Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the newsmatic domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/imagequo/domains/shrinaradmedia.com/public_html/wp-includes/functions.php on line 6121
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ किसे मानता है अपना गुरु? - श्रीनारद मीडिया
Breaking

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ किसे मानता है अपना गुरु?

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ किसे मानता है अपना गुरु?

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेट्रल डेस्क

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) 2025 में अपनी यात्रा के सौ वर्ष पूर्ण कर लेगा। वर्तमान समय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने आप में विश्व के अपने आप में अनूठे एवं अद्वितीय सांस्कृतिक संगठन के रूप में दिखाई देता है जिसने इतनी बड़ी यात्रा तय की है। यह अपने आप में बहुत बड़ी लकीर है। साथ ही समाज के मध्य जीवन्त उदाहरण भी है कि- मूल्यों, विचारों और उन्हें चरितार्थ करने के लिए शाश्वत बोध हो तो महान से महान लक्ष्य भी प्राप्त किया जा सकते हैं।

27 सितम्बर 1925 को विजयादशमी के दिन हिन्दू समाज को संगठित और सशक्त करने का ध्येय लेकर जन्मजात देशभक्त डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी। 10 नवम्बर 1929 को संघ की औपचारिक संरचना के उद्देश्य से उन्हें सरसंघचालक चुना गया। इस प्रकार वे संघ के संस्थापक सरसंघचालक कहलाए।

संघ की शुरुआत करने से पूर्व वे स्वतन्त्रता संग्राम के प्रखर क्रान्तिकारी नेता के रूप में भी चर्चित रहे। कांग्रेस में रहने के दौरान क्रान्तिकारी गतिविधियों में शामिल होने के चलते उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। 1917 में गांधी जी के सत्याग्रह आन्दोलन के समय भी ‘राज्य समिति के सदस्य’ के रूप में क्रान्तिकारी गतिविधियों में भाग लेने के चलते जेल जाना पड़ा था। तत्पश्चात असहयोग आंदोलन के दौरान अंग्रेजों के विरुद्ध भाषण देते हुए वर्ष 1921 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 1 वर्ष के कारावास की सज़ा दी गई।

डॉ. हेडगेवार ने जब 1925 में संघ की शुरुआत की तब उन्होंने घोषणा की थी “हमारा उद्देश्य हिन्दू राष्ट्र की पूर्ण स्वतंत्रता है, संघ का निर्माण इसी महान लक्ष्य को पूर्ण करने के लिए हुआ है।”

यों तो 1925 में संघ की विधिवत शुरुआत हो चुकी थी लेकिन स्थायित्व और संगठनात्मक सुव्यवस्था- दृढ़ीकरण को लेकर डॉ. हेडगेवार चिंतन करते रहते थे। चूंकि किसी भी संगठन को चलाने के लिए अर्थ (धन) की आवश्यकता होती है। अतएव संघ के लिए धन कहां से आएगा? आर्थिक अनुशासन के साथ आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए।

इन समस्त बिन्दुओं पर उन्होंने स्वयंसेवकों से विचार विमर्श किया। किसी ने चंदा लेने, किसी ने दान, किसी ने सदस्यता शुल्क तो किसी ने निजी बचत से संघ कार्य के संचालन का सुझाव दिया। अन्ततः डॉ. हेडगेवार ने ‘गुरु पूजन और समर्पण’ की अपनी संकल्पना प्रस्तुत की। इसके लिए गुरु पूर्णिमा (व्यास  पूर्णिमा) को चुना गया और तय किया गया कि इसी दिन गुरु के समक्ष सभी स्वयंसेवक गुरु दक्षिणा के रूप में समर्पण करेंगे।

चूंकि डॉ. हेडगेवार ने अभी स्वयंसेवकों के मध्य यह प्रकट नहीं किया था कि गुरु के रूप में वे किसे स्वीकार कर रहे हैं। इसलिए सभी स्वयंसेवकों के मन में भांति-भांति प्रकार की जिज्ञासा थी। गुरु को लेकर अपनी अपनी कल्पना- परिकल्पना थी। किन्तु  जब 1928 में संघ के पहले गुरुपूजन, गुरु पूर्णिमा का अवसर आया तो डॉ. हेडगेवार के भाषण को सुन वहां उपस्थित स्वयंसेवक अचम्भित रह गए। उस दिन सर्वप्रथम उन्होंने कहा था— “गुरु के रूप में हम परम पवित्र भगवा ध्वज का पूजन करेंगे और उसके सामने ही समर्पण करेंगे।”

