गेहूं की कीमतों में बढ़ोतरी लगातार जारी है,क्यों?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने 2021-22 के लिए कृषि उत्पादन का अग्रिम अनुमान जारी किया है, जिसमें बताया गया है कि इस अवधि में कुल उत्पादन 315.72 मिलियन टन हो सकता है. यह आकलन 2020-21 की तुलना में 4.98 मिलियन टन अधिक है. यदि पांच वर्षों के औसत उत्पादन के हिसाब से देखा जाए, तो यह अनुमान 25 मिलियन टन अधिक है. यह चौथा अग्रिम आकलन है, जिसके बाद वास्तविक आंकड़े जारी होंगे. आकलनों में बदलाव की गुंजाइश रहती है. इस आकलन में पिछले अनुमान की तुलना में गेहूं के उत्पादन में मामूली बढ़त दिखायी गयी है.
पहले अनुमान लगाया गया था कि 106.4 मिलियन टन गेहूं का उत्पादन होगा, जबकि इस चौथे अनुमान में यह आंकड़ा 106.8 मिलियन टन का है, लेकिन स्वतंत्र अनुमान इससे कम हैं, क्योंकि अगर उत्पादन ठीक होता, तो बाजार में गेहूं की उपलब्धता होती. सरकार द्वारा होने वाली गेहूं की खरीद चौदह वर्षों में सबसे कम रही है. मई में सरकार को गेहूं निर्यात रोकने का निर्णय भी लेना पड़ा. केंद्र के पास जो गेहूं भंडार है, वह भी कई वर्षों में सबसे कम स्तर पर है. ऐसे में इन आंकड़ों को, खासकर गेहूं के मामले में, ठीक से देखा जाना चाहिए. अगर आप बाजार को देखें, तो गेहूं की कीमतों में बढ़ोतरी लगातार जारी है.
कमजोर मानसून के कारण कृषि उत्पादन को लेकर नयी चिंताएं भी पैदा हुई हैं. देश में इस साल खरीफ की बुआई कम हुई है, सो चावल का उत्पादन गिरना तय है. हालिया आंकड़ों के अनुसार धान का क्षेत्रफल पिछले वर्ष की तुलना में 43.83 लाख हेक्टेयर कम चल रहा है. पिछले साल 12 अगस्त तक धान की खेती का कुल क्षेत्रफल 353.62 लाख हेक्टेयर रहा था. यदि आगामी दिनों में उत्पादन क्षेत्रफल में बढ़ोतरी नहीं होती है, तो देश में 2.71 टन प्रति हेक्टेयर की चावल उत्पादकता के आधार पर चालू खरीफ सीजन में चावल का उत्पादन करीब 110 लाख टन कम रह सकता है.
उल्लेखनीय है कि केंद्रीय पूल में एक अगस्त को चावल और गेहूं का कुल भंडार चार साल के सबसे कम स्तर 676.33 लाख टन पर है. इसमें 266.45 लाख टन गेहूं और 409.88 लाख टन चावल शामिल है, जबकि एक अगस्त, 2021 को केंद्रीय पूल में गेहूं का स्टॉक 564.80 लाख टन और चावल का स्टॉक 444.59 लाख टन था. पिछले साल की तुलना में जिन राज्यों में धान की रोपाई कम हुई है,
उनमें झारखंड में 11.37 लाख हेक्टेयर, पश्चिम बंगाल में 11.23 लाख हेक्टेयर, ओडिशा में 4.31 लाख हेक्टेयर, मध्य प्रदेश में 4.46 लाख हेक्टेयर, बिहार में चार लाख हेक्टेयर, उत्तर प्रदेश में 3.37 लाख हेक्टेयर, छत्तीसगढ़ में 1.43 लाख हेक्टेयर, तेलंगाना में 3.39 लाख हेक्टेयर, आंध्र प्रदेश में 2.85 लाख हेक्टेयर कम है. ये सब चावल उत्पादक राज्य हैं. इनके अलावा आठ अन्य राज्यों में भी धान का क्षेत्रफल पिछले साल से कुछ कम है.
