देश के वृद्धाश्रमों में भीड़ क्यों बढ़ रही है?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
एक चिन्तनीय प्रश्न है कि भारत में वृद्धाश्रमों में भीड़ क्यों बढ़ रही है? क्यों वृद्धों की उपेक्षा एवं प्रताड़ना की स्थितियां लगातार बढ़ती जा रही है? क्यों आधुनिक युग की संतानें संवेदनहीन एवं स्वकेन्द्रित हो रही है? चिन्ता एवं चिन्तन का यह विषय महत्वपूर्ण इसलिये है कि एक ताजा सर्वे के दौरान वृद्धों से जुड़ी त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण स्थितियां सामने आयी है। लखनऊ, झांसी, वाराणसी और मथुरा के वृद्धाश्रमों में रहने वाले 40 प्रतिशत वृद्धजनों ने बताया कि उनकी संतानें बिल्कुल ध्यान नहीं रखतीं, इच्छानुसार भोजन तक नहीं दिया जाता, बच्चों की उपेक्षा एवं प्रताड़नाएं उनके जीवन को नरक बनाये हुए है। 13.78 प्रतिशत ने बताया कि बच्चे बिल्कुल साथ नहीं रहना चाहते। यही पीड़ा वृद्धजन को पल-पल की घुटन, तनाव एवं उपेक्षा से निकल कर वृद्धाश्रम जाने के लिए विवश करती है।
संतान द्वारा आवश्यकताओं को पूरा न करना गरिमा के साथ स्वतंत्र जीवन जीने जैसे मानवाधिकारों का हनन है। इस पर अंकुश के लिए समय-समय पर सरकारों और न्यायालयों द्वारा विभिन्न कदम भी उठाये जाते रहे हैं, किंतु संयुक्त परिवारों के विघटन और एकल परिवारों के बढ़ते चलन ने इस स्थिति को नियंत्रण से बाहर कर दिया है। एक बड़ा प्रश्न है कि वृद्धों की उपेक्षा के इस गलत प्रवाह को किस तरह से रोकें? क्योंकि सोच के गलत प्रवाह ने न केवल वृद्धों का जीवन दुश्वार कर दिया है बल्कि आदमी-आदमी के बीच के भावात्मक फासलों को भी बढ़ा दिया है, भारत की परिवार-परम्परा को तार-तार कर दिया है।
वृद्धावस्था जीवन की सांझ है। वस्तुतः वर्तमान के भागदौड़, आपाधापी, अर्थ प्रधानता, नवीन चिन्तन तथा तथाकथित आधुनिक मान्यताओं के युग में जिन अनेक विकृतियों, विसंगतियों व प्रतिकूलताओं ने जन्म लिया है, उन्हीं में से एक है वृद्धों की उपेक्षा। वस्तुतः वृद्धावस्था तो वैसे भी अनेक शारीरिक व्याधियों, मानसिक तनावों और अन्यान्य व्यथाओं भरा जीवन होता है
और अगर उस पर परिवार के सदस्य, विशेषतः युवा परिवार के बुजुर्गों/वृद्धों को अपमानित करें, उनका ध्यान न रखें या उन्हें मानसिक संताप पहुँचाएं, तो स्वाभाविक है कि वृद्ध के लिए वृद्धावस्था अभिशाप बन जाती है। इसीलिए तो मनुस्मृति में कहा गया है कि- “जब मनुष्य यह देखे कि उसके शरीर की त्वचा शिथिल या ढीली पड़ गई है, बाल पक गए हैं, पुत्र के भी पुत्र हो गए हैं, तब उसे सांसारिक सुखों को छोड़कर वन का आश्रय ले लेना चाहिए, क्योंकि वहीं वह अपने को मोक्ष-प्राप्ति के लिए तैयार कर सकता है।”