यानि कि डॉ. हेडगेवार ने स्पष्ट रूप से संघ के गुरु के रूप में ‘भगवा’ ध्वज की प्रतिष्ठा की घोषणा कर दी थी‌। उन्होंने संघ के लिए ‘भगवा ध्वज’ को ही गुरु के रूप में क्यों स्वीकार किया। इसके सम्बन्ध में गुरुपूजन के अवसर पर उन्होंने भगवा ध्वज की महत्ता और उसकी ऐतिहासिक सांस्कृतिक प्रतिष्ठा पर विस्तार से प्रकाश डाला था। उन्होंने कहा था कि— “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ किसी भी व्यक्ति को गुरु न मानकर परम् पवित्र भगवा ध्वज को ही गुरु मानता है।

व्यक्ति कितना भी महान हो फिर भी उसमें अपूर्णता रह सकती है। इसके अतिरिक्त यह नहीं कहा जा सकता कि व्यक्ति सदैव ही अडिग रहेगा। तत्व सदा अटल रहता है। उस तत्व का प्रतीक भगवा ध्वज भी अटल है। इस ध्वज को देखते ही राष्ट्र का सम्पूर्ण इतिहास, संस्कृति और परम्परा हमारी आँखों के सामने आ जाती है। जिस ध्वज को देखकर मन में स्फूर्ति का संचार होता है वह अपना भगवा ध्वज ही अपने तत्व के प्रतीक के नाते हमारे गुरु-स्थान पर है। संघ इसीलिए किसी भी व्यक्ति को गुरु-स्थान पर रखना नहीं चाहता।”

(डॉ. हेडगेवार चरित,सप्तम संस्करण 2020, लोकहित प्रकाशन, लखनऊ पृ. 191, लेखक ना.ह.पालकर)

अपने भाषण के उपरान्त सबसे पहले डॉ. हेडगेवार ने स्वयं गुरु पूजन किया। तत्पश्चात वहां उपस्थित स्वयंसेवकों ने भगवा ध्वज की गुरु के रूप में पूजा की और अपना- अपना समर्पण दिया। इस प्रकार वर्ष 1928 में नागपुर में संपन्न हुए गुरु पूर्णिमा- गुरुपूजन उत्सव में  स्वयंसेवकों ने 84 रुपए और कुछ आने ही गुरु दक्षिणा के रूप में समर्पण किया।

स्पष्टतः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रूप में संगठन की शुरुआत करते हुए डॉ. हेडगेवार ने  संघ के लिए ‘व्यक्तिनिष्ठ’ के स्थान पर ‘तत्वनिष्ठ’ होने की पद्धति विकसित की। उन्होंने संघ को लेकर जिन मूल संकल्पनाओं एवं व्यवस्थाओं का सूत्रपात किया वे वर्तमान तक अपने उसी स्वरुप में दिखाई देती हैं। संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य ‘श्री गुरुजी’ से लेकर वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत तक ने गुरु के रूप में ‘भगवा ध्वज’ की महत्ता को बारम्बार उद्धाटित किया है।

23 अगस्त 1946 को पुणे में आयोजित गुरु पूर्णिमा के अवसर पर श्री गुरुजी ने स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए कहा था कि— “इसलिए संघ कार्य में उचित समझा गया कि हम भावना, चिह्न, लक्षण या प्रतीक को गुरु मानें। हमने संघकार्य के द्वारा सम्पूर्ण राष्ट्र के पुनर्निर्माण का संकल्प लिया है। समाज के सब व्यक्तियों के गुणों तथा शक्तियों को हमें एकत्र करना है। इस ध्येय की सतत् प्रेरणा देनेवाले गुरु की हमें आवश्यकता थी’।”

(संघ दर्शन, मा.स. गोलवलकर (1986), जागृति प्रकाशन, नोएडा, पृ. 86)

