्रता से मुक्ति और राजनैतिक स्वतंत्रता की प्राप्ति का नाम स्वराज्य है।

स्वतंत्रता प्राप्त करने का दार्शनिक सूत्र महामना को सांख्य एवं वेदान्त से मिला था। इसलिए वे कहते है कि स्वतंत्रता के लिए विवेक का होना आवश्यक है। महामना #मनुष्यत्व के लिए स्वतन्त्रता को आवश्यक मानते थे; क्योंकि पराधीन जेता और विजीत दोनों में मनुष्यत्व नही रहने देता । इसलिए पराधीनता और विदेशी शासन संसार मे कही नही रहने देना चाहिए। मालवीय जी हेगल से सहमत थे कि धर्म स्वतंत्रता का पर्यायवाचक है। धर्म मनुष्य के पशुत्व से ईश्वरत्व की ओर ले जाता है। पराधीन देश मे इस संभव नही है।

महामना अच्छी सरकार को स्वशासन का विकल्प नही मानते थे।संसार मे दो शक्तियां है आत्मा और तलवार। महामना आत्मा की शक्ति द्वारा स्वराज्य प्राप्त करना चाहते थे। इसलिये वे गाँधी के अहिंसात्मक संघर्ष को विशेष महत्व देते थे। मालवीय जी के अनुसार अहिंसात्मक लड़ाई हिंसात्मक लडाई से अधिक हिम्मत की मांग करती है।हिंसात्मक उपयो से प्राप्त स्वराज्य में व्यक्तिगत स्वतंत्रता का कोई स्थान नही है।

व्यक्तिगत स्वतंत्रता का पूर्ण विकास अहिंसा के द्वारा प्राप्त शासन में ही संभव है। मालवीय जी के लिए #अहिंसा व्यक्ति और समाज के लिए आध्यात्मिक एवं राजनीतिक आचरण का पथ है।महामना की दृष्टि में स्वराज्य ही स्वभाविक शासन है क्योंकि मनुष्य का सम्पूर्ण विकास इसी शासन में संभव है।मालवीय हिंदू संस्कृति की सार्वभौमिकता को तलाशते और तराशते रहते थे।उनका कहना था कि सामाजिक कुरीतियों का सामना करने के लिए ज़रूरी है कि हम संस्कृति के रास्ते लोगों के दिल-दिमाग़ तक पहुंचें।

एक बार की घटना है, काशी में सभा हुई, अनेक विद्वान् एवं सम्मानित वहाँ इकट्ठे हुए। व्याख्यान का विषय था ‘अस्पृश्यता निवारण’। इसमें देवनायकाचार्यजी मुख्य वक्ता थे। परंतु समय पर वे कुछ न बोले। वहाँ पर महात्मा गाँधी भी उपस्थित थे। लोगों के आग्रह पर उन्होंने व्याख्यान देना प्रारंभ किया और जब उनका भाषण समाप्त हुआ तो एकाएक देवनायकाचार्यजी मंडप में सुशोभित मंच पर जा खड़े हुए और हरिजनों (अंत्यजों) को मंत्र देने की बात का खंडन करने लगे। सभी लोग मूकदर्शक बने अपलक नेत्रों से देवनायकाचार्यजी का मुँह देखने लगे, परंतु मालवीयजी महाराज से नहीं रहा गया। उन्होंने देवनायकाचार्य के मत का खंडन करते हुए अपना व्याख्यान प्रारंभ किया।

मालवीयजी ने कहा कि मैं न तो धर्मशास्त्रों का पंडित हूँ, न धर्माचार्य हूँ। मैं तो एक कथा बाँचनेवाले धर्मप्राण गरीब भक्त-ब्राह्मण का बेटा हूँ। मैंने आजीवन धर्मपरायण रहने का प्रयत्न किया है। अपने संज्ञान में मैंने कभी अधर्म नहीं किया। मेरी समझ में नहीं आता कि करोड़ों गरीब हिंदुओं को धर्माचरण व देव-दर्शन से वंचित रखना कौन सा धर्म है? यह वही काशी नगरी है, जहाँ रैदास और कबीर जैसे भक्त हो चुके हैं।

जहाँ स्वयं भगवान् शंकर ने चांडाल का वेश बनाकर शंकराचार्य को सब जीवों में एक ही का बोध कराया। उसी नगरी में एक धर्माचार्य आदमी ऐसी बात कह रहा है। कैसे कोई धर्म से धार्मिक को, भगवान् से भक्त को दूर रख सकता है। कैसे कोई छुआछूत की बात कर मनुष्य और मनुष्य में अंतर कर सकता है। मालवीयजी बोलते हुए हिंदुओं के ध्वजावाहक लग रहे थे और दर्शकों की भीड़ मंत्रमुग्ध-सी उनके शब्दों में डूबती-उतराती लग रही थी। जहाँ तक उनके शब्द नहीं पहुँचे, वहाँ तक उनके वक्तव्य की ऊष्मा पहुँची और लोगों ने करतल ध्वनि से उनका समर्थन किया।

Leave a Reply

error: Content is protected !!