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समान नागरिक संहिता पर अंबेडकर के क्या विचार थे? - श्रीनारद मीडिया

समान नागरिक संहिता पर अंबेडकर के क्या विचार थे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

देश में समान नागरिक संहिता को लेकर सियासत गरमा रखी है। केंद्र की मोदी सरकार जहां यूसीसी बिल को संसद में पेश कर लागू करवाना चाहती है, तो वहीं, विपक्षी नेता इसे पेश करने से रोकना चाहते हैं। इस बीच हाल ही में पीएम मोदी ने भी इसको लेकर बड़ा बयान दिया।

पीएम मोदी ने यूसीसी के समर्थन में बोलते हुए कहा कि एक घर में जब दो नियम नहीं चल सकते तो देश में दो नियम कैसे लागू हो सकते हैं पीएम ने कहा कि कुछ लोग देश में मौजूद हैं जो मुस्लिमों को घुमराह करने पर लगे हैं। पीएम के इस बयान के बाद से विपक्ष उनपर हमलावर है और यूसीसी को चुनावी मुद्दा बनाने का आरोप लगा रहे हैं। बता दें कि भाजपा इस मुद्दे को कई सालों से उठा रही है, लेकिन यूसीसी का मुद्दा कई दशक पहले से देश की राजनीति में चर्चा का विषय है।

क्या है समान नागरिक संहिता

समान नागरिक संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड) एक ऐसा प्रस्ताव है, जिसका उद्देश्य हर धर्म, रीति-रिवाजों और परंपराओं पर आधारित व्यक्तिगत कानूनों को सभी के लिए एकसमान करना है। इसका मतलब है सभी धर्म, जाति, पंथ और लिंग के लोगों के लिए भारत में विवाह, तलाक, गोद लेने और विरासत के मसलों के नियम एकजैसे होंगे।

ब्रिटिश राज में हुआ था सबसे पहले जिक्र

यूसीसी का जिक्र मोदी सरकार से भी पहले हो चुका है। दरअसल, 1835 में ही ब्रिटिश सरकार ने अपराधों, सबूतों और कई अन्य विषयों पर  समान नागरिक कानून लागू करने की बात कही थी। हालांकि, उस रिपोर्ट में हिंदू या मुस्लिम धार्मिक कानून को बदलने को लेकर कोई बात नहीं थी।

अबेडकर ने भी की थी चर्चा

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने भी यूसीसी का जिक्र किया था। 1948 में संविधान सभा कि बैठक में अंबेडकर ने यूसीसी को भविष्य के लिए अहम बताया था और इसे स्वैच्छिक रखने की बात कही गई थी।

अम्बेडकर कई राजनीतिक दिग्गजों के साथ समान नागरिक संहिता के प्रस्तावक थे। संविधान सभा की बहस के दौरान अम्बेडकर ने कहा था,समान नागरिक संहिता के बारे में कुछ भी नया नहीं है। विवाह, विरासत के क्षेत्रों को छोड़कर देश में पहले से ही एक समान नागरिक संहिता मौजूद है, जो संविधान के मसौदे में समान नागरिक संहिता के मुख्य लक्ष्य हैं। यूसीसी भी वैकल्पिक होना चाहिए।

आजादी के बाद शाह बानो केस में UCC का जिक्र

देश आजाद होने के बाद यूसीसी का जिक्र उस समय हुआ जब तीन तलाक का एक मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। दरअसल, ये चर्चित शाह बानो केस है, जिसमें इंदौर के एक वकील ने उन्हें तीन तलाक दे दिया था।

शाह बानो का निकाह छोटी उम्र में ही 1932 हो गया था और उसके 5 बच्चे थे। इस बीच 14 साल बाद उसके पति अहमद खान ने दूसरा निकाह कर लिया।

शाह बानो पहले तो अपने पति के साथ रह रही थी, लेकिन बाद में दोनों में झगड़ा हुआ तो दोनों ने समझौता कर अलग होने का फैसला किया। समझौते के तहत शाह बानो को उसके पति ने 200 रुपये देने थे, लेकिन बाद में वो मुकर गया।

ऐसे सुप्रीम कोर्ट पहुंचा केस

गुजारा भत्ता न दिए जाने के 62 साल बाद शाह बानो ने इंदौर के एक अदालत का रुख किया। अदालत में पति ने मुस्लिम लॉ बोर्ड का हवाला देते हुए कहा कि वो गुजारा भत्ता देने के लिए बाध्य नहीं है। हालांकि, कोर्ट ने उसे 20 रुपये देने का निर्देश दिया।

इतने कम पैसों से शाह बानो का घर नहीं चल पा रहा था, इसके चलते उनसे बाद में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। जहां हाई कोर्ट ने उसके पक्ष में फैसला सुनाते हुए पति को 179 रुपये देने का आदेश दिया।

हाई कोर्ट के फैसले से जब पति संतुष्ट नहीं हुआ तो वो सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और उसने हाई कोर्ट के फैसले को पलटने की मांग की। हालांकि, शीर्ष न्यायालय ने 1985 में हाई कोर्ट के फैसले को सही करार दिया। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाने के बाद एक बड़ी टिप्पणी भी की। कोर्ट ने कहा कि देश में अब समान नागरिक संहिता की जरूरत महसूस हो रही है।

किस राज्य में लागू और कहां चल रही बात

बता दें कि गोवा में यह कानून पहले से लागू है। गोवा को संविधान का विशेष दर्जा मिला है। राज्‍य में सभी धर्म और जातियों के लिए फैमिली लॉ लागू है। इसके तहत सभी धर्म, जाति, संप्रदाय और वर्ग से जुड़े लोगों के लिए शादी, तलाक, उत्‍तराधिकार के कानून समान हैं। वहीं असम, उत्तराखंड और गुजरात की भाजपा सरकारों ने इसे लागू करने के लिए कदम बढ़ाए हैं।

UCC का इसलिए हो रहा विरोध

दरअसल, यूसीसी लागू होने को मुस्लिम समुदाय उनके धर्म में दखल देना मान रहे हैं। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का कहना है कि शरीयत के तहत मुस्लिमों के लिए कानून अलग है और इसमें महिलाओं को संरक्षण दिया गया है, इसलिए यूसीसी की जरूरत नहीं है। उनका मानना है कि यूसीसी से मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का वजूद खतरे में पड़ जाएगा।

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