छिन्नमस्तिका माता ने क्यों खुद काट लिया अपना ही शीश, पढ़े रोचक
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श्रीनारद मीडिया, सेंट्रल डेस्क:
बैसाख शुक्ल चतुर्दशी को नृसिंह चतुर्दशी के साथ ही मां छिन्नमस्ता का प्राकट्य दिवस भी मनाया जाता है. कहते हैं किसी काल में महामाया जगदंबा ने इसी दिन अपना शीश काट लिया था.
कौन हैं माता छिन्नमस्ता? आपने जगदंबा की एक तस्वीर देखी होगी जिसमें मां के एक हाथ में खड़ग, दूसरे हाथ में स्वयं उनका ही मस्तक है. उनके कबंध (मस्तकहीन धड़) से रक्त की तीन धाराएं फूंट रही हैं. वे रक्तधाराएं तीन मुखों में प्रवेश कर रही हैं. माता के पैरों के नीचे एक स्त्री-पुरुष भी दिख जाते हैं.
वह स्वरूप है दस महाविद्याओं में से पांचवी मां छिन्नमस्ता या छिन्नमस्तिका का. क्यों माता ऐसे उग्र स्वरूप में दिख रही हैं, आज आपको इससे परिचित कराता हूं. इसके बड़े निहितार्थ हैं- इसे ध्यान से समझने की जरूरत है. माता के साधकों के लिए तो अत्यंत आवश्यक है इस बात को समझना.
माता के इस स्वरूप की कथा से ज्यादा बड़ा है माता के इस स्वरूप का संदेश. यदि इस स्वरूप के तत्व को नहीं समझे तो कथा से बात पूरी होगी नहीं.
जगदंबा की महिमा अपरंपार है. यह सत्य है कि सब ब्रह्म का ही अंश है लेकिन हम जिस जीव जगत में जीते हैं वह पूर्ण रूप से जगत्माता महामाया की क्रीड़ास्थली है. उसी माया से वशीभूत होकर हम जीवन के हर कार्यकलाप करते हैं.
जठराग्नि यानी भूख की आग से लेकर कामाग्नि तक सब महामाया की माया ही है. इससे जीव पीड़ित होता है. किस अग्नि का हमारे जीवनचक्र में कितना स्थान होना चाहिए इसका सार जगदंबा के इस स्वरूप में दिखता है.
दिखने में यह स्वरूप भयानक है परंतु संतान और आश्रितों के पालन-पोषण का जो महत्व माता ने इस स्वरूप में दिया है वह परम कल्याणकारी है. जगदंबा के इस स्वरूप के पीछे की कथा बड़ी अद्भुत है.
क्यों जगदंबा हुईं छिन्नमस्ता?
एक बार शिवप्रिया मां पार्वती मंदाकिनी नें स्नान करने के लिए गई हुई थीं. साथ में उनकी प्रिय सखियां जया और विजया भी थीं. माता को भी भूख की अनुभूति हुई इससे उनका स्वरूप काला पड़ गया.
उनकी सखियों को भी बहुत भूख लगी. जगदंबा की सखियां जया-विजया कोई सामान्य नहीं हैं. शाक्त परंपराओं में इनका बहुत माहात्म्य है. दोनों नें मां पार्वती को कई बार टोका और कहा कि भूख लगी है. परंतु उस समय महामाया प्रकृति में लीन थीं.
मंदाकिनी में स्नान के बहाने वह पूरे जगत पर करुणा बरसा रही थीं. उन्होंने जया-विजया की बात अनसुनी कर दी लेकिन जया-विजया ने जगंदबा को टोकना नहीं बंद किया.
हारकर जया विजया ने कहा- माता अपने शिशु की रक्षा के लिए उसके उदर की भूख मिटाने के लिए अपना रुधिर यानी रक्त पिला देती है. आप तो संसार की पालक हो. सबकी भूख शांत करती हैं. क्या हमारी भूख नहीं मिटेगी?
आखिरकार जगदंबा ने वही बात कह दी जिसे हम आप सामान्य तौर पर अपने ही मित्र साथियों से कह देते हैं. ज्यादा ही भूख लगी है तो मुझे ही काटकर खा जाओ. लेकिन यहां बात हम आप जैसे मर्त्यलोक के प्राणियों की नहीं थी.
जया-विजया जैसी प्रिय सखियों के ताने सुनकर पार्वती सचमुच क्रोधित हो उठीं. जगदंबा नदी से बाहर आकर आईं, अपने खड्ग का आह्वान किया और अपना सिर काट लिया. उनके धड़ से रक्त की तीन धाराएं निकलीं. जिसमें से दो धाराएं जया-विजया के मुंह में गई. तीसरी धारा स्वयं जगदंबा के मुख में आकर गिरी. तीनों ही वह रक्त पीने लगीं. माता स्तनों से दूध पिलाती है वह उसका रुधिर ही तो होता है.
