जब मुहम्मद मुर्तुजा ने फेंक दी बंदूक और पहन ली गांधी टोपी
* महात्मा गांधी के आह्वान पर पुलिस नौकरी छोड़कर कूद पड़े स्वतंत्रता संग्राम में
श्रीनारद मीडिया सीवान, (बिहार):
.देश आज जश्न-ज- आजादी मना रहा है। पूरे देश में खुशी का माहौल है। ये आजादी हमें यूंही नहीं मिली है। इस आजादी को पाने में हमारे पुरुखों ने बड़ी कुर्बानी दी है और तरह-तरह की यातनाएं सही हैं। भारतमाता को गुलामी की जंजीरों से आजाद कराने के लिए अनगिनत अनेक वीर सपूतों ने अपनी जान की कुर्बानी दी है तो कईयों ने सालों तक जेल की हवा खायी है तो कईयों तमाम जिंदगी काला पानी में गुजर गयी। बहुतों नज अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया तो कई फांसी के फंदे पर झूल गये। फेहरिस्त बहुत लंबी है। कुछ विख्यात स्वतंत्रता सेनानियों के अलावा ऐसे बहुत से स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे हैं जिनके नाम इतिहास की किताबों के पन्नों में दर्ज नहीं हो सके। चर्चित स्वतंत्रता सेनानियों के अलावा भी कई स्वतंत्रता सेनानियों ने भी देश को आज़ाद कराने के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया था, जिनके नाम से लोग आज वाकिफ तक नहीं है। यूं कहें कि लोग इन लोगों के बारे में बहुत कम जानते हैं। कुछ आजादी के दीवानों को उसी गांव की नयी पीढ़ी युवा जानते तक नहीं है। लेकिन नई नस्ल को आजादी के इन दीवानों से रु-ब-रु कराना हम सबका फर्ज है।
इन्हीं गुमनाम स्वतंत्रता सेनानियों में सीवान जिला बड़हरिया प्रखंड के रानीपुर के स्वतंत्रता सेनानी मुहम्मद मुर्तुजाका नाम भी शुमार हैं।ये भी हमारी जंग-ए- आजादी के नायक रहे हैं।महात्मा गांधी ने 1942 में ‘करो या मरो’ का आह्वान कर दिया। उस मुहम्मद मुर्तजा पुलिस महकमे में एएसआई के ओहदे पर कार्यरत थे। उम्र सिर्फ 23 साल थी। मुहम्मद मुर्तजा गांधी जी के इस आह्वान से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने बंदूक फेंक दी और गांधी टोपी धारण कर आजादी के दीवानों के साथ ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बगावती तेवर अपना लिया।
सीवान जिला के बड़हरिया प्रखंड के रानीपुर गांव के मौलवी शराफत हुसैन और बीवी हुसैन बांदी के पुत्र और भारतमाता के सच्चे सपूत मुहम्मद मुर्तुज़ा का जन्म चार दिसंबर,1919 में हुआ था।मुहम्मद मुर्तजा बचपन से मेधावी और देशभक्ति के जज्बे से ओतप्रोत थे। उन्होंने अगस्त,1938 में पुलिस की नौकरी तो कर ली।लेकिन देशभक्ति का जज्बा लगातार उनके अंदर कुलांचे भर रहा था।.राष्ट्रव्यापी आंदोलन का जैसे बिगुल बजा, वे अपने आप को रोक नहीं सके। उन्हें लगा कि भारतमाता उन्हें बुला रही है। उस वक्त वे पूर्णिया के नगर थाना खजांची हाट में पदस्थापित थे। मुहम्मद मुर्तजा के सीने में दफन हुब्बुलवतनी का जज्बा उबलने लगा। बंदूक फेंक दी और निकले मादरे वतन को आजाद कराने। अब उनके शरीर पर वर्दी नहीं थी। उसकी जगह खादी का कुर्ता -पायजामा था और सिर पर गांधी टोपी थी। इस इस बगावती तेवर को देख अंग्रेजी शासन ने उन्हें 14 अगस्त,1942 को गिरफ्तार कर पूर्णिया जेल में डाल दिया। उस दौरान उनकी जमकर पिटाई की गयी। फिर उन्हें भागलपुर सेंट्रल जेल भेज दिया गया। आजादी के परवाने मुहम्मद मुर्तुज़ा के खिलाफ मुकदमा चला और 17 मार्च,1943 को 13 माह की सजा हो गयी ।वहां से उन्हें सेंट्रल जेल हजारीबाग भेज दिया गया,जहां देश के नामचीन स्वतंत्रता सेनानी पहले मौजूद थे।बताया जाता है कि देश की आजादी के बाद उन्हें नौकरी पाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। आखिरकार उनकी पुलिस महकमे में नौकरी हो गयी। फिर वे 1978 में जमुई से रिटायर हुए। वहीं दो अगस्त,1988 में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया।भले मुहम्मद मुर्तुज़ा दुनिया छोड़कर परलोक सिधार गये। लेकिन उन्होंने जंग-ए-आजादी के लिए जो कुर्बानियां दीं, वह हमारे लिए प्रेरणादायक है। ऋणी राष्ट्र सदैव उनको याद करता रहेगा।