मस्जिदों में मंदिर क्यों ढूंढे जा रहे है?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
एक्ट को बताया असंवैधानिक
जैन ने कहा, ‘ये पूरी तरह से गलत और असंवैधानिक है। सबसे जरूरी बात ये है कि प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट में कटऑफ डेट 15 अगस्त 1947 क्यों रखी गई है। कट ऑफ डेट 712 ईस्वी होना चाहिए, जब मोहम्मद बिन कासिम ने पहला आक्रमण किया था और मंदिर तोड़े थे।’
क्या है प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट?
1991 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार एक कानून लेकर आई थी, जिसे प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट कहा जाता है। इसके मुताबिक, 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धार्मिक स्थल को दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता है।
क्यों पड़ी थी कानून की जरूरत?
1990 के दौर में राम मंदिर आंदोलन अपने चरम पर था। सोमनाथ से निकली रथयात्रा को अयोध्या पहुंचना था, लेकिन उससे पहले ही बिहार में लाल कृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया गया। नरसिम्हा राव की सरकार आते-आते अयोध्या जैसे कई विवाद उठ खड़े हुए।
इसे ही रोकने के लिए प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट लाया गया। लेकिन तब भी संसद में भाजपा ने इसका विरोध किया था। बिल को जेपीसी के पास भेजने की मांग की गई थी, लेकिन बावजूद इसके यह पास हो गया था।
सुप्रीम कोर्ट में होनी है सुनवाई
प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट की संवैधानिकता को चुनौती देने से जुड़ी कुल 6 याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई हैं। आज गुरुवार को इन मामलों में सुनवाई होनी है। चीफचीफ जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस पीवी संजय कुमार और जस्टिस मनमोहन की बेंच इनकी सुनवाई करेगी।
उत्तर प्रदेश के संभल में मस्जिद को लेकर शुरू हुए विवाद ने हिंसक रूप ले लिया था. जिसके बाद पूरे इलाके में तनाव पसर गया. यह विवाद संभल की शाही जामा मस्जिद के सर्वे को लेकर हो रहा है. दरअसल हिंदू पक्ष का दावा है कि एक मंदिर को तोड़कर इस मस्जिद को बनाया गया था. हिंदू पक्ष मस्जिद को हरिहर मंदिर बता रहा है. इससे पहले कुछ इसी तरह का दावा वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद, मथुरा के शाही ईदगाह और मध्य प्रदेश के धार के कमाल मौला मस्जिद को लेकर भी किया जा चुका है. किसी धार्मिक स्थान के धार्मिक स्वरूप को बदलने से 1991 का प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट रोकता है.
संविधान विशेषज्ञ कानून पर क्या बोले
संविधान विशेषज्ञ प्रो फैजान मुस्तफा ने कहा कि जो 91 का लॉ था वो एक उसूल पर बेस्ड था कि जो ऐतिहासिक गलतियां हुई हैं उन गलतियों को अब क़ानून के जरिए सुधारा नहीं जा सकता. देश में मुसलमानों के आने से पहले भी मंदिरों को तोड़ने की प्रथा रही है. इस कंट्रोवर्सी में पड़ने का कोई फ़ायदा ही नहीं है. तो फिर नए मामलों में याचिकाओं को कोर्ट क्यों स्वीकार कर रही हैं. यहीं ज़िक्र होता है उस क़ानूनी पेच का जो सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ़ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की एक मौखिक टिप्पणी से आया. ज्ञानवापी केस में इस observation से ऐसे मामलों में ज़िला अदालतों द्वारा याचिका स्वीकार करने की गुंजाइश बन गई है. जस्टिस चंद्रचूड़ की उस मौखिक टिप्पणी का संदर्भ भी समझ लेते हैं.
जस्टिस चंद्रचूड़ की मौखिक टिप्पणी का संदर्भ
अगस्त 2021 में विश्व वैदिक सनातन संघ से जुड़ी पांच महिलाओं ने वाराणसी की सिविल कोर्ट में एक याचिका दायर की. जिसमें उनका दावा है कि ज्ञानवापी मस्जिद परिसर की पश्चिमी दीवार के पीछे एक प्रार्थना स्थल मौजूद है और उन्हें साल भर वहां पूजा करने की इजाज़त दी जाए. याचिका में दावा किया गया कि ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में कई हिंदू देवी देवताओं की मूर्तियां हैं.
8 अप्रैल 2021 को वाराणसी के सिविल जज ने इन मूर्तियों की मौजूदगी का पता लगाने के लिए वीडियोग्राफ़िक सर्वे के आदेश दिए. इसके लिए एक एडवोकेट कमिश्नर को नियुक्त किया गया. लेकिन मस्जिद कमेटी ने 1991 के उपासना स्थल क़ानून के आधार पर इस आदेश को इलाहाबाद हाइकोर्ट में चुनौती दे दी. लेकिन पहले हाइकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट ने सर्वे पर रोक लगाने से इनकार कर दिया.
सुप्रीम कोर्ट के सामने चार अलग अलग याचिकाएं लंबित
इसी के बाद पूजा स्थलों से जुड़ी ऐसी ही कई और याचिकाओं पर जिला अदालतों द्वारा विचार का दरवाज़ा खुल गया. मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह विवाद पर दायर याचिकाओं को लेकर इलाहाबाद हाइकोर्ट ने भी यही तर्क दिया. हालांकि संविधान के जानकार मानते हैं कि मौखिक टिप्पणियां बाध्यकारी नहीं होतीं यानी उन्हें मानने की बाध्यता नहीं होती क्योंकि वो आदेश में रिकॉर्ड नहीं होतीं. इस बीच 1991 के पूजा स्थल अधिनियम को भी सुप्रीम कोर्ट में संवैधानिक आधार पर चुनौती दी गई है. सुप्रीम कोर्ट के सामने इस सिलसिले में चार अलग अलग याचिकाएं लंबित हैं. सितंबर 2022 में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ़ जस्टिस यूयू ललित ने इन याचिकाओं पर केंद्र सरकार को दो हफ़्ते के अंदर जवाब दाखिल करने को कहा था. लेकिन दो साल से ज़्यादा हो गए हैं अभी तक कोई हलफ़नामा दायर नहीं हुआ है.
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