वृद्धाश्रमों में केवल निराश्रित एवं अभावग्रस्त वृद्धजन ही नहीं आ रहे हैं बल्कि उन लोगों की संख्या अधिक है, जिनके घर में अपने तो हैं, वैभव-सम्पन्नता भी है, किंतु वे विमुख हैं। संतानें भी संवेदनाओं और मूल्यों को तिलांजलि देकर स्वकेंद्रित हो रही हैं, अपनी सुख-सुविधाओं पर केन्द्रित हैं। जिस देश में वसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा ने जन्म लिया, जहां की परिवार-परम्परा दुनिया के लिये आदर्श बनी है, वहां परिवार की परिभाषा सिमटती जा रही है। ऐसे बहुत से लोग मिल जायेंगे, जिनसे परिवार में कौन-कौन हैं, पूछने पर स्वयं, पत्नी और बच्चों की संख्या गिना देते हैं।
माता-पिता जीवित होने पर उनकी पारिवारिक परिधि में नहीं होते। भरण-पोषण के कानूनी अधिकार भी इस समस्या को रोक पाने में असमर्थ हैं। इसका एक कारण यह है कि वृद्धजन अनेकानेक पीड़ादायक परिस्थितियों के बाद भी संतान मोह में कोई ऐसा कदम नहीं उठाना चाहते हैं, जिससे उन्हें किसी परेशानी का सामना करना पड़े। ध्यान इस ओर भी देना है कि प्रश्न सिर्फ दो समय की रोटी उपलब्ध कराने का नहीं है बल्कि वृद्धजन को सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार दिलाने का है, ताकि बच्चों की उपेक्षाएं उनके जीवन की सांझ को अभिशाप न बना सकें।
आधुनिक जीवन की विडम्बना है कि इसमें वृद्ध अपने ही घर की दहलीज पर सहमा-सहमा खड़ा है, उसकी आंखों में भविष्य को लेकर भय है, असुरक्षा और दहशत है, दिल में अन्तहीन दर्द है। इन त्रासद एवं डरावनी स्थितियों से वृद्धों को मुक्ति दिलानी होगी। सुधार की संभावना हर समय है। हम पारिवारिक जीवन में वृद्धों को सम्मान दें, इसके लिये सही दिशा में चलें, सही सोचें, सही करें। इसके लिये आज विचारक्रांति ही नहीं, बल्कि व्यक्तिक्रांति की जरूरत है। अपेक्षा इस बात की भी है कि वृद्ध भी स्वयं को आत्म-सम्मान दें। जेम्स गारफील्ड ने वृद्धों से अपेक्षा की है कि यदि वृद्धावस्था की झुर्रियां पड़ती हैं तो उन्हें हृदय पर मत पड़ने दो। कभी भी आत्मा को वृद्ध मत होने दो।’
आधुनिक बच्चों से अपेक्षा है कि वे अपने बुजुर्गों के योगदान को न भूलें और उनको अकेलेपन की कमी को महसूस न होने दें। हमारा भारत तो बुजुर्गों को भगवान के रूप में मानता है। इतिहास में अनेकों ऐसे उदाहरण हैं कि माता-पिता की आज्ञा से भगवान श्रीराम जैसे अवतारी पुरुषों ने राजपाट त्याग कर वनों में विचरण किया, मातृ-पितृ भक्त श्रवण कुमार ने अपने अन्धे माता-पिता को काँवड़ में बैठाकर चारधाम की यात्रा कराई। फिर क्यों आधुनिक समाज में वृद्ध माता-पिता और उनकी संतान के बीच दूरियां बढ़ती जा रही हैं?