कृषि उत्पादों में वृद्धि के परिणामस्वरूप इनके निर्यात में भी उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई थी, लेकिन इस वर्ष उत्पादन घटने से निर्यात का प्रभावित होना स्वाभाविक है. पिछले साल लगभग 70 लाख टन गेहूं का निर्यात हुआ था, लेकिन कुछ महीने पहले गेहूं के निर्यात पर सरकार को रोक लगानी पड़ी. दुनिया के चावल बाजार में पिछले साल भारत की हिस्सेदारी 40 फीसदी के आसपास रही थी, पर इस बार उसमें भी कमी आने की आशंका बढ़ गयी है.
जब सरकार इस साल के उत्पादन का अनुमान लगायेगी, तब इस बात की संभावना भी है कि चावल निर्यात पर भी प्रतिबंध लगा दिया जायेगा. कृषि निर्यात में चीनी का भी बड़ा योगदान रहा है. वर्ष 2021-22 के जो अनुमान प्रकाशित हुए हैं, उनमें बताया गया है कि गन्ना उत्पादन 43.1 करोड़ टन रहा है. गन्ने की खेती पर मानसून और अन्य कारकों का क्या असर पड़ता है, वह देखना होगा.
कृषि उत्पादन से संबंधित एक चिंता खाद्य मुद्रास्फीति की भी है. अंतरराष्ट्रीय बाजार में खाद्य तेलों के दामों में गिरावट आयी है, जिसका फायदा हमें भी मिला है. सब्जियों में राहत नहीं मिल सकी है, पर दालों की कीमतों में कुछ कमी आयी थी, लेकिन फिर दालों के दाम बढ़ने लगे हैं. चौथे अग्रिम आकलन के अनुसार, पिछले साल 2.76 करोड़ टन दलहन तथा 3.77 करोड़ टन तिलहन का उत्पादन हुआ था. आलू-प्याज के भाव गिरने से भी महंगाई के मोर्चे पर कुछ राहत मिली है. लेकिन अगर खरीफ उत्पादन में कमी आती है, तो मुद्रास्फीति का दबाव फिर से बढ़ने की आशंका को दरकिनार नहीं किया जा सकता है.
साथ ही, इस मामले में हमें किसी चमत्कार की उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए. मानसून का जो अस्थिर रवैया रहा है, उसका असर बाकी चीजों पर भी होगा. जैसी स्थितियां हैं और आगे का जो आकलन है, उसे देखते हुए ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर भी असर पड़ने की आशंका है. ग्रामीण अर्थव्यवस्था पहले से ही दबाव में है. जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान की वृद्धि से गेहूं की पैदावार कम रही है. कई जगहों पर तो यह असर 20 फीसदी तक रहा है. इसी कारण गेहूं से संबंधित सरकार के आकलन को स्वीकार कर पाना मुश्किल है.
ऐसे में किसान पहले से ही नुकसान में है और अब खरीफ के मामले में भी आशंकाएं बढ़ती जा रही हैं. मानसून की कमी और जलवायु परिवर्तन जैसे कारकों से सबसे अधिक नुकसान किसान को ही होता है. इसका सही आकलन तभी हो सकेगा, जब खरीफ की फसल बाजार में आयेगी. बीते साल कपास और सोयाबीन के अच्छे दाम किसानों को मिले हैं,
जो न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी अधिक है. सरसों के भी अच्छे दाम मिले थे. अब देखना यह है कि उत्पादन में क्या कमी आती है और बाजार का रुख कैसा रहता है. उल्लेखनीय है कि कीमतों का पूरा लाभ किसानों को नहीं मिल पाता, लेकिन फसल खराब होने, बारिश न होने जैसे कारकों का पूरा नुकसान उन्हें ही उठाना पड़ता है.
पहले ऐसा होता था कि कमजोर मानसून की आशंका को देखते हुए सरकारें किसानों को सलाह देती थीं कि वे कब रोपाई करें या क्या वैकल्पिक फसल लगाएं, पर इस बार यह नहीं हो रहा है. जिन इलाकों में किसानों की फसल बर्बाद हुई है, वहां मुआवजा देने के बारे में सोचा जाना चाहिए. पिछले वर्षों में यह भी होता रहा है कि बारिश कम होने की स्थिति में किसानों को डीजल पर अनुदान दिया गया और बिजली आपूर्ति बढ़ायी गयी. इस तरह के उपायों पर ध्यान देने की आवश्यकता है. इनमें से बहुत से काम राज्य सरकारें अपने स्तर से भी कर सकती हैं.