पेंशन पाने लगें तो देश के शेष 139 करोड़ लोगों के लिए क्या बचेगा?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

यादगार उपन्यास है कृष्ण कथा। इसमें एक पात्र है छंदक। वह समाज में क्रांति के बीज बोता है। असंतोष की खेती करता है। देश में कुछ दल छंदक की भूमिका में हैं। भावी भारत की अराजक राजनीतिक पटकथा लिखने में जी-जान से जुटे।

सामाजिक असंतोष, आर्थिक कंगाली और वर्ग-संघर्ष के बीज बोकर। यह पटकथा क्या है? आर्थिक विशेषज्ञों ने हाल में इसके परिणाम बताए हैं। मुल्क में दो पेंशन व्यवस्था हैं सरकारी कर्मचारियों के लिए। (1) नेशनल पेंशन स्कीम (एनपीएस) (2) आजादी के बाद लागू ओल्ड पेंशन स्कीम (ओपीएस)। 2004-05 (1 अप्रैल 2004) के बाद आए सरकारी मुलाजिम (केंद्र-राज्य) एनपीएस में हैं।

इसके तहत कर्मचारी को 10 से 14 फीसदी पेंशन मद में अंशदान देना पड़ता है। पहले के सरकारी मुलाजिम ओपीएस के तहत हैं। इसमें सब बोझ सरकार पर है। 1990-91 में केंद्र का कुल पेंशन बिल 3272 करोड़ था। सभी राज्यों का पेंशन बिल 3131 करोड़। 20-21 तक केंद्र का यह खर्च 58 गुना बढ़ गया। 1.9 लाख करोड़। राज्यों का 125 गुना बढ़ा, 3.86 लाख करोड़।

1990-91 से 2004-05 के बीच राज्यों का विकास खर्च बहुत घट गया। 221 फीसदी से 118 फीसदी। एक राज्य में विकास खर्च घटकर 77 फीसदी रह गया। मुख्य वजह, पेंशन पर बेतहाशा खर्च। सूद अदायगी और कर्ज भुगतान। राज्यों का खर्च विकास व गैर विकास मद में होता है।

विकास खर्च मुख्यतया स्वास्थ्य, शिक्षा, इन्फ्रास्ट्रक्चर वगैरह पर है। गैर-विकास खर्च प्रशासनिक खर्च, सूद अदायगी, कर्ज भुगतान और वेतन-पेंशन खर्च है। 2003 में विशेषज्ञ समिति ने सरकार को चेताया। ओपीएस ले डूबेगा। 2003 की वाजपेयी सरकार एनपीएस लाई। प्रभावी लागू किया यूपीए सरकार ने।

2005 में सरकार ने कहा, यह सही वक्त है, ‘पेंशन सुधार व्यवस्था की शुरुआत का’। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री चिदंबरम ने राज्यों को नई व्यवस्था का महत्व बताया। तब राजस्थान पहले कुछ राज्यों में था, जिसने एनपीएस अपनाया।

अब राजस्थान पहला राज्य है, जिसने ओपीएस अपना लिया। पांच राज्य अब तक पुरानी पेंशन व्यवस्था में लौटे हैं। राजस्थान के कुल कर राजस्व का पेंशन-वेतन में खर्च 56 फीसदी है। कर्मचारी छह फीसदी हैं। यानी छह फीसदी पर राज्य के 100 रु. में से 56 खर्च। शेष जनता के लिए महज 44 रु.।

मोंटेक सिंह ने कहा है कि यह ‘वित्तीय दिवालियापन’ की रेसिपी है। अर्थशास्त्री अरविंद पनगढ़िया का निष्कर्ष है कि इसका बोझ 2034 से दिखेगा। यही रहस्य है ओपीएस का। सरकार को तत्काल राहत मिलती है कि एनपीएस में अंशदान नहीं देना पड़ता। इससे 7 से 10 प्रतिशत राशि बचती है। कारण ओपीएस में भविष्य में एक साथ अप्रत्याशित आर्थिक बोझ पड़ेगा। यानी भविष्य गिरवी रखकर सत्ता की होड़।

एक संसदीय समिति (पक्ष-विपक्ष के सांसद) ने पाया कि छत्तीसगढ़, झारखंड और राजस्थान के पुरानी पेंशन में लौटने से तीन लाख करोड़ का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा। पूरे देश में यह लागू हो जाए तो कुल खर्च 31 लाख करोड़ होगा। याद रखें, कुछ वर्षों पहले तक देश का बजट ही इस राशि से बहुत कम था। इस बोझ के साथ वेतन, सूद अदायगी और कर्ज भुगतान जोड़ दें तो विकास के लिए क्या बचेगा? फिलहाल राज्यों की पेंशन का 90 फीसदी भुगतान ओल्ड पेंशन स्कीम में हो रहा है।

रिजर्व बैंक रिपोर्ट (जून 22) में पांच राज्यों के अधिक कर्ज का उल्लेख है। सीएजी आंकड़े कहते हैं कि तीन राज्यों का पेंशन भुगतान वेतन-भत्ता से अधिक हो चुका है। पिछले कुछ सालों में चार राज्यों ने सम्पत्ति (सार्वजनिक जगह, पार्क, अस्पताल, सरकारी भवन, जमीन वगैरह) गिरवी रखकर 47 हजार करोड़ का कर्ज लिया है।

जीडीपी सीमा (3.5 फीसदी) तोड़कर। बजट में राज्य इस कर्ज का खुलासा नहीं करते। राजनीतिक पटकथा में जाति व धर्म निर्णायक रहे हैं। अब तीसरा तत्व जुड़ गया है बेनेफिशरी क्लास। डेढ़-दो करोड़ सरकारी मुलाजिम पर कर आमद का तीन-चौथाई खर्च होने लगे तो 139 करोड़ को झुनझुना मिलेगा? देश यह सहने-स्वीकारने के लिए शायद ही तैयार हो सकता है। सत्ता-भोग के लिए देश को श्रीलंका-पाकिस्तान बनाने की साजिश चल रही है।

मूल सवाल ये है कि केंद्र सरकार के कर्मचारी (23.5 लाख) और राज्य सरकारों के कर्मचारी (60 लाख) ओल्ड पेंशन पाने लगें तो देश के शेष 139 करोड़ लोगों के कल्याण-विकास के लिए क्या बचेगा?

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