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पूर्व-नौकरशाहों को कैबिनेट मंत्रियों के रूप में शामिल करने से क्या लाभ होगा? - श्रीनारद मीडिया

पूर्व-नौकरशाहों को कैबिनेट मंत्रियों के रूप में शामिल करने से क्या लाभ होगा?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

स्वतंत्रता के बाद से भारत, अपनी नीतियों के कुशल निष्पादन में पूर्ण सफल नहीं रहा है अथवा नहीं। अंतरिक्ष और सूचना प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में हुई भारी प्रगति के बावजूद, स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा, स्वच्छता, आवास और खाद्य सुरक्षा जैसे कई बुनियादी, लेकिन अत्यंत महत्त्वपूर्ण सामाजिक क्षेत्रों में भारत सदैव संघर्ष ही करता रहा है।

देश जब अपनी स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है, तब यह उपयुक्त ही है कि लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाने के लिये वर्तमान सरकार ज़मीनी स्तर पर नीति कार्यान्वयन का प्रशिक्षण और अनुभव रखने वाले नौकरशाहों/पेशेवरों पर भरोसा जता रही है।

मंत्रिपरिषद (Council of Ministers- COMs) में पेशेवरों को कैबिनेट मंत्रियों के रूप में शामिल करना अब भारत में एक नया प्रतिमान ही बन गया है। इस निर्णय या दृष्टिकोण के अपने फायदे और नुकसान हैं और इसलिये इस दृष्टिकोण का मूल्यांकन किये जाने की आवश्यकता है।

COMs में भूतपूर्व नौकरशाहों को शामिल किये जाने के लाभ

  • निष्पादन-अनुकूल नीतियाँ: नौकरशाहों का अनुभव उन्हें ऐसी नीति को आकार देने में मदद करता है जो व्यवहार्य और निष्पादन-अनुकूल दोनों हो।
  • विचारधारा के प्रति कम निष्ठा: मंत्रिपरिषद में उन्हें शामिल किये जाने का एक अन्य लाभ यह है कि किसी राजनीतिक विचारधारा के प्रति उनकी अपेक्षाकृत कम निष्ठा होती है, जिसका अभिप्राय है उनका ‘पॉलिटिकल दायित्त्व’ और जवाबदेही काफी कम होती हैं और इस प्रकार सार्वजनिक हित में दीर्घकालिक निर्णयों का मार्ग प्रशस्त होता है।
  • लोकलुभावन उपायों से बचाव: निर्वाचित प्रतिनिधियों का झुकाव अल्पकालिक राजनीतिक लाभ के लिये लोकलुभावन उपायों की ओर होता है, जो बाद में अर्थव्यवस्था की समग्र स्थिति पर भारी पड़ता है।
    • ऐसी नीतियाँ प्रायः संरक्षण और भ्रष्टाचार का साधन बन जाती हैं। अनुभवी नौकरशाह से राजनेता बने लोग व्यावहारिक रूप से सोचते हैं और ऐसे वादे नहीं करते जिन्हें पूरा करना कठिन हो।
  • प्रणाली का आंतरिक-बाह्य ज्ञान: प्रणाली के अंग रहे नौकरशाह इसका आंतरिक-बाह्य ज्ञान रखते हैं; उनके लिये अंतर- और अंतरा-विभागीय ‘साइलो’ (Silo) को तोड़ना बहुत आसान होता है, जिससे लालफीताशाही में उल्लेखनीय कमी आ सकती है और इस तरह उत्पादकता में सुधार हो सकता है।
    • कई अर्थव्यवस्थाएँ इस तथ्य की गवाही देती हैं कि जब नीतियों को पूरी तरह से नई संरचना प्रदान की गई, तो इससे नाटकीय प्रगति हुई। वर्ष 1990 के दशक की शुरुआत में भारत द्वारा अर्थव्यवस्था का उदारीकरण ऐसा ही एक उदाहरण है।
  • कल्याणकारी उपायों का त्वरित और निर्बाध कार्यान्वयन: निर्वाचित प्रतिनिधियों के साथ ही पेशेवरों को शामिल करने का प्रयोग न केवल हमारे संसदीय लोकतंत्र को मज़बूत करेगा, बल्कि आम आदमी के लिये कल्याणकारी उपायों के त्वरित और निर्बाध कार्यान्वयन में भी मदद करेगा।
    • संकट प्रबंधन और संसाधनों का बेहतर उपयोग करने में, कौशल निश्चय ही पेशेवरों को मंत्रिमंडल में अपने निर्वाचित समकक्षों के मुकाबले एक अतिरिक्त बढ़त प्रदान करता है।
  • रणनीतिक बौद्धिक और प्रबंधकीय कौशल: जबकि उन्हें कार्यबल और आम जनता की स्वीकृति और भरोसा हासिल करने के लिये शुरू में संघर्ष करना पड़ सकता है, किंतु टीम प्रयास को प्रोत्साहित करने की उनकी क्षमता जल्द ही उनके पक्ष में कार्य करने लगती है।
    • इसके अलावा, उनके प्रशासनिक अनुभव को देखते हुए, संघर्षों, विवादों और विरोधों से निपटने के मामले में वे सरकार के लिये अत्यधिक मूल्यवान हो सकते हैं।
    • इसके साथ ही, उनके रणनीतिक बौद्धिक और प्रबंधकीय कौशल का उपयोग आपस में संघर्षरत हितधारकों के बीच आम सहमति बनाने के लिये किया जा सकता है। इस प्रकार, सरकार में उनकी संलग्नता शासन को बेहतर बनाने में मदद कर सकती है।