हकीकत तो यह है कि वर्तमान पीढ़ी अपने आप में इतनी मस्त-व्यस्त है कि उसे वृद्धों की ओर ध्यान केन्द्रित करने की फुरसत ही नहीं है। आज परिवार के वृद्धों से कोई वार्तालाप करना, उनकी भावनाओं की कद्र करना, उनकी सुनना कोई पसन्द ही नहीं करता है। जब वे उच्छृंखल, उन्मुक्त, स्वछंद, आधुनिक व प्रगतिशील युवाओं को दिशा-निर्देशित करते हैं, टोकते हैं तो प्रत्युत्तर में उन्हें अवमानना, लताड़ और कटु शब्द भी सुनने पड़ जाते हैं। इन्हीं त्रासद स्थितियों को देखते हुए डिजरायली ने कहा था कि यौवन एक भूल है, पूर्ण मनुष्यत्व एक संघर्ष और वार्धक्य एक पश्चात्ताप।’
यथार्थ है कि पीढ़ी-अन्तराल के कारण, पश्चिमी रंग ढंग के कारण, तथाकथित आधुनिक जीवनशैली और नवीन सोच के कारण भी पुरानी और नई पीढ़ी में टकराव दृष्टिगोचर हो रहा है। आज हम बुजुर्गों एवं वृद्धों के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने के साथ-साथ समाज में उनको उचित स्थान देने की कोशिश करें ताकि उम्र के उस पड़ाव पर जब उन्हें प्यार और देखभाल की सबसे ज्यादा जरूरत होती है तो वो जिंदगी का पूरा आनंद ले सके। वृद्धों को भी अपने स्वयं के प्रति जागरूक होना होगा।
आज का वृद्ध-समाज कुंठित एवं उपेक्षित है। अपने को समाज में एक तरह से निष्प्रयोज्य समझे जाने के कारण वह सर्वाधिक दुःखी रहता है। वृद्ध समाज को इस दुःख और संत्रास से छुटकारा दिलाने के लिये ठोस प्रयास किये जाने की बहुत आवश्यकता है। यह सच्चाई है कि एक पेड़ जितना ज्यादा बड़ा होता है, वह उतना ही अधिक झुका हुआ होता है यानि वह उतना ही विनम्र और दूसरों को फल देने वाला होता है, यही बात समाज के उस वर्ग के साथ भी लागू होती है, जिसे आज की तथाकथित युवा तथा उच्च शिक्षा प्राप्त पीढ़ी बूढ़ा कहकर वृद्धाश्रम में छोड़ देती है।
तथाकथित व्यक्तिवादी एवं सुविधावादी सोच ने पारिवारिक संरचना को बदसूरत बना दिया है। सब जानते हैं कि आज हर इंसान समाज में खुद को बड़ा दिखाना चाहता है और दिखावे की आड़ में बुजुर्ग लोग उसे अपनी शान-शौकत एवं सुंदरता पर एक काला दाग दिखते हैं। आज बन रहा समाज का सच डरावना एवं संवेदनहीन है। वृद्ध आदमी जीवन-सम्मान एवं आत्म-गौरव को खोकर आखिर कब तक धैर्य रखेगा और क्यों रखेगा जब जीवन के आसपास सब कुछ बिखरता हो, खोता हो, मिटता हो और संवेदनाशून्य होता हो। वृद्ध जीवन को पश्चाताप का पर्याय न बनने दें।
कटु सत्य है कि वृद्धावस्था जीवन का अनिवार्य सत्य है। जो आज युवा है, वह कल बूढ़ा भी होगा ही, लेकिन समस्या की शुरुआत तब होती है, जब युवा पीढ़ी अपने बुजुर्गों को उपेक्षा की निगाह से देखने लगती है और उन्हें अपने बुढ़ापे और अकेलेपन से लड़ने के लिए असहाय छोड़ देती है, यह तथ्य उत्तर प्रदेश में हुए ताजा सर्वे से सामने आया है। आज वृद्धों को अकेलापन, परिवार के सदस्यों द्वारा उपेक्षा, तिरस्कार, कटुक्तियां, घर से निकाले जाने का भय या एक छत की तलाश में इधर-उधर भटकने का गम हरदम सालता रहता।
वृद्धों को लेकर जो गंभीर समस्याएं आज पैदा हुई हैं, वह अचानक ही नहीं हुई, बल्कि उपभोक्तावादी संस्कृति तथा महानगरीय अधुनातन बोध के तहत बदलते सामाजिक मूल्यों, नई पीढ़ी की सोच में परिवर्तन आने, महंगाई के बढ़ने और व्यक्ति के अपने बच्चों और पत्नी तक सीमित हो जाने की प्रवृत्ति के कारण बड़े-बूढ़ों के लिए अनेक समस्याएं आ खड़ी हुई हैं। एक आदर्श एवं संतुलित समाज व्यवस्था के लिये अपेक्षित है कि वृद्धों के प्रति स्वस्थ व सकारात्मक भाव व दृष्टिकोण रखें और उन्हें वेदना, कष्ट व संताप से सुरक्षित रखने हेतु सार्थक पहल करे।
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