संघ के वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत  भी गुरु दक्षिणा और भगवा ध्वज की महानता के सन्दर्भ में अपने उद्बोधनों के माध्यम से उन्हीं विचारों को प्रकट करते  हैं। विज्ञान भवन नई दिल्ली में आयोजित ‘भविष्य का भारत ‘व्याख्यानमाला कार्यक्रम को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था— “हमारा संघ स्वावलंबी है। जो खर्चा करना पड़ता है वो हम ही जुटाते हैं।

हम संघ का काम चलाने के लिए एक पाई भी बाहर से नहीं लेते। किसी ने लाकर दी तो हम लौटा देते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्वयंसेवकों की गुरुदक्षिणा पर चलता है। साल में एक बार भगवा ध्वज को गुरु मानकर उसकी पूजा में दक्षिणा समर्पित करते हैं। भगवा ध्वज गुरु क्यों, क्योंकि वह अपनी तब से आज तक की परम्परा का चिह्न है। जब-जब हमारे इतिहास का विषय आता है, ये भगवा झंडा कहीं न कहीं रहता है।”

(‘भविष्य का भारत’, विज्ञान भवन नई दिल्ली 17-19 सितंबर 2018)

डॉ. हेडगेवार ने जब संघ के संचालन के लिए आदर्श और प्रतीक चुने तो व्यक्ति को नहीं बल्कि विचारों को चुना । इसके लिए उन्होंने भारत के स्वर्णिम अतीत को आत्मसात करने का दिग्दर्शन प्रस्तुत किया। उन्होंने भारतीय संस्कृति के शाश्वत प्रतीक द्वय — ‘भगवा ध्वज’ और ‘भारत माता की जय’ के घोष को केन्द्र में रखा और संघ कार्य प्रारम्भ किया।

इस सम्बन्ध में  संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर— ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ: स्वर्णिम भारत के दिशा सूत्र’ में लिखते हैं— “स्थायित्व, सुनिश्चितता तथा उन्नति व अवनति के समय में दरारों से बचने के लिए डॉक्टर जी ने दो प्रतिष्ठित व पवित्र प्रतीकों को प्रतिष्ठापित किया—’भगवा ध्वज’ और ‘भारत माता की जय’ का घोष। चिरकाल से भगवा ध्वज, त्याग, तपस्या, शौर्य और ज्ञान जैसे शाश्वत मूल्यों का पर्याय रहा है।

महाराणा प्रताप से लेकर शिवाजी तक सभी महान् योद्धाओं ने इसकी छत्रछाया में ही युद्ध लड़े हैं, मनीषियों ने इसकी प्रतिष्ठा में गीत गाए हैं, तपस्वियों ने इसकी आराधना की है। ‘भारत माता की जय’ का घोष भारत को माता के रूप में प्रतिष्ठापित करता है। इन दो शाश्वत प्रेरणास्त्रोतों के साथ स्वयंसेवकों ने बहुत छोटे रूप में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को स्थापित किया और उद्यमपूर्वक इसका विकास किया है।”

इस प्रकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पद्धति में ‘गुरु’ के रूप में ‘भगवा ध्वज’ तत्व निष्ठा के सर्वश्रेष्ठ -सर्वोच्च प्रतिमान के रूप में दिखाई देता है। संघ की भगवा ध्वज को गुरु के रूप में स्वीकार करने की संकल्पना के पीछे- भगवा में समाहित सूर्य की अनंत शक्ति, संन्यासियों के वेश में त्याग, तपस्या, पुरुषार्थ और सेवा का संकल्प और भारत के दिग्विजयी सम्राटों के ध्वज की गौरवपूर्ण झंकार एवं राष्ट्रीय एकता-एकात्मता की महान संकल्पना अन्तर्निहित है।

इसीलिए संघ डॉ. हेडगेवार द्वारा प्रणीत संकल्पना- पद्धति का अनुगमन करते हुए राष्ट्र निर्माण के पथ पर गतिमान है। यह डॉ. हेडगेवार की उसी दूरदृष्टि का सुफल है कि अपनी ‘तत्व निष्ठा’ के चलते ही संघ अपने विविध आनुषंगिक संगठनों के साथ वृहद स्वरूप ले पाया है। साथ ही समाज जीवन के विविध क्षेत्रों में संघ और उसके स्वयंसेवक अपने-अपने कार्यों एवं विचारों से अमिट छाप छोड़ने में सफल हो रहे हैं।

Leave a Reply

error: Content is protected !!