हमें कब से वर्तमान में जीना शुरू करना चाहिए?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
बाकी गृहिणियों की तरह वह भी सुबह 5 बजे उठ जातीं। पति-बच्चों की जरूरतें पूरी करने के बाद वह भी तैयार होतीं क्योंकि कुछ मरीज घर पर आते, इनमें ज्यादातर गरीब घरों से होते। वह शांति से उन्हें देखतीं। घरेलू काम का ये मतलब नहीं कि वह काम पर जाने के लिए लेट हो जाएं।
अस्पताल से लौटकर वह खाना बनातीं, घरवालों को खिलातीं और थक-हारने से पहले बमुश्किल एक घंटा खुद को दे पातीं। लोकप्रिय डॉक्टर होने के बावजूद वह दशकों तक सामान्य कामकाजी महिला की तरह रहीं क्योंकि वह भविष्य में स्थायित्व चाहती थीं। इस दंपति ने कड़ी मेहनत की, बेटे-बेटी को अच्छी परवरिश दी और थोड़े समय बाद खुद के लिए नर्सिंग होम बनाया।
समय आने पर बेटी की शादी हो गई और बेटे ने माता-पिता के पदचिह्नों पर चलने के बजाय एनेस्थीसिया फील्ड चुना। पर पैरेंट्स की एक फिलॉसफी को जीवन में अपना लिया कि पैसे देने में असमर्थ मरीजों से कभी पैसा मत लो। जब भर्ती मरीज की कमजोर आर्थिक स्थिति के बारे में पता चलता तो वह चुपचाप जाकर बिलिंग विभाग में कह देते कि उनकी फीस बिल में न जोड़ें।
उन दंपति को जब अहसास हुआ कि बेटे की नर्सिंग होम चलाने में रुचि नहीं, तो इसे बंद करने में उन्होंने एक मिनट भी नहीं लगाया। इसके बाद उज्जैन के डॉ. विकास चौधरी और उनकी पत्नी डॉ. प्रभा चौधरी ने अपने सपने पूरे करने के लिए जीना शुरू किया।
मुंबई के चेंबूर में रहने वाले एक अन्य डॉक्टर दंपति को मैं जानता हूं, जिन्होंने इकलौते बेटे के लिए नर्सिंग होम बनवाया था। दुर्भाग्य से बेटे की पढ़ाई में रुचि नहीं थी और दसवीं में कई बार फेल हुआ। जब ये दंपति ‘सक्सेस थ्रू अपोजिट्स’ किताब के लेखक एन. मुत्थूस्वामी की क्लीनिक में बेटे की काउंसिलिंग के लिए आए, तब मुझे उनके बारे में पता चला।
मुत्थूस्वामी ने उन्हें बताया कि उनके बेटे की संगीत में रुचि है और वह महान ड्रमर बनेगा। नर्सिंग होम में निवेश को ध्यान में रखते हुए वह दंपति बेटे को डॉक्टर बनाने की असफल कोशिश करते रहे। आखिरकार उन्होंने बेटे को एक म्यूजिक क्लास में डाला और छह महीने में उसे अमेरिका के हार्वर्ड स्कूल की एक संगीत अकादमी की स्कॉलरशिप मिल गई और उसने अभिनेत्री श्रुति हासन के साथ कई कोर्स किए और मनोरंजन क्षेत्र में फेमस हुआ। वह जितना नर्सिंग होम से कमाता, उससे कहीं ज्यादा इससे कमा रहा है। आज ये डॉक्टर दंपति जरूरतमंद मरीजों की मदद करते हुए सेमी-रिटायर्ड लाइफ जी रहे हैं।
जब मैं 50 साल की उम्र के ऐसे लोगों से मिलता हूं, जिन्होंने जिंदगी की दूसरी पारी शुरू की है, तो मुझे ये दो अलग-अलग कहानियां याद आ जाती हैं, जहां इन पेशेवरों ने रिटायरमेंट उम्र तक पहुंचने से काफी पहले ही जिंदगी जीने और जितना हो सके, समाज को लौटाने का निश्चय कर लिया था।
अलग-अलग कॉर्पोरेशन में 25 साल का अनुभव रखने वाले ज्यादातर लोग एजुकेशन फील्ड में काम करना चाहते हैं, जो अभी फल-फूल रहा है। ये दोनों के लिए विन-विन स्थिति है। एजुकेशन में भी कॉर्पोरेट के अनुभवी लोग चाहिए और इन्हें भी दूसरी पारी शुरू करनी है।
पर मुझे ये बात सताती है कि दूसरी पारी में भी ये लोग भविष्य के लिए होम लोन लेकर दूसरा या तीसरा घर बना रहे हैं और वर्तमान पलों का मजा नहीं उठा रहे हैं। जब मैं उनसे पूछता हूं कि वे कब अपने सपनों को जीना शुरू करेंगे, तो वे कहते हैं, ‘देखते हैं’।
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