जगदंबा ने स्वयं अपना ही रक्त पी लिया, तो उनका स्वभाव और उग्र हो गया. पूरे देवमंडल में त्राहि-त्राहि मच गई. देवी का यह उग्र स्वरूप देखकर देवगण भय से कांपने लगे. उन्हें भय हुआ कि कहीं अंबा फिर से काली का रूप लेकर पूरी सृष्टि के विनाश पर न उतारु हो जाएं.
आखिरकार महादेव इस समस्या के समाधान के लिए आगे आए. उन्होंने कबंध शिव का रुप धारण किया और देवी के प्रचंड स्वरूप को शांत किया. शिवजी के आग्रह को जगदंबा टाल नहीं पाईं और पार्वती के रूप में लौटीं.
जगत में स्त्री का रुप धारण करके महामाया हमेशा भावों के केन्द्र में रहती है, मां, पत्नी, बेटी, बहन के रूप में जैसे वो जीवन के हर क्षण में स्थित है, ठीक उसी तरह वो इस धरती पर हर तरफ अलग अलग स्वरूप में मौजूद होती हैं.
मां छिन्नमस्ता का स्वरुप उग्र हैं. यह देवी का वह स्वरूप है जब वह पूरी सृष्टि से दुष्टों के विनाश करती जा रही थीं. त्रिनेत्रधारी माता का कंठ सर्पमाला और मुंडमाल से शोभित है. खुले बाल, जिह्वा बाहर, आभूषणों से सजी मां नग्नावस्था में हैं. सभी दिशाएं ही उनका वस्त्र हैं.
दाएं हाथ में खड्ग और बाएं हाथ में अपना कटा मस्तक है. कटे हुए धड़ से रक्त की तीन धाराएं फूटती हैं. दोनों ओर उनकी सखियां ‘जया’ और ‘विजया’ खड़ी हैं, जिन्हें वह रक्तपान करा रही हैं. स्वयं भी रक्तपान कर रही हैं.
छिन्नमस्ता के चरणों में क्यों दिखते हैं स्त्री-पुरुष?
पैरों के नीच कमल पुष्प पर एक स्त्री-पुरुष युगल ही दिख जाते हैं. यह प्रतीक है कि माता के लिए अपनी संतान की रक्षा कितनी महत्वपूर्ण है. वह अपना मस्तक काट सकती है, उसे अपना रक्त पिला सकती है.
पैरों के नीचे स्त्री-पुरुष युगल प्रतीक हैं कि कामेच्छा का बलपूर्वक दमन भी करना चाहिए. इस भयानक स्वरूप में, अत्यधिक कामनाओं, मनोरथों से आत्म नियंत्रण के सिद्धांतों का प्रतिनिधित्व करती हैं. देवी छिन्नमस्ता का घनिष्ठ सम्बन्ध, “कुंडलिनी” नामक प्राकृतिक ऊर्जा या मानव शरीर के एक छिपी हुई प्राकृतिक शक्ति से हैं.
कुण्डलिनी शक्ति प्राप्त करने हेतु या जगाने हेतु, योगिक अभ्यास, त्याग तथा आत्मनियंत्रणचाहिए. योगिक क्रिया में यह अत्यंत महत्वपूर्ण हैं. एक परिपूर्ण योगी बनने हेतु, संतुलित जीवनयापन का सिद्धांत प्रतिपादित होता हैं.
छिन्नमस्ता मंदिर झारखंड के रांची से क़रीब 80 किलोमीटर दूर रजरप्पा में स्थित है. यह भारत के सर्वाधिक प्राचीन मन्दिरों में से एक है. असम के कामरूप स्थित माँ कामाख्या मंदिर के बाद यह दूसरा सबसे बड़ा शक्तिपीठ है.
समस्त सांसारिक प्राणियों के लिए छिन्नमस्तिका मार्ग ही श्रेयकर है. इसके मुताबिक सृष्टि में रहते हुए मोहमाया के बीच भी अलिप्त रहकर पूर्ण आनंद या वंचना की स्थिति में भी स्थितिप्रज्ञ रहकर मानव मुक्त हो सकता है.
देवी स्वयं ही तीनो गुणों; सात्विक, राजसिक तथा तामसिक का प्रतिनिधित्व करती हैं. ब्रह्माण्ड के परिवर्तन चक्र का प्रतिनिधित्व करती हैं जो कहता है कि सृजन तथा विनाश संतुलित होना चाहिए. शीशकाटना विनाश का प्रतीक है तो रक्त पिलाकर भूख शांत करना सृजन का.
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