जजों की नियुक्ति के विवाद में कौन सही कौन गलत ?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
क्या न्यायिक स्वायत्तता पर अंकुश लगाने के प्रयास किए जा रहे हैं या क्या न्यायिक प्रक्रिया को सच में ही सुधारों की जरूरत है? 8 नवम्बर को संसद में अपने पहले अभिभाषण में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इस विषय पर अपनी बातें रखीं और इस बात पर नाराजी जताई कि सर्वोच्च अदालत ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम (एनजेएसी एक्ट) को ओवररूल कर दिया है। 2014 में सरकार 99वें संविधान संशोधन के माध्यम से एनजेएसी एक्ट लाई थी।
इसे संसद में भरपूर समर्थन मिला। इकलौते राम जेठमलानी ही ऐसे थे, जिन्होंने राज्यसभा में इसका विरोध किया था। यह एक्ट मौजूदा कॉलेजियम सिस्टम को बदलकर जजों की नियुक्ति का अधिकार एक अन्य पेनल को देना चाहता था, जिसमें मुख्य न्यायाधीश समेत सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम जज, केंद्रीय कानून मंत्री व सिविल सोसायटी से दो प्रतिष्ठित सदस्य हों। लेकिन 2015 में सर्वोच्च अदालत ने यह कहते हुए इस एक्ट को समाप्त कर दिया कि न्यायपालिका सरकार की कृतज्ञता के चक्रव्यूह में नहीं फंस सकती।
कॉलेजियम में मुख्य न्यायाधीश समेत सर्वोच्च अदालत के चार वरिष्ठतम जज होते थे। केंद्रीय कानून मंत्री किरन रिजिजू सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि कॉलेजियम प्रणाली अस्पष्ट और गैरजवाबदेह है। उन्होंने कहा पूरी दुनिया में कहीं भी जज ही जजों की नियुक्ति नहीं करते, सिवाय भारत के। यह प्रक्रिया संविधान के अनुरूप नहीं है। वहीं पूर्व मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमन्ना कहते हैं, जजों की नियुक्ति एक लम्बी, परामर्श-आधारित प्रक्रिया के माध्यम से की जाती है और इसमें अनेक सहभागियों से संवाद किया जाता है।
इससे ज्यादा लोकतांत्रिक प्रक्रिया कोई दूसरी नहीं। सर्वोच्च अदालत के एक मौजूदा जज ने कानून मंत्री का प्रतिकार करते हुए कहा, जब कोई व्यक्ति इतने ऊंचे पद पर हो तो उसे ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिए। इस मामले की जड़ में यह है कि तमाम सरकारें- वो चाहे जिस पार्टी की हों- यह चाहती हैं कि न्यायपालिका उनके एजेंडा का समर्थन करने वाली हों। हो भी क्यों ना, अदालतों के सम्मुख प्रस्तुत 80% से ज्यादा मामलों में सरकार ही एक पक्ष होती है। वैसे में वे जजों की नियुक्ति में दखल देना चाहती हैं।
अतीत में यह बेरोकटोक किया जाता था। 1973 में इंदिरा गांधी ने तीन जजों को दरकिनार करते हुए जस्टिस ए.एन. राय को मुख्य न्यायाधीश बना दिया था। इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए 1993 में कॉलेजियम सिस्टम लाया गया। इसके बाद सरकार जजों की नियुक्तियों-तबादलों के लिए कॉलेजियम की सिफारिशों पर निर्भर हो गई। सरकार चाहे जितने नामांकितों को विचारार्थ भेज सकती थी, लेकिन निर्णय कॉलेजियम का ही मान्य था। लेकिन सरकारों के पास एक और उपाय था।
वे सर्वोच्च अदालत की सिफारिशों को तो रद्द नहीं कर सकती थीं, लेकिन उन्हें स्वीकार करने में भरपूर समय जरूर ले सकती थीं या सूचीबद्ध नामों में से अपनी पसंद के नामों को ही चुन सकती थीं। नवम्बर 2022 तक हाईकोर्ट में नियुक्तियों सम्बंधी कॉलेजियम की 68 सिफारिशें सरकार के सामने लम्बित थीं। इनमें से 11 ऐसी थीं, जिनके लिए उसने जोर दिया था और सरकार के लिए उन्हें मानना बाध्यकारी था। यह संवैधानिक संकट पैदा करने वाली स्थिति है।
सर्वोच्च अदालत के जज संजय के. कौल ने चेताया है कि सरकार सीमा पार कर रही है। उन्होंने न्यायिक कार्रवाई की भी बात कही है। उनका कहना है कि बीते डेढ़ वर्षों से दर्जनों नाम लम्बित पड़े हैं। इनमें से एक वकील की मृत्यु हो चुकी है, एक अन्य ने अपनी सहमति वापस ले ली है। भारत में 4.7 करोड़ मामले लम्बित हैं। 60 हजार सर्वोच्च अदालत में रुके हैं। हाईकोर्ट के जजों की 1108 स्वीकृत पोस्ट में से 380 खाली हैं। पटना हाईकोर्ट में 49% सीटें रिक्त हैं।
इलाहाबाद हाईकोर्ट में 160 मंजूर पदों के समक्ष केवल 66 जज हैं। दिल्ली, कोलकाता, पंजाब, हरियाणा के हाईकोर्ट में 40% तक सीटें खाली हैं। समस्या का समाधान खोजना जरूरी है। सरकार का यह कहना सही है कि दुनिया के किसी और देश में जज ही जजों की नियुक्ति नहीं करते।
वहीं न्यायपालिका भी अपनी स्वायत्तता की उचित ही रक्षा कर रही है। कॉलेजियम प्रणाली में पारदर्शिता का अभाव है तो कॉलेजियम की सिफारिशों पर सरकार की प्रतिक्रिया के बारे में भी यही बात कही जा सकती है। नागरिक स्वतंत्र न्यायपालिका चाहते हैं, लेकिन वे यह भी चाहते हैं कि न्यायिक तंत्र सुचारु रूप से काम करे।
तमाम सरकारें- वो चाहे जिस पार्टी की हों- चाहती हैं कि न्यायपालिका उनके एजेंडा का समर्थन करने वाली हों। हो भी क्यों ना, अदालतों के सम्मुख प्रस्तुत 80% से ज्यादा मामलों में सरकार ही एक पक्ष होती है।
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