नौकरशाहों को मंत्रियों के रूप में शामिल करने की चुनौतियाँ

  • निर्वाचित प्रतिनिधि नहीं: नौकरशाह निर्वाचित प्रतिनिधि नहीं होते हैं और अपने कर्तव्यों की पूर्ति में कई बार लोगों की इच्छा की उपेक्षा भी कर सकते हैं।
    • इसलिये, कई बार कहा जाता है कि लोकलुभावन राजनीति लोकतंत्र की अवधारणा का समर्थन करती है और लोगों की आवाज़ को सुनती है।
    • लेकिन अनुभवी राजनेताओं को हमेशा इस बात की बेहतर समझ होती है कि लोग क्या चाहते हैं। वे लोगों की नब्ज़ बेहतर समझते हैं।
  • भूगोल, जनसांख्यिकी, जलवायु, अर्थव्यवस्था, संस्कृति और सामाजिक संरचनाओं के संबंध में भारत की विविधता को देखते हुए अलग-अलग स्थानों पर इसकी समस्याओं के लिये विशेष उपचार की आवश्यकता होती है।
    • ‘वन-साइज़-फिट्स-ऑल’ का दृष्टिकोण इसकी सभी समस्याओं के लिये, विशेष रूप से नीति निष्पादन के मामले में, रामबाण उपचार नहीं हो सकता।
    • इस प्रकार, मंत्रिमंडल में समुदायों के व्यापक प्रतिनिधित्व की आवश्यकता होती है। इसके अलावा, निजी तौर पर चुने हुए नौकरशाहों को शामिल करने से मंत्रिपरिषद में समावेशन के बजाय भागीदारी के बहिर्वेशन की स्थिति बन सकती है।

  • शासन की संस्थाओं को सुदृढ़ बनाना: संसद भारत में सर्वोच्च प्रतिनिधि संस्था है। राजनीतिक प्रतिनिधि निर्वाचकों का प्रतिनिधित्व करता है।
    • इसलिये, संसदीय कार्यकलाप की बेहतर प्रथाओं और प्रक्रियाओं को विकसित करने और बदलते समय के अनुरूप संसद को एक गतिशील संस्था बनाने की आवश्यकता है।
  • ‘ओपन गवर्नमेंट’ शासन सुधार का एक प्रमुख तत्व है: सरकार के कार्यकरण में व्याप्त गोपनीयता का वातावरण कदाचार को प्रोत्साहित करता है। यहाँ पूर्व-नियंत्रण की व्यवस्था नहीं है, क्योंकि निर्णय बंद दरवाज़ों के पीछे लिये जाते हैं।
    • इस प्रकार, भारत में सूचना का अधिकार (Right to Information- RTI) प्रणाली को मज़बूत बनाया जाना आवश्यक है।
  • शासन नहीं, सुशासन की आवश्यकता: सरकार और प्रशासन का उद्देश्य ‘सुशासन’ की प्राप्ति होना चाहिये।
    • सुशासन सहभागिता, सर्वसम्मति-उन्मुखता, जवाबदेही, पारदर्शिता, उत्तरदायिता, प्रभाविता एवं कुशलता, न्यायसंगतता और समावेशन जैसी विशेषताओं से परिलक्षित होता है और विधि के शासन का पालन करता है।
  • स्थानीय स्वशासन का क्षमता निर्माण: स्थानीय स्वशासन के पास अपने कार्यों की पूर्ति के लिये मानव संसाधनों, ज्ञान (कौशल-आधारित और व्यावहारिक ज्ञान) और आधारभूत संसाधनों की कमी है।

निष्कर्ष

इस प्रकार, लगातार बढ़ती वैश्विक और घरेलू सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों को देखते हुए, भारतीय संसदीय प्रणाली के लिये निर्वाचित प्रतिनिधियों और नौकरशाहों/पेशेवरों के बीच एक उपयुक्त संतुलन वर्तमान समय की मांग है। सरकार के लिये शासन में सुधार और अपने लोगों तक सेवा की आपूर्ति के लिये दोनों की भागीदारी महत्त्वपूर्ण होगी।

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